साहित्य, समाज और संघर्ष के संवेदनशील ‘यात्री’

साहित्य की अनवरत यात्रा और समाज की रचनात्मक अभिव्यक्ति

♦  अतुल सिन्हा

जब भी आप जाने माने कथाकार, व्यंग्यकार और बेहद संवेदनशील लेखक से रा यात्री से मिलेंगे, आपको इस 88 बरस के नौजवान के भीतर अपार रचनात्मक ऊर्जा मिलेगी… सेहत बेशक साथ नहीं देती, ज्यादातर वक्त बिस्तर पर गुज़रता है और कुछ बीमारियों ने उन्हें बरसों से जकड़ रखा है, लेकिन जब यात्री जी अपनी रौ में बातें करते हैं तो दुनिया जहान की तमाम खबरों, साहित्य जगत की हलचलों के अलावा अपने दौर की ढेर सारी यादों के साथ जीवंत हो उठते हैं। पढ़ना उनका शगल है और तमाम तरह की किताबें, साहित्यिक पत्र पत्रिकाएं उनके आस पास बिखरी रहती हैं। 10 जुलाई को अपने जन्मदिन को परिवार के साथ मनाते, बच्चों के हाथों बना केक काटते और बेहद भावुक होते से रा यात्री अपने उन दिनों में लौट जाते हैं जब कभी कभार साहित्य जगत भी उन्हें याद कर लेता था।

‘पता नहीं ये कैसा वक्त आया है, कैसा वायरस आया है कि आदमी आदमी से ही डरने लगा है। वो तपाक से मिलने का ज़माना तो पहले ही चला गया, लेकिन अब तो इस बीमारी ने फासले और बढ़ा दिए…’ फोन पर यात्री जी कहते हैं ‘अब तो कोरोना का डर थोड़ा कम हुआ है, आइए किसी दिन’ । बेशक मिलने, बात करने का मन किसका नहीं करता। यात्री जी तो वैसे भी पिछले कई सालों से ‘क्वारंटीन’ हैं। अपने कमरे में अलग थलग, अपनी किताबों और यादों की दुनिया में खोये हुए से।

सबसे सुकून की बात है कि परिवार में सब साथ हैं। उन्हीं की तरह लिखने पढ़ने वाले और पत्रकारिता से लेकर साहित्य की दुनिया में लगातार सक्रिय रहने वाले आलोक यात्री से लेकर छोटे बेटे अनुभव यात्री तक। पत्नी भी कुछ बीमार रहती हैं, लेकिन ‘सबका साथ, सबका विकास’ वाला फार्मूला यात्री जी के लिए जीवन में नए रंग भरता है। अपने पौत्रों की कौतूहल भरी बातें और दादा जी के प्रति उनका अपार लगाव यात्री जी की ऊर्जा को बढ़ाता है।

गाजियाबाद में अमर उजाला का कार्यभार जबतक मेरे पास रहा, यात्री जी से कई दफा मुलाकातें होती रहीं, लंबी बातें होती रहीं, उसके बाद भी मिले, लेकिन जाहिर है दूरियां, व्यस्तताएं और अब तो कोरोना काल ने मुलाकातों के सिलसिले को थोड़ा थाम सा लिया है। लेकिन वो हमारे इर्द गिर्द हमेशा रहते हैं अपनी रचनाओं और अनुभवों के साथ जीवंत और बरकरार। 7 रंग परिवार से रा यात्री के जन्मदिन पर उन्हें अपार शुभकामनाएं देता है और उनके दीर्घायु होने के साथ साथ स्वस्थ और रचनात्मक बने रहने की मंगलकामनाएं करता है। फिलहाल अपने पाठकों के लिए से रा यात्री की एक कहानी ‘हिन्दी समय’ से साभार पेश है। पढ़िए और महसूस कीजिए से रा यात्री के साहित्य को….

 

आदमी कहां है

से रा यात्री

आप निराश न हों, ऐसी बीहड़ परिस्थितियाँ जीवन में अनेक बार आती हैं। आखिर हम किस दिन के लिए हैं। आप निःसंकोच हो कर बतलाइए कि आपका काम कितने में चल सकता है। खन्‍ना जी ने चेहरे पर बड़प्‍पन का भाव लाते हुए कहा। उनकी दिलासा से वह इतना कृतज्ञ हो आया कि उसके कंधे झुक गए और चेहरे की माँसपेशियाँ आवेश में काँपने लगीं। सांत्‍वना और सहानुभूति से आदमी कितना दब जाता है!

