कायस्थों का खाना-पीना (छठी कड़ी)
अब बात पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में रहने वाले कायस्थों की बात करते है. जिनके खानों में बहुत समानता देखने को मिलती है. गंगा, यमुना और गोमती जैसी नदियों से उर्वर होने वाले इस इलाके में प्रचुर मात्रा में कृषि है. उपजने वाले तरह तरह की सब्जिया
किसी भी संवेदनशील व्यक्ति के लिए इन दिनों का माहौल एक टीस पैदा करने वाला है... बीमारियां, महामारियां और कई तरह की त्रासदियां आती जाती रही हैं... लेकिन इस बार यहां नफ़रत का वायरस एक बेहद खतरनाक अंदाज़ में फैला है... इसकी कोशिश तो पिछले कई दशकों से चलती आ रही है, लेकिन कोरोना काल ने इसके लिए एक उर्वर ज़मीन पैदा कर दी है... मुख्य धारा का मीडिया बेशक अपने चाल,
कायस्थों का खाना-पीना (पांचवी कड़ी)
-- संजय श्रीवास्तव
लखनऊ को नफ़ासत और तहज़ीब की नगरी कहा जाता है. अगर आप कई शहरों में जीवन गुजार चुके हों. उसमें एक शहर लखनऊ भी हो तो आपसे बेहतर उस शहर को कौन समझ सकता है. पुर
जब कोई संवेदनशील पत्रकार किसी शहर में जाता है तो वहां की संस्कृति, परंपराओं, धरोहरों और इतिहास को समझने की कोशिश ज़रूर करता है। सुधीर राघव ऐसे ही पत्रकार हैं। अमर उजाला में समाचार संपादक रहते हुए वह कई शहरों में रहे। सबसे कम वक्त बिताया बनारस यानी शिव की नगरी काशी में। लेकिन इन चंद महीनों में भी उन्होंने वहां के तमाम पहलुओं को तलाशा । बनार
देख तमाशा दुनिया का
आपने बोतल में जिन्न वाली कहानी सुनी है? होता यह है कि समंदर के किनारे घूम रहे एक बालक के हाथ एक बोतल लग जाती है। बोत
कायस्थों का खाना-पीना (चौथी कड़ी)
--- संजय श्रीवास्तव
कहा जाता है कि जिन दिनों अंग्रेजों के जमाने में दिल्ली देश की राजधानी के तौर पर एक बड़ा शहर बन रहा था,तब राजस्थान के कुछ माथुर यहां आकर बसे. जिन्होंने का
1974 आंदोलन को बहुत करीब से देखने वाले वरिष्ठ पत्रकार जयशंकर गुप्त ने कालजयी रचनाकार फणीश्वर नाथ रेणु के साथ साथ उस दौर के तमाम साहित्यकारों को गहराई से महसूस किया है। अपने अनुभव और उस दौरान की स्थितियों के साथ मौजूदा हालात को बेबाकी से लिखने वाले जयशंकर गुप्त ने रेणु को उनकी पुण्यतिथि पर कुछ इस तरह याद किया। न्यूज़ पोर्टल न्यूज़ क्लिक में
नेशनल गैलरी ऑफ माडर्न आर्ट में जामिनी रॉय के चित्रों का खास संग्रह आप देख सकते हैं।
कायस्थों का खान-पान (तीसरी कड़ी)
-- संजय श्रीवास्तव
खाना अक्सर पुरानी यादों को जोड़ता है. ये भी कहते हैं कि खाना एक-दूसरे को जोड़ता है. खाना हमारे तौरतरीकों, लिहाज और परंपराओं को जाहिर करता है. कायस्थों का खाना भी ऐसा ही है. हम आज जो खाते-पीते हैं, वो कई कल्चर्स का फ्यूजन है. ये विदेशी व्यापारियों,
बेशक गांधी जी देश के लिए महात्मा और राष्ट्रपिता हों, लेकिन अगर कस्तूरबा गांधी का सहयोग, साथ और भरोसा उन्हें नहीं मिलता तो शायद आज गांधी जी की ये स्वीकार्यता न होती। आम तौर पर कस्तूरबा गांधी भुला दी गई हैं, उनके योगदान को उस तरह शायद नहीं समझा गया और उस दौर के भारतीय रूढ़ीवादी समाज में जिस तरह महिलाओं को त्याग की मूर्ति, पतिव्रता और पुरुषों की त