नई दिल्ली में 30 अक्टूबर की वह एक ऐसी शाम थी, जिसमें कोई औपचारिकता नहीं थी। कुछ कवि थे। कुछ कलाकार। कुछ प्रकाशक। कुछ शब्द प्रेमी। सब आपस में मिलने आए थे। बतियाने आए थे। सुख-दुख की बातें करने आए थे। अपने लिखे को सुनाने आए थे। दूसरों के लिखे को सुनने आए थे। वे अपना-अपना धैर्य साथ लेकर और ऊब छोड़कर आए थे।और फिर राजधानी के सिरी फोर्ट इलाके में एकेडमी ऑफ फाइन आर्ट्स एंड लिटरेचर के सभागार की व
अंगोछे को कंधे पर धरे हुए,अपनी चीजों, अपने पेड़ पौधों, पालतू जानवरों और अपने परिजनों की सुबह-शाम से घिरे हुए, हलधर नाग के होने का मतलब सिर्फ याद है। उडीसा के इस कवि की याद में कभी कोई चूक नहीं होती। उनका बीत चुका समय उनकी स्मृति में एकत्र होता रहता है और अक्सर कविता के रूप में बाहर आता है। पड़ोस और परिवेश का नमक जुबान पर इस कदर लगा हुआ है कि घर नहीं छोड़ते।
सेम्युअल जॉन की इस रंगयात्रा में चादर एक आसमान की तरह उनके साथ रहा है। बिछ गई तो बैठने की जगह बन गई, तन गई तो मंच बन गई, फैल गई तो आने वाले कल के लिए उम्मीद बन गई। लेकिन पटियाला से रंगमंच में ग्रेजुएट जॉन के लिए जब मुंबई से बार-बाक संदेशा आता हो..तो फिर वह संगरूर इलाके के ठेठ गांवों में क्या कर रहे हैं? शायद पिछले 15 सालों में सेम्युअल ने कई बार ऐसे सवालों के जवाब दिए हैं।