माधोपुर का घर : प्रेम से आर्द्र पन्ने
पुस्तक समीक्षा
इधर किताबें खूब आ रही हैं। वक्त के साथ लेखकों के भीतर के भाव सोशल मीडिया पर तो अभिव्यक्त तो हो ही रहे हैं, किताबों का प्रकाशन भी बड़ी संख्या में हो रहा है। पर कुछ किताबें ऐसी हैं जिनपर चर्चा जरूरी हो जाती है… इन्हीं में से एक है त्रिपुरारी शरण की नई किताब – माधोपुर का घर।  एक संवेदनशील लेखक के भीतर के अतीत को बेहद संतुलित और रोचक भाषा में अगर आपको पढ़ना है तो यह पुस्तक पढञ सकते हैं। जाने माने लेखक-पत्रकार कुमार नरेन्द्र सिंह ने इसे पढ़ा, महसूस किया और इसकी बेहतरीन तरीके से समीक्षा लिखी। 7 रंग के पाठकों के लिए कुमार नरेन्द्र सिंह की माधोपुर के घर पर लिखी गई समीक्षा —  
जब मैंने त्रिपुरारि शरण की पुस्तक ‘माधोपुर का घर’ पढ़ लिया, तो कुछ दिनों तक बड़े पसोपेश मे रहा कि आखिर यह पुस्तक हमसे कहती क्या है या यूं कहें कि यह पुस्तक लिखने के पीछे लेखक का अभिष्ट क्या है। क्या यह पुस्तक वही कहती है. जो इसमें लिखा है? या उकेरित शब्दों की तह में कोई अन्य बात भी है? एक रात जब मैं अर्द्ध निद्रा में था, तो ‘माधोपुर का घर’ के बारे में मेरे मन में कुछ खयाल उमड़-घुमड़ रहे थे। अचानक मेरे मन के कोने में जेएनयू का मेरा क्लास रूम आ खड़ा हुआ। मैंने देखा कि प्रोफेसर इम्तियाज अहमद (दिवंगत) राजनीतिक समाजशास्त्र पढ़ा रहे हैं। पढ़ाते-पढ़ाते उन्होंने पूछा कि क्या किसी ने धर्मवीर भारती की पुस्तक ‘सूरज का सातवां घोड़ा’ पढ़ी है? मैंने वह पुस्तक पढ़ी थी, इसलिए मैंने हाथ उठाया और कहा कि जी सर, मैंने पढ़ी है। फिर उन्होंने पूछा कि उसमें तुमने क्या देखा? मैंने कहा कि उसमें प्रेम कहानियां हैं और असफल प्रेम की कहानियां हैं। उन्होंने कहा ठीक है, बैठ जाओ। मैं बैठ गया और प्रोफेसर इम्तियाज अहमद ‘सूरज का सातवां घोड़ा’ की व्याख्या उसके लिखित शब्दों से आगे जाकर करने लगे। उनका वह लेक्चर सुनकर हम सभी छात्र दंग थे कि वास्तव में उस पुस्तक की प्रेम कहानियों में राजनीतिक समाजशास्त्र प्रछन्न रूप से पैठा हुआ है। उनके लेक्चर के बाद ही हम समझ पाए कि प्रेम के असफल होने का कारण हमारी सामाजिक राजनीतिक व्यवस्था जिम्मेदार थी, वरना तो हम उसे महज संयोग समझ रहे थे। इस दृष्टि से ‘माधोपुर का घर’ धर्मवीर भारती की पुस्तक ‘सूरज का सातवां घोड़ा’ का विलोम प्रस्तुत करता है। यह पुस्तक सामाजिक और राजनीतिक यथार्य़ के आवरण में प्रेम कहानी कहती है। एक ऐसी प्रेम कहानी, जो हमारे जीवन के अंतस्थल में अवस्थित है और जिसे पाने की कामना हम सभी करते हैं। पूरी पुस्तक में कोई किसी का वैरी या यहां तक कि प्रतिद्वंद्वी भी नजर नहीं आता। सभी पात्र सबके प्रेम आग्रही हैं। त्रिपुरारि
