पिछले लगभग दो साल हिंदी और भारतीय रंगमंच `न होने’ का काल है। यानी नाटक नहीं हुए, रिहर्सल नहीं हए और रंगकर्मी कुछ न करने के लिए अभिशप्त हुए। अब जाकर कुछ नाटक हो रहे हैं पर रंगमंच की दुनिया अभी भी उजाड़ है। ऐसे में बरेली में `जिंदगी जरा सी है’ का मंचन एक ताजा हवा की तरह भी है और अभी के दौर को समझने की कोशिश भी।
भारतीय रंगमंच के वरिष्ठ निर्देशक बंसी कौल का हिन्दी रंगमंच में अविस्मरणीय और महत्वपूर्ण योगदान है। पिछले कुछ समय से उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं था, वह कैंसर से जुझ रहे थे, पर उनकी जिजीविषा और जिंदादिली अद्भुत थी। सबको उम्मीद थी कि वह इस स्थिति से उबर कर दोबारा सक्रिय हो जाएंगे। पर ऐसा नहीं हो सका। जिंदगी के नाटक का पटापेक्ष कर बंसी नेपथ्य में चले गए।
साहित्य कला परिषद के आगामी नाट्य समारोहों के लिए कलाकारों से जो प्रविष्ठियां मांगी गई हैं, उनकी शर्तें अगर पढ़िए तो साफ लगेगा कि अब सरकार कंटेंट अपने मतलब का चाहती है, स्क्रिप्ट वैसा ही चाहिए जो सरकार की नीतियों की तारीफ करे। इसके खिलाफ दिल्ली के युवा रंगकर्मियों में असंतोष है। मशहूर रंगकर्मी, निर्देशक और जन सरोकारों से जुड़े मुद्दों पर नाटक करने वाली संस्था अस्मिता के संस्थापक �
रंगमंच को आम जनता से जोड़ने और जनरोकारों से जुड़े मुद्दों को नुक्कड़ नाटकों के ज़रिये एक आंदोलन बना देने वाले अस्मिता थिएटर ग्रुप ने अपने 25 साल पूरे कर लिए हैं। इस लंबे सफर के दौरान कई तरह की चुनौतियों से रू ब रू होते हुए अपनी एक अलग पहचान बना चुकी अस्मिता के कलाकार इस वक्त देश भर में फैले हैं और फिल्मों में भी अपनी पहचान बना चुके हैं।