देख तमाशा दुनिया का...आलोक यात्री की कलम से
मैं छोटा सा रहा होउंगा। यही कोई पांच सात बरस का। गर्मी की एक दोपहर पिताश्री और मोटा ताऊ जी (पिताश्री के कॉलेज के सहयोगी श्री एम.डी.शर्मा जी) के साथ पहली बार किसी गांव के रोमांचक सफर पर निकलने का अवसर मिला था। इससे
‘नेपाल आता हूं, तो लगता है घर में बांसुरी बजा रहा हूं’
82 साल के हो गए बांसुरी के पर्याय बन चुके पंडित हरिप्रसाद चौरसिया
अतुल सिन्हा
अभी एक साल भी नहीं बीता है... भारत के 73वें स्वतंत्रता दिवस के मौके पर मशहूर बांसुरी वादक पंडित हरिप्रसाद चौरसिया कांठमांडू गए तो उनका वहां के तमाम युवा कलाकारों न
अतीत का आईनात्रिलोक दीप की कलम से
1969 में पहली बार लद्दाख गया था फौजियों के साथ। रास्ते में मुझे दो जानकारियां ऐसी मिलीं जो उस समय मेरे लिए नई थीं। एक, द्रास दुनिया का दूसरा सबसे ठंडा स्थान है और दूसरी लद्दाख में एक ऐसा यूरोपीय
जब अतीत में झांकते हैं जाने माने पत्रकार त्रिलोक दीप….
एक वक्त था जब ‘दिनमान’ को रघुवीर सहाय के साथ साथ त्रिलोक दीप के नाम से भी पहचाना जाता था। सत्तर का दशक था और दिनमान तब की सबसे बेहतरीन, गंभीर और सामयिक समाचार साप्ताहिक पत्रिका हुआ करती थी। टाइम्स ग्रुप की हिन्दी पत्रिकाओं में तब धर्मयुग, दिनमान, सारिका. माधु
वो जहां जाते थे, जिससे मिलते थे, सबके बहुत अपने हो जाते थे... उनकी सादगी और संघर्ष की कहानियां तमाम हैं... हर साथी की अपनी अपनी यादें हैं, अपने अपने अनुभव हैं... सबके लिए वो चितरंजन भाई थे.. हमारे लिए भी... गमछा गले में लपेटे या कभी कभार पगड़ी की तरह बांध लेते, पान खाते, गोल मुंहवाले बहुत ही प्यारे से लेकिन सबके संघर्ष के साथी... खुद की तकलीफों की कभी परवाह नहीं की... बातें करने से ज्याद
कविता पोस्टर एक कला है और प्रगतिशील आंदोलन का एक मजबूत हथियार
♦ रवीन्द्र त्रिपाठी
पिछले तीस पैंतीस बरसों से हिंदी भाषी इलाके में कविता को लेकर एक नई तरह की उत्सुकता पैदा हुई है। कविता पोस्टरों के रूप में। कई ऐसे कविता प्रेमी सामने आए हैं जो कविताओं या काव्य पंक्तियों के पोस्टर बनाते हैं। कुछ इनकी प्रदर्शनियां भी लगाते हैं। कुछ, बल्कि ज्यादातर, स
"अजी सुनते हो... पूरी दुनिया के दफ्तर खुल गए... मुए एक तुम्हारे दफ्तर को ही आग लगी है... कुछ तो शर्म करो... घर से ऑफिस कब तक चलाओगे... अब तो कामवाली से ल
ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो...भले छीन लो मुझसे मेरी जवानीमगर मुझको लौटा दो बचपन का सावनवो कागज की कश्ती वो बारिश का पानी....
इतनी कामयाबी, इतनी शोहरत... लेकिन एक ऐसा अकेलापन जिसने एक बेहतरीन और संभावनाओं से भरे कलाकार को खुदकुशी जैसी कायराना ह
आनंद मोहन जुत्शी उर्फ गुलज़ार देहलवी साहब बेशक 94साल के रहे हों, लेकिन उनके भीतर का शायर बदस्तूर अपनी पूरी रवानगी के साथ मौजूद था। उनके गुज़रने से दिल्ली वालों का अज़ीम शायर तो चला ही गया, शायरी की दुनिया का वो शख्स भी चला गया जिसकी मौजूदगी का एहसास हर आम ओ खास महफ़िल में ज़रूर होता था। गुलज़ार देहलवी साहब तमाम मंचीय शायरों की उस फ़ौज का हिस्सा नहीं थे, जिनकी मार्केटिंग औ