शरण सामाजिक मनोविज्ञान का सिरा पकड़कर प्रेम की गांठे खोलते नजर आते हैं, जो तहों में विद्यमान है। पुस्तक के शब्द तह दर तह प्रेम की शिनाख्त करते हैं, उसे सौंदर्य और आभा प्रदान करते हैं। सामाजिक यथार्थ तो इस पुस्तक का आवरण भर है, जबकि सामाजिक मनोवैज्ञानिक विश्लेषण प्रेम की तह तक पहुंचने की कुंजी है। यदि मैं कहूं कि धर्मवीर भारती की पुस्तक ‘सूरज का सातवां घोड़ा’ के अंतर्निहित अर्थों को पलट दिया जाए, तो वह ‘माधोपुर का घर’ में बदल जाएगा, तो शायद मैं गलत नहीं कह रहा होऊंगा।
‘माधोपुर का घर’ भी, कम से कम मेरी नजर में केवल वही नहीं कहता, जो उसके शब्द प्रकट करते हैं। निस्संदेह, प्रकट रूप से यह पुस्तक समाज, राजनीति और सामाजिक मनोविज्ञान का बड़ा शूक्ष्म विश्लेषण करती है, लेकिन उसकी अन्तरधारा में प्रेम रस ही प्रवाहित होता है। कहा जाए, तो जिस तरह धर्मवीर भारती की पुस्तक ‘सूरज का सातवां घोड़ा’ प्रेम कहानियों के माध्यम से राजनीतिक समाजशास्त्र का निरूपण करती है, उसी तरह त्रिपुरारि शरण की पुस्तक ‘माधोपुर का घर’ सामाजिक मनोविज्ञान की ओट में प्रेम की कहानी कहती है। इस पुस्तक के पन्ने-पन्ने में प्रेम प्रवाहित होता है औऱ इतना होता है कि इसके पन्ने प्रेम से आर्द्र हो गए हैं। ‘माधोपुर का घर’ में प्रेम की शाश्वत धारा बहती है।
बाबा और दादी का संबंध प्रेम की एक नई परिभाषा गढ़ता, एक नई इबारत लिखता नजर आता है। जब बाबा औऱ दादी के बीच अनबन हो जाती है और दोनों के बीच संवाद तक नहीं रह जाता है, तो पाठक उद्विग्न हो उठता है, क्योंकि उसे लगता है कि ऐसा तो होना ही नहीं चाहिए। बाबा और दादी का अस्तित्व एक-दूसरे से इस कदर जुड़ा हुआ है कि उनके अलग होने मात्र की कल्पना से ही पाठक असहज होने लगता है। आखिर प्रेम यही तो है कि जिसके नहीं होने की कल्पना ही आपको परेशान कर दे। अजब तो ये है कि बाबा-दादी के बीच संवाद भले ही खत्म हो गया है, लेकिन उनके मन में फिर से संवाद कायम होने की आशा खत्म नहीं होती। दादी बाबा द्वारा पोषित श्वान लोरा तक से नफरत करने लगती हैं, लेकिन क्या वास्तव में वह नफरत है? शायद नहीं, क्योंकि प्रेम में अक्सर ऐसा होता है कि जब दो प्रेम करने वाले के बीच अनबन होती है, तो एक-दूसरे को उन तमाम चीजों के प्रति वैर भाव पैदा हो जाता है, जो एक-दूसरे से जुड़ी होती हैं, चाहे वह श्वान लोरा ही क्यों न हो। लेकिन इसके साथ ही क्या यह भी सच नहीं है कि वास्तव में यह अदम्य चाहत का ही परिणाम होता है और इसके पीछे फिर से एक-दूसरे के समीप हो जाने की प्रबल इच्छा छिपी होती है। हम सबों ने ऐसी स्थितियां उत्पन्न होते और फिर उसे गायब होते देखी हैं। यदि ऐसा न होता तो यह कैसे संभव था कि बाबा के बेहोश होकर गिर जाने और लोरा द्वारा दादी को बताने औऱ उनकी साड़ी खींचकर बाबा के पास ले आने के बाद दादी का प्रचंड गुस्सा क्षणभर में काफूर हो जाता और दादी न केवल बाबा को बल्कि लोरा को भी प्यार करने लगती हैं। बाबा-दादी के प्रेम का सबसे सुंदर पक्ष यह लगता है कि वह ईर्ष्या नहीं, करूणा जगाता है। जो प्रेम करुणा पैदा करने में असमर्थ हो, वह वास्तव में विकृति है। करूणा ही प्रेम का सार्वभौम आह्वान है, पहचान है।
