आनंद स्वरूप वर्मा के अहम योगदान का सम्मान

आनंद स्वरूप वर्मा बेशक अस्सी बरस के हो गए हों, लेकिन उनके भीतर का जुझारू पत्रकार, लेखक और जनांदोलनों के प्रति उनका समर्पित एक्टिविज्म अब भी किसी उत्साही युवा की तरह बरकरार है। वो लगातार लिखते हैं, अनुवाद करते हैं, आज के तमाम जरूरी सवालों पर उसी शिद्दत के साथ बोलते हैं, साथ ही एक जनपक्षधर पत्रकारिता को जिंदा रखने की कोशिश करते हैं। पत्रकारिता के आज के बेहद शर्मनाक और खतरनाक दौर पर उनकी पुस्तक दो साल पहले ही आई है – पत्रकारिता का अंधा युग। उनका ज्यादातर वक्त अब भी अनुवाद के काम में बीतता है और रोजाना शाम करीब दो-तीन घंटे वह दुनिया की बेहतरीन कृतियों का हिन्दी अनुवाद करते हैं। हिन्दी अनुवाद के क्षेत्र में उनके अभूतपूर्व योगदान और समर्पण को देखते हुए उन्हें प्रकाशन संस्थान ने अपने पहले अनुवाद सम्मान से नवाज़ा है।

प्रेस क्लब में उन्हें दिए गए इस सम्मान के दौरान कई बुद्धिजीवी, लेखक और पत्रकार मौजूद थे। जाने माने रंग समीक्षक रवीन्द्र त्रिपाठी ने वहां की तस्वीर अपने फेसबुक पर साझा की हैं वहीं चारू तिवारी  ने आनंद स्वरूप वर्मा के बारे में भड़ास4मीडिया  में काफी विस्तार से लिखा है। उसके कुछ हिस्से पढ़ते हैं जिससे उनके लेखन और कामकाज के बारे में और विस्तृत जानकारी मिलती है।

आनन्दस्वरूप वर्मा देश के चर्चित पत्रकारों में रहे हैं। उनकी पहचान एक प्रतिबद्ध पत्रकार, लेखक, अनुवादक और एक्टविस्ट के तौर पर रही है। आनन्द स्वरूप वर्मा जी का सत्तर के दशक से उत्तराखंड की तमाम सांस्कृतिक, राजनीतिक, पर्यावरणीय और शैक्षिक हलचलों से नाता रहा है। हमेशा आमजन के सवालों के साथ खड़े होकर वर्मा जी ने जहां एक प्रखर आंदोलनकारी के रूप में अपनी जगह बनाई, वहीं उन्होंने अपने साथ पत्रकारिता और सामाजिक बदलाव की लड़ाइयों में खड़े होने वाली धारा का निर्माण भी किया। उनके दोस्तों में उनकी पीढ़ी के लोग तो हैं ही उनसे कहीं ज्यादा युवा हैं।

आनन्द स्वरूप वर्मा का व्यक्तित्व बहुआयामी है। उन्होंने शुरुआत कहानियों से की, लेकिन अपनी मजबूत पहचान पत्रकारिता, वैचारिक लेखन और संपादन के क्षेत्र में बनायी। आनन्द स्वरूप वर्मा का जन्म 5 अगस्त, 1943 को बलिया जनपद के एक मध्यवर्गीय परिवार में हुआ। उन्होंने गोरखपुर विश्वविद्यालय से अंग्रेजी, हिन्दी साहित्य और अर्थशास्त्र के साथ स्नातक किया। वर्ष 1966 से पत्रकारिता की शुरुआत की। कुछ वर्षों बाद दिल्ली आ गये।

सन् 1970 से 1974 तक आकाशवाणी के समाचार सेवा प्रभाग में नौकरी की। बकौल आनन्दस्वरूप वर्मा आपातकाल से पहले की हलचलों में शामिल हुए तो आकशवाणी से निकाल दिए गये। उसके बाद से स्वतंत्र लेखन और संपादन में लग गये। बिना किसी सांस्थानिक मदद के सन् 1980 में ‘समकालीन तीसरी दुनिया’ जैसी पत्रिका की शुरुआत की और कई व्यवधानों और रुकावटों के बाद भी उसका प्रकाशन करते रहे। इसके माध्यम से वे दुनिया भर में चल रहे साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलनों से जुड़ गये। उनका लेखन हमेशा ही सामाजिक संघर्ष का अभिन्न अंग बनकर सामने आया।

