इक्कीसवीं सदी शुरु हो चुकी थी और बीसवीं सदी ने जाते जाते बॉलीवुड संगीत की दुनिया को एक नई शक्ल दे दी थी। इस नए दौर और संगीत के नए माहौल में भला नौशाद के संगीत को उतनी तवज्जो कैसे मिल सकती थी जितनी इस दौर के धूम धड़ाम वाले संगीतकारों को मिलती है। 5 मई 2006 को जब संगीतकार नौशाद ने दुनिया को अलविदा कहा, तब भी उनके भीतर यही दर्द छलकता रहा – ‘मुझे आज भी ऐसा लगता है कि अभी तक न मेरी संगीत की तालीम पूरी हुई है और न ही मैं अच्छा संगीत दे सका।’
लेकिन कोई संगीतकार महान ऐसे ही नहीं हो जाता। फिल्मों की लाइन लगा देने और एक साथ कई कई फिल्मों में तकनीकी बदलावों की बदौलत संगीत देने की महारथ जिन संगीतकारों में आज है, उनके बीच नौशाद साहब बेशक न टिक पाएं, लेकिन नौशाद साहब ने अपने 64 सालों के संगीत के सफर में जो दिया, वो अमर हो गया। 64 साल और महज़ 67 फिल्मों में संगीत। आज देखिए, हर संगीतकार धड़ल्ले से फिल्मों की अपनी हाफ सेंचुरी से लेकर सेंचुरी तक लगाने में ज्यादा वक्त नहीं लगाता। यह भी सच है कि पहले फिल्में उतनी नहीं बनती थीं, जितनी आज के दौर में बनती हैं। तो आखिर नौशाद साहब को क्यों ऐसा लगता था कि उन्होंने अपनी जिंदगी में कोई अच्छा संगीत नहीं दिया। हो सकता है ये उनका बड़प्पन हो और सहजता और सादगी की एक मिसाल भी।
लेकिन आज नौशाद साहब को याद करते हुए बरबस आपको बैजू बावरा भी याद आएगा और मुगल ए आज़म भी, लीडर भी याद आएगा और कोहिनूर भी। मेरे महबूब, आन, मदर इंडिया, बाबुल, पाकीज़ा, गंगा जमुना और ढेर सारी वो फिल्में जिन्होंने मोहम्मद रफी को सबका चहेता गायक बनाया और उमा देवी, सुरैया, लता, आशा जैसी आवाजों को एक नया आसमान दिया। अब ज़रा नौशाद साहब के बारे में समाचार एजेंसी वार्ता की तरफ से जारी इस विस्तृत आलेख पर नज़र डाल लेते हैं जिससे आपको नौशाद साहब को समझने में मदद मिलेगी।
सफ़रनामा
1960 में रिलीज़ हुई बेहद मशहूर फिल्म मुग़ल-ए-आज़म के मधुर संगीत को आज की पीढ़ी भी गुनगुनाती है लेकिन इसके गीत को संगीतबद्ध करने वाले नौशाद ने पहले मुगल-ए-आजम में संगीत देने से मना कर दिया था। कहा जाता है मुग़ल-ए-आज़म के निर्देशक के आसिफ जब नौशाद के घर पहली बार ये प्रस्ताव लेकर गए तो नौशाद उस समय हारमोनियम पर कुछ धुन तैयार कर रहे थे। के. आसिफ ने नोटों का बंडल हारमोनियम पर फेंककर नौशाद से फिल्म में संगीत देने को कहा। नौशाद इस बात से बेहद नाराज़ हुए और नोटों का बंडल के. आसिफ के मुंह पर मारते हुए कहा कि ऐसा उन लोगों के लिए करना, जो बिना एडवांस फिल्मों में संगीत नहीं देते, मैं आपकी फिल्म में संगीत नहीं दूंगा। बाद में के. आसिफ के मान-मनौवल पर नौशाद न सिर्फ फिल्म का संगीत देने के लिए तैयार हुए बल्कि इसके लिए एक भी पैसा नहीं लिया।
घर या संगीत में से एक चुन लो
लखनऊ के एक मध्यमवर्गीय रूढ़िवादी मुस्लिम परिवार में 25 दिसंबर 1919 को जन्मे नौशाद का बचपन से ही संगीत की तरफ रुझान था और अपने इस शौक को परवान चढ़ाने के लिए वे फिल्म देखने के बाद रात में देर से घर लौटा करते थे। इस पर उन्हें अक्सर अपने पिता की नाराजगी झेलनी पड़ती थी। उनके पिता हमेशा कहा करते थे कि तुम घर या संगीत में से एक को चुन लो। एक बार की बात है कि लखनऊ में एक नाटक कंपनी आई और नौशाद ने आखिरकार हिम्मत करके अपने पिता से बोल ही दिया- ‘आपको आपका घर मुबारक, मुझे मेरा संगीत…।’ इसके बाद वे घर छोड़कर उस नाटक मंडली में शामिल हो गए और उसके साथ जयपुर, जोधपुर, बरेली और गुजरात के बड़े शहरों का भ्रमण किया।
रियाज के लिए की नौकरी
