ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो…

ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो…

भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी

मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन

वो कागज की कश्ती वो बारिश का पानी….

इतनी कामयाबी, इतनी शोहरत… लेकिन एक ऐसा अकेलापन जिसने एक बेहतरीन और संभावनाओं से भरे कलाकार को खुदकुशी जैसी कायराना हरकत करने को मजबूर कर दिया। कोरोना काल के तमाम खतरनाक संकटों में से एक सबसे बड़ा संकट डिप्रेशन को लेकर नजर आता है जिसके शिकार आम-ओ-खास होते दिख रहे हैं। सुशांत सिंह राजपूत की निजी ज़िंदगी में झांकने और उनके इस कदम की वजहें तलाशने की कोशिशें हो रही हैं, बॉलीवुड के मठाधीश गैंग पर अपने अपने तरीके से निशाने साधे जा रहे हैं। अनुमान तमाम लगाए जा सकते हैं, कहानियां तमाम गढ़ी जा सकती हैं लेकिन एक संवेदनशील कलाकार के भीतर की हलचल, बेचैनी और अकेलेपन को समझना आसान नहीं है।

सुशांत भावुक थे, संवेदनशील थे, क्रिएटिव थे, जुनूनी थे, शानदार जीवनशैली के शौकीन थे, पढ़े लिखे थे, कम ही वक्त में काफी हद तक कामयाबी के शिखर पर थे और ये भी कहा जाता है कि ज़मीन से जुड़े हुए थे। अपने अपार्टमेंट में बचपन को भी समेटा था, सपनों को भी और उन तमाम शौक को जीवंत कर डाला था जो सिर्फ करोड़ों रुपए की कमाई के बाद ही पूरे हो सकते थे। मुंबई में उनकी शानदार जीवन शैली थी, लेकिन पटना का उनका घर वही पुराना है, पिता और परिवार वाले वैसे ही साधारण और ज़मीन से जुड़े सामान्य लोगों की तरह ज़िंदगी काटते हैं। कभी कभार सुशांत आते थे, लेकिन अपने कामकाज में मशगूल होने की वजह से उनके पास वक्त की बेहद कमी होती थी। जाहिर है, वो करियर के ऐसे दौर में थे जहां हर रोज़ एक नई ज़िंदगी, नई चुनौतियां और नए सपने उनका इंतजार करती थी।

लेकिन बॉलीवुड के मठाधीशों का गैंग ऐसे होनहार और पढ़े लिखे, संवेदनशील कलाकार को भला कैसे कबूल कर सकता था। मीडिया में इसे लेकर बहसें हो रही हैं और इसी बहाने बॉलीवुड की परतें उधेड़ी जा रही हैं। अपने अंडरवर्ल्ड कनेक्शन के लिए विख्यात रही इस इंडस्ट्री के शिकार अकेले सुशांत नहीं हैं, दशकों से ये किस्से चले आ रहे हैं। अगर आप बेशर्म हैं, मोटी चमड़ी वाले हैं, गाली-गलौज, ज़लालत सहकर भी मुस्करा सकते हैं, हर तरह के समझौते कर सकते हैं, अपनी संवेदना, रिश्तों, ईमानदारी या नैतिकता जैसे शब्दों को ताक पर रख सकते हैं तब तो कुछ हद तक यहां के मठाधीश आपको थोड़ी सी जगह दे भी दें, लेकिन ऐसी अनेकों मिसालें हैं, जो यहां की गलीज मानसिकता और दादागिरी के शिकार रहे हैं। किस्से तमाम आ भी रहे हैं, कुछ डरते हुए, बचते बचाते हुए तो कुछ खुलकर बोल भी रहे हैं, लेकिन बॉलीवुड के इन मठाधीशों, उद्योगपतियों, अंडरवर्ल्ड और सियायत के खतरनाक गठजोड़ के आगे सब बेबस हैं।

