असगर वजाहत के नाटकों में देश और समाज को देखने और इतिहास को वैज्ञानिक तथ्यों के साथ सामने लाने का जो शिल्प है, वह अद्भुत है। उनका ताज़ा नाटक 'महाबली' इसकी मिसाल है। दिल्ली के श्रीराम सेंटर में इस नाटक का पहला शो पिछले दिनों जाने माने रंगकर्मी एम के रैना के निर्देशन में हुआ। महाबली में क्या है खास और कौन हैं इस नाटक के दो महाबली जो हमारे देश में हर वक्त धड़कते रहते हैं, ये जा�
गाजियाबाद में साहित्य सृजन को लगातार एक गंभीर और सार्थक मंच देने की परंपरा शुरु करने वाली संस्था मीडिया 360 लिटरेरी फाउंडेशन का कथा संवाद निरंतर अपने मिशन में लगा है। पिछले पांच सालों से लगातार हर महीने कथा संवाद के जरिये तमाम नए रचनाकारों को मंच देने और कथाकारों की एक नई पीढ़ी को समृद्ध करने में लगी इस संस्था ने इस साल का आखिरी कथा संवाद 25 दिसंबर को गाजियाबाद में आयो�
हिन्दी और भोजपुरी साहित्य की एक अहम शख्सियत दिनेश ‘भ्रमर’ बेशक इन दिनों अस्वस्थ चल रहे हों, लेकिन 83 साल की उम्र में भी वह लगातार रचनात्मक रुप से सक्रिय हैं। गोपाल सिंह नेपाली और जानकी वल्लभ शास्त्री की काव्य धारा की एक अहम कड़ी के तौर पर उन्हें जाना जाता है। खासकर भोजपुरी साहित्य में उनके योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता। भोजपुरी में ग़ज़ल और रुबाई में प्रयोगधर
रंगमंच के तमाम आयामों और थिएटर पर चलने वाली बहसों को करीब से देखने समझने और उसपर लगातार लिखने वाले नाटककार राजेश कुमार ने दिल्ली के उस नए ट्रेंड को पकड़ने की कोशिश की है जो रंगकर्मियों के लिए नया उत्साह जगाने वाला है। अब तक कई चर्चित नाटक लिख चुके राजेश कुमार ने स्टूडियो थिएटर की इस नई परिकल्पना को करीब से देखा। कैसे बड़े बड़े और महंगे ऑडिटोरियम से निकाल कर थिएटर को घर
जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल की भव्यता और वहां से शुरु हुआ साहित्य उत्सवों का सिलसिला अब एक व्यापक रूप ले चुका है। पहले विश्व पुस्तक मेला और उसके बाद पुस्तक मेलों की भरमार, हर शहर में पुस्तक मेले और वहां का उत्सवी स्वरूप। साथ ही साथ सोशल मीडिया का बढ़ता प्रभाव और वहां लाइक्स, कमेंट्स पाने की ख्वाहिश। बेशक इसे साहित्य के स्वर्णिम काल के तौर पर देखा जा रहा हो, लेकिन �
साहित्य के कॉरपोरेट आयोजनों से अलग रज़ा फाउंडेशन की सांस्कृतिक-साहित्यिक गोष्ठियों की चिंता कुछ अलग रहती है। खासकर मौजूदा परिदृश्य में सत्ता के जनविरोधी चेहरे को बेनकाब करने की कोशिश करती हुई इन गोष्ठियों और आयोजनों में ये बात उभर कर आती है कि एक प्रतिरोध की संस्कृति को बरकरार रखने और इसके विस्तार की जरूरत लगातार है। 'कल्चरल कोलैप्स' यानी सांस्कृतिक पतन पर केन्द्र