ऐसा नहीं है कि प्रेम का यह प्रवाह केवल बाबा और दादी के बीच ही प्रवाहित होता है। बाबा के चारों बेटे भी इसी प्रेम पाश में बंधे हैं, जहां सभी के दिल में एक-दूसरे के लिए प्रेम कुलांचें भरता है। जब एक दुखी या परेशान होता है, तो पूरा परिवार दुखी और परेशान हो जाता है। सभी सदस्यों के मन में सभी के लिए प्रेम और मंगलमय कामना कायम है।
यह पुस्तक कई मायनों में साहित्यिक विधाओं का अतिक्रमण करती है, परंपरागत खांचों को तोड़ती है और नई परंपरा का सृजन करती है। पाठक तय नहीं कर पाता कि पारंपरिक दृष्टि से ‘माधोपुर का घर’ को आखिर साहित्य की किस श्रेणी में रखा जाए – कहानी समझा जाए या उपन्यास या रिपोर्ताज या सामाजिक यथार्थ का मनोवैज्ञानिक विष्लेषण। इस मायने में मुझे यह पुस्तक कमलेश्वर की ‘कितने पाकिस्तान’ के समीप दिखाई देती है। पारखी जन मेरी बात से सहमत या असहमत हो सकते हैं, लेकिन इस तथ्य से इनकार करना मुश्किल है कि सहित्य में प्रारूपों के अतिक्रमण की जब भी बात उठेगी, तो कमलेश्वर की पुस्तक ‘कितने पाकिस्तान’ का उल्लेख जरूर किया जाएगा।
श्वान की जुबानी कहानी कहने का अनोखा प्रयोग त्रिपुरारि शरण को न केवल अलहदा बनाता है, बल्कि हिंदी साहित्य में विलक्षण प्रयोग का प्रणेता भी। कुछ विद्वान बताते हैं कि यह पश्चिमी परंपरा है और कि इस तरह की कतिपय किताबें भी लिखी गयी हैं। इस मामले में मेरा ज्ञान अल्प है और दावे के साथ कुछ कहने में मैं अपने को असमर्थ पाता हूं। लेकिन मैं अपने अल्प ज्ञान के आधार पर इतना तो कह ही सकता हूं कि ‘माधोपुर का घर’ खालिस भारतीय परंपरा की ही एक कड़ी है। संस्कृत साहित्य में पंचतंत्र की कहानियां मनुष्येतर जीव-जंतुओं के माध्यम से ही कही गयी हैं। काग भुशुंडी को हम सभी जानते ही हैं, जिनको रामकथा को लोकप्रिय बनाने का श्रेय दिया जाता है। कहा जाता है कि पहली बार उन्होंने ही भगवान शंकर के मुंह से तब रामकथा सुनी थी, जब वह पार्वती को सुना रहे थे। इसके बाद उन्होंने गरूड़ को सुनाया यानी जीव-जंतुओं के मुंह से कथा-कहानी सुनाने की भारत में एक लंबी परंपरा रही है। हां, किसी श्वान की जुबानी कहानी कहने का त्रिपुरारि शरण का प्रयोग शायद पहला है। यूं तो भारतीय साहित्य में कई मिथकीय पुरुषों के साथ श्वान के जुड़े होने की कथा मिलती है। कथा तो यह भी मिलती है कि त्रेता युग में एक श्वान राम दरबार में पहुंचकर अपने लिए न्याय मांग लाया था। यहां लोरा की त्रासदी याद आती है। आखिर लोरा कहां जाती अपने लिए न्याय मांगने। उसके लिए तो राम कौन कहे – लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न और सीता कोई नहीं था। लोरा का अंत द्रवित कर जाता है।
