पूरब का खाना, ज़ायके का ख़ज़ाना…
  • संजय श्रीवास्तव

कायस्थों का खाना-पीना (छठी कड़ी)

अब बात पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में रहने वाले कायस्थों की बात करते है. जिनके खानों में बहुत समानता देखने को मिलती है. गंगा, यमुना और गोमती जैसी नदियों से उर्वर होने वाले इस इलाके में प्रचुर मात्रा में कृषि है. उपजने वाले तरह तरह की सब्जियां, खाद्यान्न, तिलहन और दलहन. उसका असर इस पूरे क्षेत्र के रिच खानपान पर खूब नजर भी आता है.
मशहूर खानपान विशेषज्ञ और लेखक केटी अचाया ने इंडियन फूड में देश के हर इलाकों के खानपान, कृषि और खानपान के इतिहास की बात की है. उसी किताब में कहा गया है, 16वीं सदी में उत्तर प्रदेश के गंगा के किनारे के इलाकों में जो खाने लोकप्रिय थे, उसमें सत्तू, जौ का आटा ज्यादा प्रचलन में था, दालें खूब होती थीं. लिहाजा उनसे मुंगोड़ी और बड़ियां बनाई जाती थीं. इनका उपयोग सब्जियों के साथ होता था. हालांकि किताब ये भी कहती है कि बेशक खांडवी को आजकल गुजरात का व्यंजन माना जाता है लेकिन असल में ये निकली पूर्वी यूपी और बिहार के ही इलाके से.
लोग आटे का हलवा बनाते थे. आटे और दूध को मिलाकर पतली पतली लिप्सी तैयार करते थे, चावल के आटे से बनने वाला लड़्डू खाया जाता था, जिसे चिरौटा कहा जाता था. हर मौसम में प्रचुर मात्रा में कई तरह की सीजनल सब्जियां, साग आदि पैदा होते थे.

सत्तू का मशहूर व्यंजन लिट्टी…

मैं मुख्य तौर पर आज अपने ननिहाल और माता जी के हाथ से बनाए जाने वाले व्यंजनों के बारे में बताऊंगा. उससे पहले एक सदी पहले एक अंग्रेज अफसर के डायरी के पन्ने की बात. उसने डायरी में बिहार के लोगों के खानपान की जानकारी दर्ज की थी. बकौल उसके बिहार में लोग नियमित तौर पर खाने में चावल के साथ गेहू, रागी और जौ के आटे की रोटियां खाते थे. जौ को चावल की जगह भी इस्तेमाल कर लिया जाता था. जब इसे चावल की तरह पकाया जाता था तो इसे बॉथ कहते थे वहीं मुस्लिम इसे कुशका कहते थे. चावल के आटे लड्डूओं की गोल बनाकर उबालकर खाया जाता था. इसे खिरौरा कहते थे. लाई, चिउड़ा और मक्के का दाना भूनकर लावा खाया जाता था. हर गांव में एक भड़भूजा जरूर होता था. त्योहारों में पूड़ी, खासतरह से फ्राई की दाल, दही में डला हुआ फुलवाड़ा खाया जाता था. अगर इस लिहाज से देखें तो एक सदी में इस पूरे इलाके में खानपान काफी बदल गया है. हालांकि सत्तू का जलवा बरकरार है. सत्तू को भी तरह तरह के व्यंजनों के रूप में खाया जाता है.

अब मैं अपने ननिहाल और मां के हाथों से बनने वाले स्वादिष्ठ खाने की बात करता हूं. खाना अक्सर पुरानी यादों को जोड़ता है. लिस्ट लंबी है- लाजवाब लौकी, कटहल और करेले की सब्जियां, भरवे, लजीज स्पाइसी मटर कीमा यानि निमोना, मसालेदार पतली अरहर दाल वाली खिचड़ी, अंगुली की तरह चाटकर खाने वाली तहरी, फरे, कोफ्ते, तरह-तरह पकौड़ियां और चटनी, मटर और कॉर्न के व्यंजन, बेसन, तेल और मसाले में साथ भुनने के बाद स्वाद की अलग रंगत देने वाली सब्जियां.

