आज जामिनी रॉय क्यों याद आते हैं…
आज के दौर में जामिनी रॉय जैसे कलाकार क्यों याद आते हैं? क्या बदलते दौर में, विकास की अंधी दौड़ में और 21वीं सदी की तथाकथित आधुनिकतावाद में उनके चित्रों के पात्र ज्यादा ज़रूरी लगते हैं? क्या उनके पात्रों में रची बसी गांवों की खुशबू, संस्कृतियों और परंपराओं की जीवंतता और हमारे मूल्यों की तलाश पूरी होती है? दरअसल जामिनी राय का कालखंड तब का है जब देश तथाकथित तौर पर इतना विकसित नहीं हुआ था। आज हम भले ही विकास की बड़ी बड़ी बातें करें, लेकिन बंगाल के गांवों में या देश के तमाम हिस्सों के पिछड़े इलाकों में हालात आज भी सौ साल पहले ही वाले हैं। परंपराओं की जड़ें उतनी गहरी हैं और सियासी चक्र भी कुछ ऐसा है कि हम एक बार फिर उसी काल में लौटते हुए दिख रहे हैं। ऐसे में जामिनी रॉय और महत्वपूर्ण हो जाते हैं। रामायण, महाभारत और तमाम पुराणों के पात्र जिस तरह उनके चित्रों में सजीव होते हैं, कला के जो विविध आयाम उनमें दिखते हैं वो आज के दौर में तलाशना मुश्किल है।

नेशनल गैलरी ऑफ माडर्न आर्ट में जामिनी रॉय के चित्रों का खास संग्रह आप देख सकते हैं। एनजीएमए की वेबसाइट पर इस कलाकार के बारे में जो कुछ लिखा है और जिस तरह उनकी कला का मूल्यांकन है, उसे आपको भी पढ़ना चाहिए।

‘1920 के दशक में कलकत्ता एवं शांति निकेतन में कला के क्षेत्र में कई अभिनव प्रयोग हुए। इन गतिविधयों में जामिनी रॉय की गाथा उल्लेखनीय है। वे बंगाल की लोक कला की ओर आकृष्ट थे। हालांकि उन्होंने कलकत्ता के सरकारी कला विद्यालय में प्रशिक्षण प्राप्त किया। रॉय की कलात्मक अभिरुचि का सही मायनों में विकास उनके बाल्यकाल में ही बीरभूम जिले के बेलियाटोर गांव में हुआ जो उन दिनों अविभाजित बंगाल का एक हिस्सा था। रॉय ने स्वरूपों के सहजता को अपनाया, सशक्त एवं सपाट रंगों एवं माध्यमों को चुना। स्थानीय लोक कलाओं के विषय-वस्तु का अपनी कला में समावेश किया। उन्होंने कीमती कैनवस एवं ऑयल पेंटस को छोड़कर सस्ती सामग्रियों का इस्तेमाल शुरू किया जो उन दिनों लोक कला के लोग किया करते। रामायण एवं कृष्ण लीला के दृश्यों को अपनी कला में उतारा। गांव के आम स्त्री-पुरुष का चित्रण किया। पटुआ के संग्रह से लोकप्रिय प्रतिबिम्बों को पुनः लोगों के बीच पेश किया। जामिनी राय सतरंगी दुनिया तक सीमित रहे यानी भारतीय लाल, पीला, हरा, सिंदूरी, भूरा, नीला और सफेद रंगों को कला में उंडे़ला। इनमें अधिकांश जमीनी या प्राकृतिक रंग थे।



लोकोक्तियों का विभिन्न स्वरूपों में समुचित उपयोग होता है। एक ऐसा समय भी आया जब उन्होंने कालीघाट के पटुओं के कैलिग्राफिक ब्रशलाइन को अपनाते हुए बारीक स्वरूपों की सर्जना की। रेखाओं की सुस्पष्ट बारीकियां रॉय की सधी कूची की कहानी कहती है। सुरीली दिखती ये रेखाएं अक्सर कामुक भी दिखती हैं। सफेद या पीली-भूरी पृष्ठभूमि पर कालिख से चित्रकारी न केवल उनमें बल्कि मानव स्वरूप में छिपी लयात्मकता को भी प्रस्तुत करा है। बाउल एवं बैठी हुई महिला इस शैली के उत्कृष्ट उदाहरण हैं।



राय ने लोकोक्तियों के समुचित उपयोग में एक पूर्व शिक्षित कलाकार की संवेदना भर दी। अपने चित्रों में वे सौम्यता से विमुख नहीं हुए। इतना ही नहीं अपने चित्र में जो भव्यता वो लाते हैं उससे प्राचीन मूर्तियों की गुणवत्ता बरबस याद आती है।’

11 अप्रैल 1887 में जन्में जामिनी रॉय ने महान चित्रकार अबनिन्द्रनाथ टैगोर से कला की शिक्षा ली। कला के प्रति उनका समर्पण ऐसा था कि उन्होंने कभी इसे पैसों में नहीं तौला। कई ऐसी मिसालें हैं कि जामिनी राय ने अपनी ही पेंटिंग को उस खरीददार से दोबारा खरीद कर वापस ले लिया जब उन्हें पता चलता कि वह पेंटिंग की कद्र नहीं कर रहा।

पहली बार सन् 1938 में कोलकाता के ‘ब्रिटिश इंडिया स्ट्रीट’ पर उनकी प्रदर्शनी लगी थी। 1940 के दशक में जामिनी राय बंगाल के मध्यवर्ग और यूरोपिय समुदाय के लोगों में खासे मशहूर हुए। उनके बेहतरीन काम के लिए भारत सरकार ने 1955 में उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया था। 24 अप्रैल 1972 को रॉय दुनिया को अलविदा कह गए। उनके निधन के 4 साल बाद सरकार ने उन्हें उन 9 मास्टर्स में शामिल कर लिया, जिनके काम को राष्ट्रीय धरोहर माना गया।

Posted Date:

April 11, 2020

12:15 pm Tags: , ,
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