आनंद स्वरूप वर्मा बेशक अस्सी बरस के हो गए हों, लेकिन उनके भीतर का जुझारू पत्रकार, लेखक और जनांदोलनों के प्रति उनका समर्पित एक्टिविज्म अब भी किसी उत्साही युवा की तरह बरकरार है। वो लगातार लिखते हैं, अनुवाद करते हैं, आज के तमाम जरूरी सवालों पर उसी शिद्दत के साथ बोलते हैं, साथ ही एक जनपक्षधर पत्रकारिता क
रंगमंच के क्षेत्र में आखिर महिलाओं की संख्या या जगह इतनी कम क्यों है? क्या इसके पीछे कोई वर्णवादी सोच है या पुरुषवादी वर्चस्व का आदिकालीन नज़रिया? क्या आज के दौर में भी रंगमंच नाट्यशास्त्र के उन्हीं मान्यताओं पर चल रहा है जिसे भरतमुनि ने रचा था? क्या ब्राह्मणवादी साहित्य की अवधारणाओं में महिलाओं का स्थान शूद्रों की तरह रहा है और रंगमंच में भी कहीं न कहीं ये अवध
कोरोना काल के दो साल रंगकर्मियों के लिए एक दु:स्वप्न की तरह बीते लेकिन 2022 की शुरुआत से लेकर अंत तक जितने नाटक हुए, इतने नाट्य समारोह हुए और रंगकर्मियों ने खुलकर काम करने की कोशिश की, वह काफी हद तक याद रहने वाला है। सबसे बड़ी बात कि कोरोना ने जो शिथिलता और संकट पैदा किया, रंगकर्मियों के प्रति सरकारी संवेदनहीनता का जो रूप दिखा और गंभीर आर्थिक संकट और अनिश्चितता के दौर से गुर
हिन्दी पत्रकारिता बेशक आज एक चुनौती भरे दौर से गुजर रही हो, मीडिया का स्वरूप बदल गया हो और तमाम मीडिया संस्थानों ने अपनी कार्यशैली बदल दी हो, लेकिन अमर उजाला एकमात्र ऐसा मीडिया समूह है जिसने अपने मूल्यों से कभी समझौता नहीं किया। न सियासत के बदलते रंगों और सत्ता के इर्द गिर्द खबरें बुनने और परोसने की दौड़ में यह संस्थान कभी रहा और न ही कभी संपादकीय स्वायत्तता पर यहां