वह खन्‍ना जी के बच्‍चों को कई महीनों से ट्यूशन पढ़ा रहा था। खन्‍ना साहब को उसकी परिस्थितियों का आंशिक ज्ञान था। दो मास पहले उसके पिता की मौत शिवाले के आँगन में हुई थी। मरने से कोई महीने-भर पहले उन्‍होंने घर की देहरी छोड़ दी थी और अंत में पुत्र की अनुपस्थिति में ही प्राण त्‍याग दिए थे। गंगाजल, तुलसीदल और किसी सगे सुबंधु की अनुपस्थिति में यह संसार छोड़ने में उन्‍हें जितना कष्‍ट हुआ होगा, यह केवल वही जानता था। बाद में मित्रों की सहायता से उसने उनका क्रिया-कर्म किया था। उसका मुंड़ा सिर देख कर ही खन्‍ना साहब को पिता के मरने का ज्ञान हुआ था। छोटी बहन का रिश्‍ता पिता के सामने ही पक्‍का हो चुका था, लेकिन बाद में वह पक्ष कुछ ढीला नजर आने लगा था। इस स्थिति से उबारने का वादा खन्‍ना जी ने उसे भरसक सांत्‍वना दे कर किया था।

शायद वह अपनी व्‍यथा-कथा खन्‍ना जी से न कहता, क्‍योंकि उसे उनके यहाँ से सत्‍तर रुपए प्रतिमास मिल ही जाते थे, और फिर उसकी कोई ऐसी साख भी नहीं थी कि कोई उसे एकमुश्‍त हजार-दो हजार रुपए का कर्ज दे देता। लेकिन खन्‍ना जी कई बार आत्‍मीयता से बातचीत करके उसकी घरेलू परिस्थितियाँ जान गए थे। उनकी शिक्षा-दीक्षा अमेरिका में हुई थी और विचारों में वह उदारचेता थे। शायद वह मानवता को कुंठित नहीं देखना चाहते थे। एक दिन बहुत भावुक हो कर कहा भी था, शायद आप नहीं जानते कि मुझे कितनी गंदगी और संकीर्णता से लड़ना पड़ा है। स्‍वयं को स्‍थापित करने में मुझे कितनी अपने पिता से भी टक्‍कर लेनी पड़ी थी। मैं बी.एस-सी. में हिंदू विश्‍वविद्यालय में पढ़ता था और मेरे पिता एक लखपती थे, लेकिन उन्‍होंने मुझे एक बार महीने का खर्च कभी नहीं दिया। कभी पचास तो कभी साठ तो कभी बीस रुपए भेज देते थे।

वह खन्‍ना जी के पिता के आचरण को एकदम नहीं समझ पाया और हैरानी से उनका चेहरा देखता रहा। खन्‍ना जी ने किंचित मुस्करा कर कहा, आप ही क्‍या, भाई, इस कमीनेपन को तो कोई नहीं समझ सकता। शायद इसकी वज‍ह यह थी कि एकसाथ सौ-दो सौ रुपए देते उनकी जान निकलती थी। आप जरा कल्‍पना कीजिए उस आदमी की जिसके पास लाखों की संपत्ति हो और वह अपने इकलौते बेटे को महीने का पूरा खर्च भी एक बार में न दे। पाँच-सात हजार रुपए माहवार तो मेरे पिता सूद से ही पीट लेते थे।

