बहुत दिनों से प्रिंट मीडिया का चेहरा सलीके से नहीं देखा था। दिन निकलते ही खबरिया चैनल अपने पिटे पिटाये अंदाज़ में खबरें परोसने में लगे रहते हैं। बेगम की चाय की प्याली से पहले "हॉट सीट" तक की यात्रा यह आसान बना देते हैं। मौत के आंकड़ों का गणित आपको लगातार खौफज़दा करता रहता है। इस "वध काल" में चचा गालिब की सलाह मानना ही बेहतर..
दो हफ्ते हो गै, दस दिनां से निगाहं अटकी है रस्ते पे..., मुआ कोई तो सूरत दिखाए... टंगे खिड़की पे चिड़ियाघर में बंदर की माफिक...यूई जरिया बचा अब तो... खुदी बांच लो... जो बांच लो सो बांट लो... पोथे बांचते आंख भी ढेल्ला हो गीं