लज्जतदार वेज तहरी

नानी कई तरह के मीट बनाती थीं. ननिहाल की रसोईं पहली मंजिल पर जहां थी, उसे दीवारें तीन ओर से घेरती थीं और एक हिस्सा छोटी छत की ओर खुला होता था. इस छोटी छत पर अक्सर दूसरा किचन तब सजता था, जब नानी मीट बनाती थीं. मीट को पहले अच्छी तरह पानी से साफ करके उसे कटे प्याज, नमक, हल्की हल्दी के अलावा करीब आधे से एक चम्मच सरसों के तेल के साथ उबाल लिया जाता था. उबलने के बाद मीट को निकाल लिया जाता था और उबले पानी को अलग रख लिया जाता था. अब एक डेगची में सरसों तेल में ढेर सारा कटा हुआ प्याज छोड़ा जाता था. फिर जब प्याज गुलाबी होने का संकेत देता था तो प्याज-लहसुन के साथ मिलाकर पीसे गए खड़े मसालों के पेस्ट को डाला जाता था. आंच कुछ हल्की हो जाती थी. पेस्ट में देर तक भुनता रहता था. जब ये पूरा पेस्ट तेल छोड़ने लगता था तो मीट को मिलाया जाता था. ऊपर से ढक्कन लगा दिया जाता था. कुछ देर बाद जब ये लगता था कि मसालों और मीट ने आपस गर्मागर्म दोस्ती कर ली है तो फिर उसमें अलग रखा गया मीट का उबला पानी मिला दिया जाता था. ये हल्की आंच में पकता रहता था. करीब 40-50 मिनट या कुछ और समय में तैयार हो जाता था. इसमें अगर सही समय दही मिला दें तो इसका स्वाद कुछ अलग मिलता था. अगर पानी नहीं डालें तो ये मीट अलग स्वाद लिए होता था.

मसालेदार कीमा-कलेजी

नानी कलेजी, मटन कीमे के साथ अलग अलग डिशेज भी तैयार करती थीं. मछली कम बनती थी. जब बनती तो उसमें सरसों दाने का ज्यादा इस्तेमाल किया जाता था.मटर कीमे और बेसन को मिलाकर कबाब भी तैयार कर लिया जाता था. ये सभी कुछ बनता था सरसों तेल में. आमतौर पर पूर्वी उत्तर प्रदेश के कायस्थ घरों में पहले खाना सरसों तेल में ही ज्यादा बनता था. अब बेशक चिकन की बहार हो लेकिन तब मुझको याद नहीं कि कभी भी हमारे यहां चिकन बना हो. इस किचन के बर्तन एकदम अलग होते थे. उन्हें कतई मुख्य किचन के बर्तनों से मिक्स नहीं किया जाता था.

शाकाहार में भी एक से बढ़कर एक व्यंजन थे. हरी मटन के सीजन में सबसे खास दो व्यंजन होते थे. एक निमोना और दूसरी घूघनी. निमोना यानि यानि मटर कीमा. मटर को पीसा जाता है लेकिन इसमें इसके स्वाद को असल करारापन या तड़का बड़ियां देती हैं. ये मसालेदार सूखी बड़ियां कड़ाही पर गर्म सरसों तेल में सबसे पहले डाली जाती हैं. गर्म तेल के साथ वो भुनी जाती हैं फिर उसमें कटे हुए पतले प्याज और मसालों का पेस्ट मिलाकर फिर उन्हें तेल में तब तक आंच दी जाती है जब तक कि पूरा मसाला तेल को अलग नहीं करने लगे.

हरी मटर का मसालेदार निमोना

दरअसल तेल के साथ भुने जा रहे मसाले की ये परमानंद वाली स्थिति होती है यानि वो स्थिति जब मसाला सिद्धत्व को प्राप्त कर चुका है और असल कंटेट से मिलने को तैयार हो. हालांकि इस प्रोसेस के अलग तरीके भी हैं. अब इसमें पीसे हुए मटर को डालते हैं. आंच पर इन सबके तालमेल से भुनने-मिलने का सिलसिला तब तक चलता रहा है, जब तक एक खास खुशबु नहीं आने लगे. बस इसी समय में उसमें पानी मिलाते हैं. आंच हल्की की जाती है. इसे ढक दिया जाता है, ताकि भाप बाहर नहीं जाए. पाककला में पकती हुई सामग्री के साथ निकलती भाप को बाहर नहीं निकलने देने का भी एक मतलब होता है. कहा जाता है कि भाप जितना अंदर रहेगी. उतना ही बर्तन में अंदर उमड़-घुमड़कर स्वाद को और लजीज करेगी. मेरा दावा है कि इस निमोना को अगर आप खाएंगे तो वाह-वाह किए बगैर रह ही नहीं सकते. चावल के साथ खाइए या रोटी के साथ-दोनों में ये बेहद स्वादिष्ट होती है।

(पत्रकार संजय श्रीवास्तव के फेसबुक वॉल से)

Posted Date:

April 22, 2020

3:06 pm Tags: , , , , , , ,
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