अपनी बात यहीं पर रोक कर खन्‍ना जी ने नौकर को आवाज दी और चाय के लिए कह कर फिर अपनी रामकहानी का तार जोड़ा, तो मिश्रा जी, मुझे अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ी और पानी के जहाज पर खलासी का काम करते हुए मैं अमेरिका जा पहुँचा। वहाँ रह कर मैंने सात वर्षों में नौकरी करते ही मेकेनिकल इंजीनियरिंग की डिग्री ली। आप मुझसे कसम ले लीजिए जो इस पूरे अर्से में मैंने उनसे दमड़ी भी ली हो। उन्‍होंने मुझे सैकड़ों खत लिखे, पर मैंने एक का भी जवाब नहीं दिया। उनकी मौत के सालों बाद यहाँ लौटा तो अपने बल-बूते पर यह कारोबार खड़ा कर लिया और आपकी दया से आज अपने पैरों पर खड़ा हो कर रोटी खा रहा हूँ। कुछ ठहर कर खन्‍ना साहब ने यह भी बतला दिया था कि‍ आखिर पिता की सारी संपत्ति भी उन्‍हीं को मिली थी।

ये सारी तफसीलें बतलाते हुए खन्‍ना जी की आँखें आत्‍मविश्‍वास के दर्प से दीप्‍त हो उठी और उसके अहसास में उनकी सारी देह फैल-सी गई। आपकी दया से रोटी खा रहा हूँ, यह अंतिम वाक्‍य उनकी वर्तमान स्थिति से बिल्‍कुल विपरीत लगा था। साथ ही इतने घरेलू और आत्‍मीय वातावरण में एक लखपती की संघर्ष-कथा सुन कर उसने स्‍वयं में भारी स्‍फूर्ति अनुभव की थी।

खन्‍ना जी उससे नाटकों और कविता पर भी बहस करते थे। कभी-कभी वे उसे पढ़ने को क्‍लासिक्‍स देते थे और यह कहना कभी नहीं भूलते थे कि स्‍वयं निर्मित व्‍यक्ति ही ढंग से जीता है। वे कई बार यह भी कह चुके थे, मैं अपनी जीवनी लिखने बैठूँ तो समझिए कि आपको सैकड़ों एडवेंचर और जोखिम उसमें अनायास मिल जाएँगे। सच तो यह है कि ढोल न पीट कर जीने वाले आदमी की जिंदगी में ही खरापन मिलता है। अगर आप असली आदमियत को परखना चाहते हैं तो वह मामूली कहे जाने वाले आदमियों में ही मिलेगी।

ऐसे कितने ही खन्‍ना जी के लंबे-लंबे प्रवचन वह मुग्‍ध-सा पी लेता था। अपनी विपन्‍नता भी अब उसे इतनी बुरी नहीं लगती थी। ऐसे लोग अब उसे सरासर मूर्ख लगते थे, जो किसी को संपन्‍न और दुनियावी स्‍तर पर सफल देख कर नाक-भौं सिकोड़ने लगते हैं। उसे यह विचार भी सारहीन लगता था कि कोई भी पैसे वाला, आदमी के दुख-दर्द से नहीं जुड़ा होता।

हालाँकि उसे कम से कम एक हजार रुपए की जरूरत थी, पर वह खन्‍ना जी की कृपा से इतना अधिक अभिभू‍त हो उठा कि उसने सिर्फ पाँच सौ रुपए ही माँगे। खन्‍ना जी ने अपने चेहरे पर दानशीलता कायम रखते हुए कहा, बस्‍स!

पाँच सौ रुपए का चेक खन्‍ना जी के हाथ से लेते हुए उसका हाथ काँपा और आँखें नम हुईं। गदगद हो कर वह मन ही मन बोला, ‘दुनिया में अभी हमदर्द लोगों की कमी नहीं है। कोई लिखा-पढ़ी नहीं की कि रुपयों को कब और कैसे लौटाना है।’ उसने कृतज्ञ भाव से खन्‍ना जी को मन ही मन प्रणाम किया। उस समय उसका चेहरा ताजे फूल जैसा खिल उठा था।

रुपए लिए हुए पूरे दो साल गुजर गए। इस दौरान वह खन्‍ना जी के यहाँ बराबर आता-जाता रहा। यहाँ तक कि खन्‍ना जी का पुत्र और पुत्री उसे भाई साहब कहने लगे। खन्‍ना जी की पत्‍नी भी उसके सामने आने लगी। वह उनकी ओर से पूर्ण आश्‍वस्‍त हो गया था। लेकिन खन्‍ना जी के दोनों बच्‍चों के इम्तिहान खत्‍म हो जाने के बाद ट्यूशन खत्‍म हो गया।

