हम सबके घरों के फिल्मकार थे बासु दा…

आज फिल्मों का जो दौर चल रहा है, उसमें बासु चटर्जी जैसे फिल्मकार की गैर मौजूदगी भीतर कहीं एक शून्य पैदा करती है। उम्र को अगर नज़रअंदाज कर दें तो बासु दा के भीतर ज़िंदगी को देखने का अपना जो नज़रिया रहा वो 60 के दशक से आज तक वैसा ही रहा। आखिरी दिनों में भी उनके भीतर का फिल्मकार विषय तलाशता रहा लेकिन पिछले कुछ बरसों से वो चाहकर भी कुछ नया दे नहीं पाए। साहित्य में उनकी खासी दिलचस्पी थी और उनकी हर फिल्म किसी न किसी छपी हुई कहानी से निकलती और उनकी दृष्टि इस कहानी को आम आदमी से जोड़ कर किरदार गढ़ती और परदे पर पेश कर देती। किरदार भी हम आप जैसा कोई भी हो सकता था और जीवन के बहुत करीब खड़ा होता।

बासु दा के गुज़र जाने की खबर मिली तो एक सदमा लगा। उनसे न मिल पाने की पीड़ा अचानक उठने लगी। ये सोचता ही रहा कि उनसे मिलना है, इंटरव्यू करना है और बहुत कुछ जानना समझना है, लेकिन वह मौका नहीं आ सका। मुंबई में महीनों रहने के बावजूद कुछ ऐसा संयोग रहा कि बासु दा से मुलाकात न हो सकी। ‘अभिव्यक्ति’ कार्यक्रम बनाते हुए भी हमारी प्राथमिकता सूची में वो हमेशा रहे लेकिन चैनल की सीमाएं और व्यावहारिक दिक्कतें इसमें अड़चनें डालती रहीं।

हमारे मित्र इरफ़ान ने राज्यसभा टीवी में उनके साथ अपने कार्यक्रम में जो बात की थी, उसे ही मैंने ये मान लिया कि चलो, बासु दा ने काफी कुछ उसमें अपने बारे में, अपनी फिल्मों के बारे में कहा है… उससे बहुत कुछ समझ में आता है…

अजमेर, मथुरा, आगरा मुंबई और कोलकाता… बासु दा की जिन्दगी आम तौर पर इन्हीं शहरों में या इनके इर्द गिर्द गुज़री। एक निम्न मध्यम परिवार की जद्दोजहद को उन्होंने इतने करीब से देखा कि ज़िंदगी के आखिरी वक्त तक उनके लिए वही आम आदमी उनकी फिल्मों का असली चेहरा होता। 90 साल के होने के बावजूद उनके भीतर का फिल्मकार पूरी शिद्दत के साथ ज़िंदा और ऊर्जा से भरा था। वो अब भी किसी बेहतर कहानी की तलाश में रहते थे और हमेशा कुछ नया पढ़ते रहते थे। इस कोरोना काल ने बहुत से लोगों को हमसे छीना है, उन्हीं में एक अहम नाम और शख्सियत हैं बासु चटर्जी।

अपनी किशोरावस्था में हमने बासु दा की तकरीबन हर फिल्म देखी। चितचोर, रजनीगंधा, छोटी सी बात और खट्टा मीठा तो कई कई बार देखी। बासु दा में जो खास बात थी कि उनके किरदार आपके जीवन का हिस्सा होते, एकदम अपने से लगते और फिल्म का बहाव ऐसा होता कि आप एक पल को भी कहानी और किरदार से अलग थलग नहीं पड़ सकते।