नौशाद के बचपन का एक वाकया बड़ा ही दिलचस्प है। लखनऊ में भोंदूमल एंड संस की वाद्य यंत्रों की एक दुकान थी जिसे संगीत के दीवाने नौशाद अक्सर हसरतभरी निगाहों से देखा करते थे। एक बार दुकान मालिक ने उनसे पूछ ही लिया कि वे दुकान के पास क्यों खड़े रहते हैं? तो नौशाद ने दिल की बात कह दी कि वे उसकी दुकान में काम करना चाहते हैं। वे जानते थे कि इसी बहाने वे वाद्य यंत्रों पर रियाज कर सकेंगे। एक दिन वाद्य यंत्रों पर रियाज करने के दौरान मालिक की निगाह नौशाद पर पड़ गई और उसने उन्हें डांट लगाई कि उन्होंने उसके वाद्य यंत्रों को गंदा कर दिया है लेकिन बाद में उसे लगा कि नौशाद ने बहुत मधुर धुन तैयार की है तो उसने उन्हें न सिर्फ वाद्य यंत्र उपहार में दे दिए बल्कि उनके लिए संगीत सीखने की व्यवस्था भी करा दी।
25 रुपये उधार लेकर आ गए मुंबई
नौशाद अपने एक दोस्त से 25 रुपए उधार लेकर 1937 में संगीतकार बनने का सपना लिए मुंबई आ गए। मुंबई पहुंचने पर नौशाद को कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। यहां तक कि उन्हें कई दिनों तक फुटपाथ पर ही रात गुजारनी पड़ी। इस दौरान नौशाद की मुलाकात निर्माता कारदार से हुई जिन की सिफारिश पर उन्हें संगीतकार हुसैन खान के यहां 40 रुपए प्रतिमाह पर पियानो बजाने का काम मिला। इसके बाद उन्होंने संगीतकार खेमचन्द्र प्रकाश के सहयोगी के रूप में काम किया।
4 साल में 100 से 25 हजार रुपये तक पहुंचे
बतौर संगीतकार, नौशाद को वर्ष 1940 में प्रदर्शित फिल्म ‘प्रेमनगर’ में 100 रुपए मासिक वेतन पर काम करने का मौका मिला। वर्ष 1944 में प्रदर्शित फिल्म ‘रतन’ में अपने संगीतबद्ध गीत ‘अंखियां मिला के, जिया भरमा के, चले नहीं जाना…’ की सफलता के बाद नौशाद पारिश्रमिक के तौर पर 25,000 रुपए लेने लगे। इसके बाद नौशाद ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और फिल्मों में एक से बढ़कर एक संगीत देकर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया।
शकील का साथ
नौशाद ने करीब 6 दशकों के अपने फिल्मी सफर में लगभग 70 फिल्मों में संगीत दिया। उनके फिल्मी सफर पर यदि एक नजर डालें तो पाएंगे कि उन्होंने सबसे ज्यादा फिल्में गीतकार शकील बदायूंनी के साथ ही कीं और उनके बनाए गाने जबर्दस्त हिट हुए। नौशाद के पसंदीदा गायक के तौर पर मोहम्मद रफी का नाम सबसे ऊपर आता है। उन्होंने शकील बदायूंनी और मोहम्मद रफी के अलावा लता मंगेशकर, सुरैया, उमादेवी (टुनटुन) और गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी को भी फिल्म इंडस्ट्री में स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
पहला फिल्म फेयर पुरस्कार
नौशाद ऐसे पहले संगीतकार थे जिन्होंने पार्श्वगायन के क्षेत्र में सांउड मिक्सिंग और गाने की रिकॉर्डिंग को अलग रखा। फिल्म संगीत में एकॉर्डियन का सबसे पहले इस्तेमाल नौशाद ने ही किया था। हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री में संगीत सम्राट नौशाद पहले संगीतकार हुए जिन्हें सर्वप्रथम ‘फिल्म फेयर’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। वर्ष 1953 में प्रदर्शित फिल्म ‘बैजू बावरा’ के लिए नौशाद सर्वश्रेष्ठ संगीतकार के ‘फिल्म फेयर’ पुरस्कार से सम्मानित किए गए। यह भी चौंकाने वाला तथ्य है कि इसके बाद उन्हें कोई ‘फिल्मफेयर’ पुरस्कार नहीं मिला। भारतीय सिनेमा में उनके महत्वपूर्ण योगदान को देखते हुए उन्हें ‘दादा साहब फाल्के’ पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। लगभग 6 दशकों तक अपने संगीत से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध करने वाले महान संगीतकार नौशाद 5 मई 2006 को इस दुनिया से रुखसत हो गए।
Posted Date:May 5, 2020
10:05 am Tags: नौशाद, संगीतकार नौशाद, नौशाद की पुण्यतिथि, नौशाद का सफरनामा, मोहम्मद रफ़ी, बैजू बावरा, मुग़ल-ए-आज़म