कोफ़्ते और कबाब के क्या कहने…

कायस्थों का खाना-पीना (चौथी कड़ी)

— संजय श्रीवास्तव

कहा जाता है कि जिन दिनों अंग्रेजों के जमाने में दिल्ली देश की राजधानी के तौर पर एक बड़ा शहर बन रहा था,तब राजस्थान के कुछ माथुर यहां आकर बसे. जिन्होंने कायस्थ खानपान से दिल्ली को परिचित कराया.
महेश्वर दयाल की किताब “दिल्ली जो एक शहर था” में कहा गया, “दिल्ली के कायस्थ घरों में बड़ा उम्दा खाना बनता था. दिल्ली के माथुर कायस्थों के यहां गोश्त की एक किस्म बड़ी स्वादिष्ट बनती थी, जिसे शबदेग कहा जाता था. गोश्त को कई सब्जियों में मिलाकर और उसके अंदर कई खास मसाले डालकर घंटे घीमी आंच पर पकाया जाता था. मछली के कोफ्ते और अदले, पसंदे रोज खाए जाते थे.”
ये किताब कहती है, “कायस्थों के घरों में अरहर, उड़द और मसूर की दाल भी बहुत उम्दा बनती थी. अरहर और उड़द की दाल में एक – एक दाना अलग अलग नजर आता था. कायस्थ घरों में बेसन के टके-पीसे भी सब्जी के तौर पर बनाए जाते थे. बेसन का एक गोल रोल सा तैयार करके उसे उबालकर उसके गोल-गोल रोल सा तैयार करके उसके गोल-गोल टके पीसे काटकर उसकी रसेदार सब्जी बनाते थे. उसे इतना स्वादिष्ट समझा जाता था कि यहीं से वो कहावत मशहूर हुई, ये मुंह और मसूर की दाल.” “दिल्ली का असली खाना” में प्रीति नारायण का कहना है, “माथुरों ने बकरे के मांग और जिगर की तर्ज पर शाकाहारी व्यंजन तैयार किए. दाल को भिगोकर उसकी पीठी तैयार की जाती थी, जिससे दाल की कलेजी और दाल का कीमा बनाया जाता था. किसी भी सब्जी से कोफ्ते तो कच्चे हरे केले से केले का पसंदा बनाया जाता था.”


विनोद दुआ के खान-पान से संबंधित एक टीवी प्रोग्राम में मैने देखा था कि उन्होंने दिल्ली के सिविल लाइंस में रहने वाले माथुर कायस्थों की पाकशाला आनंद लेते हुए उन्होंने उनके कई खास व्यंजनों की नुमाइश की. जिसमें आलू के कुल्ले (स्टफ्ड आलू), शामी कबाब, मटन कोफ्ता और चने की दाल के व्यंजन थे.


“दिल्ली शहर दर शहर” पुस्तक में निर्मला जैन लिखती हैं, “दिल्ली में कुछ जातियों को छोड़कर बहुसंख्या शाकाहारी जनता की ही थी, इसलिए अधिक घालमेल उन्हीं व्यंजनों में हुआ. मांसाहारी समुदायों में प्रमुखता मुस्लिम और कायस्थ परिवारों की थी. विभाजन के बाद सिख और पंजाब से आनेवाले दूसरे समुदायों के लोग भी बड़ी संख्या में इनमें शामिल हुए. सामिष भोजन के ठिकाने मुख्य रूप से कायस्थ और मुस्लिम परिवारों में या जामा मस्जिद के आसपास के गली-बाजारों तक सीमित थे.”
दिल्ली के खास जानकार और नवभारत टाइम्स में लगातार दिल्ली के बारे में कॉलम लिखने वाले और मेरे मित्र विवेक शुक्ला ने मुझको बताया,” दिल्ली में अब भी माथुर कायस्थों की भरमार है. लगभग सभी non वेज खाते हैं.” मेरे एक और मित्र और पत्रकार संजीव माथुर ने मेरे इसी लेखन के दौरान मुझको फेसबुक पर बताया, “मेरे नाना का पुरानी दिल्ली में आज़ादी के समय प्रसिद्ध होटल था. जिसकी यादों के तार भगतसिंह, चंद्र शेखर आजाद,आई एन ए, बाबा साहेब आदि से जुड़े हैं. यही नहीं खान पान और परंपराओं के आपसी रिश्तों पर भी काफी कुछ है”.
इसी तरह फेसबुक पर कायस्थों के खान-पान पर प्रतिक्रिया देते हुए रंजना सक्सेना जी ने कहा, “मैं भी कायस्थ हूं वो भी पुरानी दिल्ली से. आज भी हम अपनी कायस्थ हवेलियो के खाने और कल्चर का लुत्फ उठा रहे हैं. जैसे ताहिरी, टके पैसे, कीमा कोफ्ता, मसरंगी और जच्चा के लिए बनाया जाने वाला हरीरा भी.”
कायस्थ परिवारों में बकरे के गोश्त (मटन) के बिना कोई दावत नहीं हो सकती. मुगलों की तरह ही कायस्थों ने भी मटन से कई तरह के लजीज व्यंजन बनाए. उनके यहां चिकन पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया जाता था. मछली को कभी-कभार ही खाने में रखा जाता है. अधिकतर कायस्थ घरों में दो रसोईघर होते थे. एक शाकाहारी भोजन के लिए और दूसरा मांसाहारी भोजन के लिए.

(पत्रकार संजय श्रीवास्तव के फेसबुक वॉल से)

Posted Date:

April 13, 2020

4:12 pm Tags: , , ,
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