जो आपके सपनों का राजकुमार हो, उससे आप राजकुमारी न होकर किसी और रूप में रूबरू हों ऐसा ही मेरे साथ तब हुआ जब मैंने पहली बार हबीब तनवीर से मुलाक़ात की। हबीब तनवीर का पहला नाटक 'चरणदास चोर' मैंने सन 76 में आगरा के सर्किट हाउस मैदान में चल रहे 'आगरा बाजार' में देखा था। बंसी कौल की वर्कशॉप से ट्रेनिंग लेकर मैं हाल ही में 'अमेचर' रंगकर्मी बना था। मैंने हबीब साहब के नाटक को देखा और छत्तीसगढ़ी लोक 'नाच
भारतीय रंगमंच के पुरोधा कहे जाने वाले इब्राहिम अल्काज़ी ने रंगमंच की दुनिया को क्या क्या दिया, उन्होंने नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के निदेशक के तौर पर क्या क्या किया, एनएसडी जैसे बड़े फलक को संभालते हुए कैसे वो आधुनिक भारतीय रंगमंच के सम्राट बन गए और क्यों उन्हें रंगमंच के 'तुग़लक' जैसी उपाधियां मिलीं... ऐसे तमाम आयामों पर जाने माने रंगकर्मी-पत्रकार और आगरा में एक बेहद ज़मीन से जुड़ी सां
आंदोलन की लम्बी गहमागहमी और बंदी के सन्नाटे से उबरने के बाद बीएचयू ताज़ा-ताज़ा खुला ही था जब हम वहां पहुंचे। 8 अक्टूबर, प्रेमचंद की पुण्यतिथि का दिन। वहां अपने कार्यक्रम 'कथावाचन' में हमें प्रेमचंद की 3 कहानियों की प्रस्तुति देनी थी। रविवार होने के चलते रंगलीला की पूरी 'कथावाचन' रंगमंडली को शुबहा था कि दर्शक और श्रोता आएंगे भी या यहाँ साढ़े पांच सौ किमी० से भी ज़्यादा दूरी तक आने की हमारी
प्रेमचंद का गाँव यानि वाराणसी ज़िले (उप्र०) का लमही गाँव! 8 अक्टूबर की सांझ हम प्रेमचंद के गाँव में थे। हम यानि रंगलीला 'कथावाचन’ की रंगमंडली। यह मुंशी प्रेमचंद की 81वीं पुण्यतिथि का दिन था। मई माह में जिस दिन 'कथावाचन' के तहत मैंने प्रेमचंद की कहानियों की प्रस्तुतियों का निर्णय लिया था तब कल्पना भी नहीं की थी कि किसी दिन इन प्रस्तुतियों को लेकर 'कथा सम्राट' की उस धरती तक भी जाना होगा जहा