लेखक ने ‘माधोपुर का घर’ में तीन पीढ़ियों की कहानी जिस खूबसूरती के साथ पिरोयी है, वह सचमुच प्रशंसा योग्य है। यह घर केवल लेखक का या लेखक द्वारा रचित घर नहीं है, बल्कि यह हमारा, आपका, सबका घर है। यह तो हर घर की कहानी है। समय के साथ बदलते गांव की दास्तान है। इसे दस्तावेज भी कहा जा सकता है। पुस्तक में पतनोन्मुख सामंतवाद की विकृतियों को जिस तरह उकेरा गया है, वह किसी शोध से कम नहीं। जिस तरह भारत में किसानों की स्थिति को समझने के लिहाज से प्रेमचंद की पुस्तक ‘गोदान’ किसी शोध से भी ज्यादा कारगर है, उसी तरह त्रिपुरारि शरण की पुस्तक ‘माधोपुर का घर’ पतनशील सामंतवाद और उसके बाद गांवों की बदलती दिशा और दशा को समझने में उतनी ही कारगर है। गांवों में होनेवाली शादियों के रस्मो-रिवाज, वर पक्ष की हठधर्मिता औऱ लेनदेन और वधू पक्ष की निरीहता के साथ-साथ पूरे माहौल का वर्णन बहुत ही यथार्य़पूर्ण है। लेखक के मन में फिर से वही भरापूरा माधोपुर का गांव देखने की चाहत का संकेत भी हमें मिलता है। जब लेखक कहता है कि जब छुट्टियों में घर के सभी सदस्य माधोपुर आते हैं, तो फिर वहां से जाने का मन नहीं होता। यही चाहत तो प्रेम का सृजन करती है। क्या यही चाहत उन तमाम लोगों की नहीं है, जो गांव छोड़कर शहरों में आ बसे हैं? क्या ऐसे लोग आज भी गांव और शहर के बीच नहीं रहते? गांव और शहर के बीच ही तो हमारे सपने पूरे होते हैं और टूटते भी हैं। न तो गांव सबके सपने पूरा करता है और न शहर। आखिर जहूर मियां को कलकत्ता छोड़कर डाक्टर साहेव के पास क्यों वापस आना पड़ता। लेखक का यह कहना बिलकुल सही है कि लोग केवल मजबूरी में ही गांव नहीं छोड़ते, बल्कि बेहतर अवसर की तलाश भी उसका एक कारण है। आखिर बाबा के बेटों ने बेहतर अवसर की तलाश में ही तो गांव छोड़ा।
लेखक ने घर, गांव, गलियों, खेतों और बाग-बगीचों का वर्णन तो किया है, लेकिन चिड़ियों का कलरव कहीं गायब है। यहां तक कि कौवे और गौरैया तक का जिक्र नहीं है, जो निराश करता है। आखिर वह कैसा गांव है, जहां खेत-खलिहान, बाग-बगीचे तो हैं, लेकिन कोई पंछी नहीं है। इसी तरह घर में सामंती ठाठ होने के बावजूद लेखक ने यह नहीं बताया है कि उसमें किस तरह के फर्नीचर हैं या वे किस लकड़ी के बने हुए हैं। शायद यह लेखक का अभिष्ट नहीं रहा होगा, लेकिन फूल और चिड़ियों के बिना गांव विरान लगता है। पुस्तक में प्रकृति है, इतिहास है, समाज औऱ राजनीति है, सामाजिक मनोविज्ञान है और सबसे बड़ी बात यह कि इन सबके नीचे एक प्रेम की नदी बहती है। फल्गू नदी की तरह थोड़ी-सी रेत हटाते ही प्रेम छलकने लगता है। छूकर तो देखिए, पन्ना-पन्ना प्रेम रस से आर्द्र महसूस होगा।
इस अकथ कहानी के लिए त्रिपुरारि शरण निश्तिच रूप से बधाई के पात्र हैं।
Posted Date:

August 19, 2023

12:27 pm
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