बासु चटर्जी के पिता रेलवे में नौकरी करते थे, इसलिए उनकी पोस्टिंग अलग अलग शहरों में होती रहती थी। अजमेर में जन्म हुआ औyeर बाद में पिता जी आगरा और मथुरा आ गए। इसलिए बासु दा का बचपन भी वहीं बीता और ग्रैजुएशन तक की पढ़ाई भी आगरा में ही हुई। मथुरा में रहते थे और आगरा नियमित आना जाना था। गीतकार शैलेन्द्र भी मथुरा में ही रहते थे और साहित्यिक रुझानों की वजह से बासु दा और शैलेन्द्र का मिलना जुलना भी था। राजेन्द्र यादव से उनकी दोस्ती भी यहीं हुई। बासु दा ने एक इंटरव्यू में बताया था कि मथुरा में उन दिनों एक ही सिनेमा हॉल हुआ करता था और वो हर फिल्म देखते थे। बचपन से ही उन्हें फिल्में प्रभावित करती थीं लेकिन उनके भीतर इनसे अलग कुछ करने की एक बेचैनी भी थी। मुंबई वो जाना चाहते थे, स्कूल कॉलेज के दिनों से ही स्केच बनाने में भी उनकी खासी दिलचस्पी थी। किस्मत अच्छी थी कि मथुरा से मुंबई आते ही उनकी नौकरी एक सैनिक स्कूल में लाइब्रेरियन के तौर पर लग गई। यानी मुंबई में पैर टिकाने की जगह मिल गई थी। यहां उनके हाथों का हुनर और कलाकार की दृष्टि काम आई। उस समय के मशहूर साप्ताहिक ब्लिट्ज में बासु दा को कार्टूनिस्ट और इलस्ट्रेटर की नौकरी मिल गई। लंबे समय तक ब्लिट्ज से जुड़े रहते हुए और अपने पुराने दोस्त शैलेन्द्र की मदद से उन्हें बासु भट्टाचार्य और हृषिकेश मुखर्जी जैसे फिल्मकारों के साथ काम करने का मौका मिला। तीसरी कसम के लिए शैलेन्द्र गाने लिख रहे थे, उन्होंने बासु चटर्जी को बासु भट्टाचार्य से मिलवाया, ब्लिट्ज़ की वजह से बासु दा की पहचान वैसे भी बन चुकी थी। इस तरह उन्हें तीसरी कसम में असिस्टेंट डायरेक्टर बनने का मौका मिला।

बासु दा ने एक बार राज्यसभा टीवी के गुफ्तगू कार्यक्रम में बताया था कि कैसे उन्हें हमेशा से आम आदमी की ज़िंदगी ही रास आती रही, कैसे उन्हें मुंबई फिल्म सोसाइटी से जुड़कर तमाम विदेशी फिल्में देखने का मौका मिला और कैसे उन्हें लगा कि फिल्मों का फलक कितना बड़ा है।

https://www.youtube.com/watch?v=1QKZGIrIJVg    (इंटरव्यू देखने के लिए क्लिक करें)

लेकिन उन्होंने ये भी कहा था कि उनकी फिल्में ‘लार्जर दैन लाइफ’ नहीं हैं और न कभी वह ऐसा सोच सकते हैं। यानी अमिताभ बच्चन जैसा एक हीरो दस दस को मार देता है और सुपर मैन बन जाता है। उनके लिए उनका हीरो आम आदमी ही था। वही साइकिल पर और पैदल चलने वाला, बसों और लोकल ट्रेन में धक्के खाने वाला, एक निम्न मध्यम परिवार की जिंदगी की मुश्किलें उठाने वाला और उस हाल में भी खुश रहने वाला।

फिल्म बनाने का जुनून ऐसा था कि उन्होंने जब पहली बार अकेले फिल्म बनाने का फैसला किया तो उसके लिए फिल्म विकास बोर्ड से उन्हें बड़ी मुश्किल से करीब ढाई लाख का कर्ज मिल सका। फिल्म भी उतने ही बजट में बनी थी। बाद में अपनी अगली फिल्मों से उन्होंने कर्ज चुकाया। क्योंकि शुरुआती दौर में उनकी फिल्मों के लिए कोई पैसा लगाने वाला था ही नहीं।

किस्से तमाम हैं, लेकिन आज के दौर में कोई दूसरा बासु चटर्जी नहीं हो सकता। क्योंकि न तो अब फिल्में बनाने का वो नजरिया है और न ही कहानी और किरदार के चुनाव में वो गंभीरता। फिल्में करोड़ों के बजट में बनती हैं और सारा ध्यान कमाई और बॉक्स ऑफिस पर होता है। लेकिन बासु दा का हमेशा से ये मानना रहा था कि फिल्मों को सिर्फ कमाई की कसौटी पर देखना सही नहीं है। ठीक है सारा आकाश ज्यादा कामयाब नहीं रही, लेकिन एक क्लास दर्शक ने उसे पसंद किया। यही उसकी सबसे बड़ी कमाई है।

लेकिन बासु दा के काम को लोगों ने खूब पसंद किया और एक जमाना था कि उनके नाम पर पूरा का पूरा परिवार उनकी फिल्में देखने जाता था और डूबकर इसका आनंद लेता था। एक बेहतरीन, साफ सुथरी, कम बजट वाली और तमाम मध्यवर्गीय सवालों को बेहद सहजता से उठाने वाली फिल्में क्या होती हैं, इसे समझने के लिए उनकी फिल्में देखना आज की पीढ़ी की ज़रूरत भी है।

  • अतुल सिन्हा

 

Posted Date:

June 4, 2020

7:23 pm Tags: , , , ,
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