आखिर प्रेमचंद आज भी क्यों प्रासंगिक हैं?

  • अतुल सिन्हा

हमें आज़ाद हुए 72 साल हो गए। और हिन्दी के कालजयी लेखक प्रेमचंद को गुज़रे 83 साल बीत गए। जन्म बेशक उनका 31 जुलाई 1880 को हुआ हो, लेकिन उनका लेखन युग तकरीबन चार – साढ़े चार दशकों का रहा। आज दुनिया भर में आतंकवाद को लेकर इतनी हाय तौबा मची हुई है, तमाम देशों के लिए आतंकवाद एक बड़ी चुनौती बन गया है लेकिन प्रमचंद ने 1930 में ही इस खतरे से आगाह किया था और इसपर एक टिप्पणी लिखी थी – आतंकवाद का उन्मूलन। तब उन्होंने लिखा था ‘आज भारतवर्ष के द्वारा समस्त यूरोप अपने अपने ख़जाने भर रहा है, जापान अपनी जेबें गरम कर रहा है। सभी मालामाल हो रहे हैं और भारतीय बच्चे भूख से तड़प रहे हैं।‘ वहीं हिटलर के बारे में भी उन्होंने तभी लिख दिया था कि हिटलर ने जर्मनी के पूंजीपतियों के हाथ की कठपुतली बनकर यहूदियों पर अत्याचार किया और इतनी ख्याति पाई। प्रेमचंद ने साफ कह दिया था कि हिटलर जैसे प्रतीक भारत जैसे देश के उद्धारक नहीं हो सकते।

इन संदर्भों की चर्चा हम इसलिए कर रहे हैं कि प्रेमचंद को महज एक कहानीकार या कथा सम्राट मानकर उनकी जयंती मना लेना या याद करना शायद उचित नहीं है। दरअसल कोई कहानीकार या लेखक क्यों महान होता है या उसके लेखन में वे कौन से तत्व होते हैं जो उसे अमर या कालजयी बनाते हैं, इन जानकारियों को उसी संदर्भ में देखना चाहिए। महज 56 साल के अपने जीवन काल में प्रेमचंद ने आने वाली कई शताब्दियों के हिन्दुस्तान को देख लिया। उनके वक्त में देश आजाद नहीं हुआ था, लेकिन उन्होंने तभी महसूस कर लिया था कि जिस आजादी की बात की जा रही है, वह वैसी नहीं होने वाली। डॉ राम विलास शर्मा ने अपनी किताब ‘प्रेमचंद और उनका युग’ में उनके एक लेख के हिस्से का ज़िक्र किया है – ‘इस समाज व्यवस्था ने व्यक्ति को यह स्वाधीनता नहीं दी है कि वह जनसाधारण को अपनी महत्वाकांक्षाओं की तृप्ति का साधन बनाए और तरह तरह के बहानों से उनकी मेहनत का फायदा उठाए, या सरकारी पद प्राप्त करके मोटी मोटी रकमें उड़ाए और मूंछों पर ताव देता फिरे’ । डॉ शर्मा के मुताबिक प्रेमचंद उस आज़ादी के विरोधी थे जिसके ज़रिये मुट्ठी भर लोग जनता को ठगकर अपना घर भरते हैं और जब जनता असंतुष्ट होकर अपनी मांगें पूरी कराने के लिए संगठित होती है तब उसे शांति और अहिंसा का उपदेश देते हैं।

जाहिर है आज जब हम प्रेमचंद की 139वीं जयंती पर उन्हें याद करते हैं तो उनके इन तमाम संदर्भों को देखना ज़रूरी लगता है जो उन्हें आज भी प्रासंगिक बनाते हैं। उनकी कहानियों और उपन्यासों में बेशक समाज और सियासत के साथ साथ रिश्तों की जटिलताओं, सामाजिक ताने बाने और अपनी व्यवस्था में जड़ जमा चुके भ्रष्टाचार के तमाम रूप देखने को मिलते रहे हों, लेकिन इससे इतर प्रेमचंद ने खुद को एक चिंतक और पत्रकार के तौर पर भी स्थापित किया था। उनके लेखों, टिप्पणियों के संदर्भ बहुत गहरे होते थे और अगर उन्होंने उस दौर में हंस जैसी पत्रिका निकाली तो वह सिर्फ कहानी की पत्रिका के तौर पर नहीं जानी गई। ज़रा 1936 में प्रकाशित हंस के आखिरी अंक में प्रेमचंद के लेख – ‘महाजनी सभ्यता’ को याद कीजिए। इसमें उन्होंने इंसानियत का व्यापार करने वालों पर तीखा हमला बोला है। प्रेमचंद लिखते हैं – ‘समाज का बड़ा हिस्सा तो मरने और खपने वालों का है, और बहुत ही छोटा हिस्सा उनलोगों का जो अपनी शक्ति और प्रभाव से बड़े समुदाय को अपने बस में किए हुए है। उन्हें इस बड़े भाग से ज़रा भी हमदर्दी नहीं, ज़रा भी रू-रियायत नहीं। उसका अस्तित्व केवल इसलिए है कि अपने मालिकों के लिए पसीना बहाए, खून गिराए और एक दिन चुपचाप इस दुनिया से विदा हो जाए।‘

आज प्रेमचंद के इन संदर्भों को फिर से याद करते हुए हमें आज के हिन्दुस्तान की दशा और दिशा पर गौर करने की ज़रूरत है। जो लोग प्रेमचंद के युग को एक अलग युग समझकर उनके लेखन को उस दौरान की स्थितियों की अभिव्यक्ति मानकर देखते हैं, उन्हें ये समझना ज़रूरी है कि चाहे ‘पूस की रात हो’ या ‘नमक का दारोगा’ – सब आज भी वही है। बेशक उनके चेहरे बदल गए हों। शहरों की चकाचौंध, मॉल्स की संस्कृति, उदारीकरण के दौर और तकनीकी क्रांति के साथ साथ मंगल और चांद पर अपना परचम फहराने वाले हिन्दुस्तान को आज भी आप अपने ड्रोण कैमरे से देख लें, उसकी तस्वीर कमोबेश वही नज़र आएगी। और इसीलिए 1936 में ही गुजर गए प्रेमचंद आज भी हमारे लिए प्रासंगिक हैं।

(अमर उजाला डॉट कॉम पर लिखा गया आलेख)

Posted Date:

July 31, 2019

2:21 pm Tags: , , , , ,
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