सुशांत को अपने दम पर जितनी कामयाबी मिलनी थी, मिल चुकी थी। उसकी कामयाबी से डरने वाले उनका रास्ता रोकने के हर हथकंडे अपना रहे थे, लेकिन क्या सुशांत जैसे पढ़े लिखे, समझदार और ऊर्जावान कलाकार के पास और कोई रास्ता नहीं था। क्या कामयाबी की तमन्नाएं इतनी बड़ी हो गई थीं कि ज़िंदगी सिर्फ इसी फरेबी और चाटुकार दुनिया के इर्द गिर्द आकर टिक गई थी।

दरअसल ये हादसा इस कोरोना काल के खतरनाक दौर की एक दहला देने वाली मिसाल है जिसमें आप अपने सपनों के घर में कैद कर दिए गए हैं, जहां आपके भीतर लगातार डर, आशंकाएं और अंधेरे में डूबे भविष्य की खतरनाक तस्वीर भरी जा रही है या जहां आपको आदमी आदमी से दूरी बनाना और इस फासले को निरंतर बढ़ाए रखना सिखाया जा रहा हो। अब आप इसे वैश्विक सियासी साजिश मान लीजिए, या फिर आदमी की मनोवैज्ञानिक कमज़ोरी। लेकिन ये मौत के दहशत का खतरनाक खेल बेहद सुनियोजित तरीके से खेला गया है। अगर ऐसा न होता तो सुशांत जैसे अंतर्मुखी लोग भीतर ही भीतर इस कदर नहीं घुटते। लोगों से मिलना जुलना, बात करना, एक दूसरे से अपनी बातें शेयर करना कितना ज़रूरी है, इस एक घटना ने साबित कर दिया है।

एक तरफ दुनिया कोरोना के आंकड़े गिनने में जुटी है, दूसरी तरफ सियासत के खेल जारी हैं। सीमा पर तनाव बढ़ा हुआ है, सैनिक शहीद हो रहे हैं, ब़ॉलीवुड की हस्तियां समेत कई और लोग इस भयानक माहौल में दम तोड़ रहे हैं, आने वाले कल की इतनी डरावनी तस्वीर पेश की जा रही है कि अच्छे भले मजबूत कलेजे वाले डिप्रेशन के शिकार हो जाएं, लेकिन चुनावी खेल भी जारी है, पेट्रोल डीजल की कीमतें भी बढ़ रही हैं और हर वो हथकंडे अपनाए जा रहे हैं जिससे लोग परेशान हों, डरें और घुट घुट कर जीना सीख लें। लेकिन किसे फर्क नहीं पड़ रहा, कौन आपको डराकर भी पूरी तरह सुरक्षित और आने वाले वक्त का शहंशाह बनने की तैयारी में है और कैसे निगेटिव-पॉजिटिव का खेल आम आदमी के भीतर एक आतंक की तरह समाता जा रहा है। ये सोचने वाली बात तो है ही। सुशांत की खुदकुशी ने इन तमाम सवालों को सामने लाने की कोशिश की है, बशर्ते कि लोग इस कोरोना काल की हकीकत को समझें, हताश न हों, इस साजिश को समझने की कोशिश करें और तमाम महामारियों की तरह इसे भी लेते हुए सुरक्षित रहें। डरना या हताश होना किसी समस्या का इलाज नहीं हो सकता।

लेकिन अफसोस यही है कि सुशांत सिंह राजपूत जैसे युवा कलाकार ने इसे नहीं समझा, न तो उसने इस एकांतवास की सियासत को समझा, न बॉलीवुड के उन खलनायकों की चाल समझी और न ही ये सोचा कि जो कुछ भी उसने इतने कम वक्त में हासिल किया है, वह किसी से कम नहीं है और ऐसे छिछोरों को उसे सचमुच लात मारकर दुनिया के सामने अपनी एक अलग पहचान बनानी चाहिए। बेशक आखिरी वक्त में सुशांत के लिए इस दौलत और शोहरत का कोई मतलब नहीं रहा होगा, उसे मां याद आई होंगी, उसे बचपन की वो बारिश याद आई होगी और उसे वो कागज़ की कश्ती याद आई होगी…..

Posted Date:

June 17, 2020

2:53 pm Tags: , , , , , , , ,
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