कवि कई दिनों से अत्यंत प्रफुल्लित है। दिल बाग-बाग है। प्रसन्नता इतनी कि कवि हृदय बार-बार छलकने को आतुर हो जाता है। कवि जब अत्यधिक खुश होता है तो कविता नहीं लिख पाता। कविता उसे सूझती ही नहीं। वह लिखने की कोशिश अवश्य करता है लेकिन शब्द ही धोखा दे जाते हैं। वह गीत गाने का भी प्रयास करता है पर बोल ही नहीं उचरते। खुशी में कवि मधुर सुर छेड़ना चाहता है लेकिन उसके होंठ नहीं फड़कते। हां, पैर जरूर थिरकने लगते हैं लेकिन वह पैरों की थिरकन रोक लेता है। आखिर वह कवि है, कविता उसका धर्म है। चाहे जितनी खुशी हो, उसे थोड़ा भी थिरकना नहीं चाहिए। अगर उसके पैर जरा भी थिरके तो लोग कहेंगे यह कैसा कवि है जो नाचने को उत्सुक है। कवि को तो उदास, निराश और मायूस दिखना चाहिए। काव्य का स्रोत तो पीड़ा और निराशा है। अनिल त्रिवेदी का व्यंग्य...
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