कायस्थों का खान-पान (तीसरी कड़ी)
-- संजय श्रीवास्तव
खाना अक्सर पुरानी यादों को जोड़ता है. ये भी कहते हैं कि खाना एक-दूसरे को जोड़ता है. खाना हमारे तौरतरीकों, लिहाज और परंपराओं को जाहिर करता है. कायस्थों का खाना भी ऐसा ही है. हम आज जो खाते-पीते हैं, वो कई कल्चर्स का फ्यूजन है. ये विदेशी व्यापारियों,
बेशक गांधी जी देश के लिए महात्मा और राष्ट्रपिता हों, लेकिन अगर कस्तूरबा गांधी का सहयोग, साथ और भरोसा उन्हें नहीं मिलता तो शायद आज गांधी जी की ये स्वीकार्यता न होती। आम तौर पर कस्तूरबा गांधी भुला दी गई हैं, उनके योगदान को उस तरह शायद नहीं समझा गया और उस दौर के भारतीय रूढ़ीवादी समाज में जिस तरह महिलाओं को त्याग की मूर्ति, पतिव्रता और पुरुषों की त
विजय विनीत एक बेहतरीन और समर्पित पत्रकार हैं। जनसरोकार की पत्रकारिता करने वाले विजय विनीत इन दिनों वाराणसी में जनसंदेश टाइम्स के राजनीतिक संपादक हैं। वाराणसी और आसपास के इलाकों से वहां की संस्कृति, समाज, सियासत और आम आदमी से जुड़ी बेहतरीन खबरें भेजते हैं, सरकार और प्रशासन से डरकर काम नहीं करते। कई बार धमकियां भी मिलीं, मुकदम
शास्त्रीय गायन में उनकी आवाज़, किसी राग के भीतर तक उतर जाने और श्रोताओं को एक नई दुनिया में ले जाने की उनकी कला का जवाब नहीं था। किशोरी अमोनकर अगर आज होतीं तो 89 बरस की हो रही होतीं... 10 अप्रैल 1931 को मुंबई
कायस्थों का खाना-पीना (दूसरी कड़ी)
-- संजय श्रीवास्तव
चाहे खेल हो, संस्कृति हो, परंपराएं हों या फिर इतिहास के पन्नों में बिखरी ढेर सारी जानकारियां वरिष्ठ पत्रकार संजय श्रीवास्तव बहुत बारीकी से उनपर नज़र डालते हैं। इन दिनों अपने फेसबुक वॉल पर कायस्थों के खान-पान पर अपनी शोधपरक और दिलचस्प जानकारियों के साथ कुछ कड़ियां लिख रहे हैं। हालांकि अब कायस्थ के तमाम परिवार इन परंपरागत खान पान से दूर हो चुके
आज के दौर में पत्रकारिता जिस दौर में पहुंच चुकी है, उसमें इस पेशे में रहकर अपनी भीतर की संवेदनशीलता और दृष्टि को बचाकर रखना एक चुनौती से कम नहीं... जो लोग इस चुनौती को कबूल करते हैं उनमें से एक अहम नाम है प्रभात सिंह का... लंबे समय तक 'अमर उजाला 'के ज़िम्मेदार पदों पर रहने के बाद अब वह अपने मन की पत्रकारिता कर रहे हैं अपनी वेबसाइट संव
देख तमाशा दुनिया का...
दो हफ्ते हो गै, दस दिनां से
वाराणसी के जाने माने रंगकर्मी गोपाल गुर्जर की बेशक कोई राष्ट्रीय पहचान न बन पाई हो लेकिन उनकी प्रतिभा को रंग जगत और सिने जगत ने कुछ हद तक पहचाना जरूर। उनका गुज़रना कम से कम वाराणसी रंगमंच की दुनिया के लिए एक बड़ी क्षति है। संवेदनशील पत्रकार और ‘नाद रंग’ पत्रिका के संपादक आलोक पराड़कर ने गोपाल गुर्जर को ‘र
लंबे समय से पत्रकारिता से जुड़े और साहित्य की दुनिया में गंभीरता से काम करने वाले आलोक यात्री की लेखनी तमाम अहम सवालों पर एक खास शैली में खुद को अभिव्यक्त करती है। तमाम अखबारों के लिए कॉलम लिखने वाले और खासकर गाज़ियाबाद में अपनी संस्था 'मीडिया 360' के ज़रिये लगातार साहित्यिक गतिविधियों को अंजाम देने वाले आलोक यात्री एक बेहद संव