आनन्द स्वरूप वर्मा का दुनिया भर के जनसंघर्षों से वैचारिक जुड़ाव 1970 से ही हो गया था। उन्होंने उस दौर में नेल्सन मंडेला पर पहला आलेख लिखा, उसके बाद से लगातार अफ्रीका के आंदोलनों के साथ उनका सम्पर्क रहा। सन् 1989 में केन्या और जिम्बाब्वे की यात्रा की। गरीब लोगों के बीच काम करने वाले समूहों के साथ परामर्श किये। 1990 में उनकी पहली पुस्तक प्रकाशित हुई, ‘गोरे आतंक के खिलाफ काली चेतना’। यह दक्षिण अफ्रीका में चल रहे रंगभेद विरोधी संघर्ष पर आधारित थी। उन्होंने उस दौरान अफ्रीका की यात्रा की और संघर्ष में शामिल लोगों से प्रत्यक्ष संबंध बनाया। केन्या के प्रख्यात लेखक न्गुगी वा थ्योंगो तो हिन्दी में उनके कारण ही इतने लोकप्रिय हो गये कि रूसी भाषा के महान लेखकों की तरह ही उन्हें याद किया जाता है। सन् 1994 में दक्षिण अफ्रीका में होने वाले पहले लोकतांत्रिक चुनाव की रिपोर्टिंग के लिए वहां की यात्रा की। उस दौरान नेल्सन मंडेला सहित कई प्रमुख नेताओं के साक्षात्कार लिये।

आनन्द स्वरूप वर्मा वर्ष 1996 में ‘भाषा, संस्कृति और राष्ट्रीय अस्मिता’ के नाम से केन्या के प्रख्यात उपन्यासकार और विचारक न्गुगी वा थ्योंगो के लेखों का अनुवाद और संपादन किया। इसी वर्ष ‘आज की अफ्रीकी कहानियां’ का अनुवाद और संपादन किया। वर्ष 1999 में ‘औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्ति’ नाम से न्गुगी वा थ्योंगों के शिक्षा और संस्कृति से संबंधित लेखों का संकलन, संपादन और अनुवाद किया। वर्मा जी का नेपाल पर बहुत काम रहा। उन्होंने नेपाल के माओवादी आंदोलन पर तीन पुस्तकें लिखीं इनमें 2001 में ‘रोल्पा से डोल्पा तक’ चर्चित रही। ‘नेपाल से जुड़े कुछ सवाल’ सन् 2005 में प्रकाशित हुई। एक पुस्तक 2010 में नेपाल के माओवादी नेता प्रचंड के साक्षात्कारों का संपादन ‘एवरेस्ट पर लाल झंडा’ नाम से आई। सन् 2020 में ‘पत्रकारिता का अंधा युग’ आई।

वर्मा जी ने दो दर्जन से अधिक पुस्तकों का अनुवाद किया है। इनमें रजनी पाम दत्त की ‘आज का भारत’, मेरी टाइटलर की ‘भारतीय जेलों में पांच साल’, उपिंदर सिंह की ‘प्राचीन भारत में राजनीतिक हिंसा’, महाश्वेता देवी की ‘भारत में बंधुआ मजूदर’, तेनजिन की ‘नन्हा भिक्षु’, वी श्येनलिन की ‘मधुमय भारत’, यू शिङलूङ कर स्वप्नदर्शी’, ‘श्वेमो की चुनी कहानियां’, आ लाए की ‘खोखला पहाड़’ और ल्लाल पोस्ते के फूल’ चओ ताशिन की ‘झील और पहाड़ का रोमांच’ और चार खंडो ंमें ‘चीनी सभ्यता का इतिहास’ शामिल हैं।

आनन्द स्वरूप वर्मा के लेखन का आकाश जितना बड़ा है, उतना ही उनकी सक्रियता और सरोकार। अस्सी वर्ष की अवस्था में उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता और मूल्यों के साथ खड़े रहने की जिजीविषा प्रेरणादायक है।

Posted Date:

August 20, 2023

7:58 pm Tags: , , , , ,
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