शख्सियत
गुलजार देहलवी : तुम याद करोगे हमारे बाद हमें
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June 13, 2020

आनंद मोहन जुत्शी उर्फ गुलज़ार देहलवी साहब बेशक 95साल के रहे हों, लेकिन उनके भीतर का शायर बदस्तूर अपनी पूरी रवानगी के साथ मौजूद था। उनके गुज़रने से दिल्ली वालों का अज़ीम शायर तो चला ही गया, शायरी की दुनिया का वो शख्स भी चला गया जिसकी मौजूदगी का एहसास हर आम ओ खास महफ़िल में ज़रूर होता था। गुलज़ार देहलवी साहब तमाम मंचीय शायरों की उस फ़ौज का हिस्सा नहीं थे, जिनकी मार्केटिंग और वाहवाही के ल

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शहनाई के शहंशाह से मिलना और उन्हें महसूस करना…
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June 11, 2020

शहनाई को शादी- ब्याह के मजमे से उठा कर बुलंदियों तक पहुंचाने वाले खां साहब  सुर की बारीक जानकारी को पहली शर्त मानते हैं फिर रियाज़ तो है ही। वे कहते हैं कि गला अच्छा होना या साज बजाना आना ही बहुत नहीं है। सुर और राग की गहरी जानकारी के बग़ैर संगीत में कोई आगे नहीं बढ़ सकता। आरोह-अवरोह की समझ बहुत बारीक चीज़ है। यह धीरे धीरे समझ आती है। लड़कपन में (सन 1930-32) में दालमंडी की गली के कोठों में रात

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ख्वाज़ा अहमद अब्बास होने का मतलब…
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June 7, 2020

एक लेखक के कितने आयाम हो सकते हैं, समाजवाद और इंसानियत के प्रति उसकी वैचारिक प्रतिबद्धता किस हद तक हो सकती है ये समझने के लिए हमें ख्वाज़ा अहमद अब्बास की ज़िंदगी को करीब से देखना चाहिए। आज़ादी के आंदोलन के दौरान ख्वाज़ा अहमद अब्बास ने इप्टा से जुड़कर तमाम इंकलाबी और तरक्कीपसंद हस्तियों के साथ तो काम किया ही, अपने लेखन को बचपन से जिंदगी के आखिरी दिनों तक बदस्तूर जारी रखा। एक पत्रकार

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हम सबके घरों के फिल्मकार थे बासु दा…
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June 4, 2020

आज फिल्मों का जो दौर चल रहा है, उसमें बासु चटर्जी जैसे फिल्मकार की गैर मौजूदगी भीतर कहीं एक शून्य पैदा करती है। उम्र को अगर नज़रअंदाज कर दें तो बासु दा के भीतर ज़िंदगी को देखने का अपना जो नज़रिया रहा वो 60 के दशक से आज तक वैसा ही रहा। आखिरी दिनों में भी उनके भीतर का फिल्मकार विषय तलाशता रहा लेकिन पिछले कुछ बरसों से वो चाहकर भी कुछ नया दे नहीं पाए। साहित्य में उनकी खासी दिलचस्पी थी और उनक

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शरद जोशी : लिखना जिनके लिए जीने की तरकीब थी
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May 21, 2020

जाने माने व्यंग्यकार, पटकथा लेखक और कवि रहे शरद जोशी को मौजूदा दौर के पत्रकार और नई पीढ़ी के लोग कम ही जानते हैं… लेकिन परसाई जी के बाद तमाम व्यंग्यकारों की फेहरिस्त अगर बनाई जाए तो शरद जोशी का नाम सबसे ऊपर आता है। दरअसल शरद जी में वो कला थी कि कैसे सामयिक विषयों और सत्ता की विसंगतियों के खिलाफ दिलचस्प तरीके से व्यंग्य किया जाए, भाषा की रवानगी के साथ ही आंचलिकता को बरकरार रखते हुए मुद

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नाम और दाम से बेपरवाह ‘आनन्द’
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May 2, 2020

एक ज़माने में सक्रिय पत्रकारिता में रहीं डॉ तृप्ति की कला, साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में गहरी पकड़ रही है। तमाम सामाजिक सवालों के साथ ही तमाम मनोवैज्ञानिक मसलों पर अपनी अहम् राय रखने वालीं डॉ तृप्ति ने इस आलेख के ज़रिये कला के क्षेत्र में अपनी अलग पहचान बनाने वाले ब्रजमोहन आनंद की कला यात्रा पर बारीक नज़र डाली है।

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‘थिएटर की अपनी स्वतंत्र भाषा होती है’
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April 24, 2020

उषा गांगुली का गुज़र जाना रंगमंच के लिए आखिर क्यों इतना बड़ा शून्य पैदा करता है.. दरअसल उषा जी उन सुलझी हुई रंगकर्मियों में रही थीं जिन्होंने रंगकर्म को सामयिक संदर्भों में जोड़ने के साथ ही समाज और सियासत को भी बेहद बारीकी से देखा, समझा। दिसंबर 2018 में नवभारत टाइम्स ने उषा गांगुली का यह इंटरव्यू छापा था... दिलीप कुमार लाल ने उनसे लंबी बातचीत की थी जिसमें उन्होंने तमाम मुद्दों पर कई अहम

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फिल्मकार सत्यजीत राय के भीतर का कलाकार…
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April 23, 2020

एक संवेदनशील चित्रकार कैसे एक बेहतरीन फिल्मकार बन सकता है, सत्यजित राय इसके अद्भुत मिसाल हैं। उन्हें गुज़रे 18 साल हो गए... आने वाली 2 मई से उनके जन्म शताब्दी वर्ष की शुरुआत हो जाएगी। आज उन्हें याद करते हुए ये सोचने को हम बरबस मजबूर हो जाते हैं कि कम्प्यूटर ग्राफिक्स और एनिमेशन के इस आधुनिकतम दौर में क्या किसी फिल्मकार में इतना सब्र, इतनी गहरी दृष्टि, हर दृश्य और हर फ्रेम को पहले चित्रो

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रेणु ने पद्मश्री को लौटाते हुए कहा था – पापश्री
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April 11, 2020

1974 आंदोलन को बहुत करीब से देखने वाले वरिष्ठ पत्रकार जयशंकर गुप्त ने कालजयी रचनाकार फणीश्वर नाथ रेणु के साथ साथ उस दौर के तमाम साहित्यकारों को गहराई से महसूस किया है। अपने अनुभव और उस दौरान की स्थितियों के साथ मौजूदा हालात को बेबाकी से लिखने वाले जयशंकर गुप्त ने रेणु को उनकी पुण्यतिथि पर कुछ इस तरह याद किया। न्यूज़ पोर्टल न्यूज़ क्लिक में लिखे अपने संस्मरणात्मक लेख में उन्होंने ये

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कस्तूरबा गांधी को याद करने के मायने…
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April 11, 2020

बेशक गांधी जी देश के लिए महात्मा और राष्ट्रपिता हों, लेकिन अगर कस्तूरबा गांधी का सहयोग, साथ और भरोसा उन्हें नहीं मिलता तो शायद आज गांधी जी की ये स्वीकार्यता न होती। आम तौर पर कस्तूरबा गांधी भुला दी गई हैं, उनके योगदान को उस तरह शायद नहीं समझा गया और उस दौर के भारतीय रूढ़ीवादी समाज में जिस तरह महिलाओं को त्याग की मूर्ति, पतिव्रता और पुरुषों की तमाम कमियों के बावजूद उन्हें आगे बढ़ने मे

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