रंगमंच के क्षेत्र में आखिर महिलाओं की संख्या या जगह इतनी कम क्यों है? क्या इसके पीछे कोई वर्णवादी सोच है या पुरुषवादी वर्चस्व का आदिकालीन नज़रिया? क्या आज के दौर में भी रंगमंच नाट्यशास्त्र के उन्हीं मान्यताओं पर चल रहा है जिसे भरतमुनि ने रचा था? क्या ब्राह्मणवादी साहित्य की अवधारणाओं में महिलाओं का स्थान शूद्रों की तरह रहा है और रंगमंच में भी कहीं न कहीं ये अवधारणा लागू होती है? जा
रंगमंच के तमाम आयामों और थिएटर पर चलने वाली बहसों को करीब से देखने समझने और उसपर लगातार लिखने वाले नाटककार राजेश कुमार ने दिल्ली के उस नए ट्रेंड को पकड़ने की कोशिश की है जो रंगकर्मियों के लिए नया उत्साह जगाने वाला है। अब तक कई चर्चित नाटक लिख चुके राजेश कुमार ने स्टूडियो थिएटर की इस नई परिकल्पना को करीब से देखा।
जिस ज़माने में जुझारू कॉमरेड गंगा प्रसाद ने लखनऊ के लेनिन पुस्तक केन्द्र को तमाम प्रबुद्ध लोगों के लिए स्वस्थ बहस मुबाहिसे का केन्द्र बना दिया, वो दौर ही कुछ और था। दो साल पहले 4 अप्रैल को गंगा प्रसाद अपनी विरासत छोड़कर हमेशा के लिए चले तो गए लेकिन उन्हें शिद्दत से याद करने वालों की कमी नहीं।