उसकी परिस्थितियाँ सुधरने की बजाय और भी बिगड़ती गईं। वह बहन की शादी कर चुका था, किंतु बहनोई उसकी बहन और एक बच्‍चे को छोड़ कर चुपचाप कहीं भाग गया था। अब बहन और बच्‍चे का बोझ तो उसके सिर आ ही पड़ा था, बहनोई के भाग जाने की चिंता अलग से सिर पर सवार थी। बहन हर समय रोती-चीखती रहती थी यद्यपि वह उसके पति को खोजने का अथक प्रयास करता रहता था, अपनी नौकरी के बावजूद।

कभी-कभी मिलते रहने से धीरे-धीरे इस परिस्थिति की जानकारी खन्‍ना जी को हुई तो उन्‍होंने उसे डटे रहने का उपदेश भी दिया। विशेषत: अपनी दानशीलता और निस्‍पृहता के किस्‍से सुना कर और साथ ही अपने सूदखोर दिवंगत पिता पर लानतें भेज कर खन्‍ना जी अपनी बातें पूरी करते।

जिस समय वह खन्‍ना जी को अपने संसार का सबसे अधिक सही और दानशील मनुष्‍य स्‍वीकार करने जा रहा था, ठीक उसी समय उसकी मान्‍यताओं पर भयंकर कुठाराघात हुआ। हुआ यह कि एक दिन डाकिया उसकी देहरी पर एक लिफाफा डाल गया। उसने उसे खोल कर धड़कते दिल से पढ़ा और सन्‍न रह गया। यह एक टंकित इबारत थी, जिसमें खन्‍ना जी ने उसे दुनिया-भर का ऊँच-नीच समझाते हुए अपने पाँच सौ रुपए की याद दिलाई थी। उन्‍होंने शिष्‍ट भाषा में यह संकेत भी दिया था, रुपए तो आखिर लौटाने ही हैं, और अब यों भी ढाई साल निकल चुके हैं। रुपयों की खन्‍ना साहब को उतनी फिक्र नहीं थी, जितनी की इस उसूल की कि हर इज्‍जतदार आदमी कर्जा लौटाता है।

हालाँकि खन्‍ना जी हिंदी बोल और लिख लेते थे लेकिन यह टंकित पत्र अंग्रेजी में था। शायद सौजन्‍य-भरे तकाजे के लिए खन्‍ना साहब को अंग्रेजी ही ज्‍यादा ठीक लगी। सहसा अपरिचय, सख्‍ती और ठंडे लहजे को इस भाषा में बखूबी निभाने की आदत थी उन्‍हें शायद।

खन्‍ना जी का पत्र हाथ में ले कर वह विचारों में डूब गया। उसने सपने में भी न सोचा था कि वे किसी दिन इतने औचक ढंग से अपने रुपयों का तकाजा करेंगे। चंद दिन पहले ही तो वह खन्‍ना जी से मिला था, लेकिन अपने रुपयों का उन्‍होंने कोई संकेत नहीं किया था। तत्‍काल रुपए लौटाने की बात उसके मन में थी भी नहीं। वह सोचता था कि थोड़ी सुविधा होते हो ही वह इस दिशा में कोई उपाय करेगा, लेकिन इस पत्र को पढ़ कर वह गहरी चिंता में पड़ गया। वह सोचने लगा, पाँच सौ की तो क्‍या बात, वह फिलहाल पचास रुपए भी नहीं जुटा सकेगा। उसने कर्जा दबाने की बात कभी नहीं सोची थी, परंतु उसका दीर्घघोषित तर्क यही था कि इन रुपयों को वापस करने की अभी कोई जल्‍दी नहीं है। जब होंगे वह चुपचाप खन्‍ना जी के पैरों में रख आएगा। यहाँ तक कि उस क्षण वह एक शब्‍द भी नहीं बोल सकेगा। शब्‍दों में आखिर रखा भी क्‍या है, शब्‍द तो सारा अहसास भी नहीं ढो पाते हैं।

उस रात वह ठीक से सो नहीं सका। उसने दूर-दूर तक सोचा, पर कोई रास्‍ता नहीं दिखा। कई दिन तक भाग-दौड़ करने पर भी जब कोई बात नहीं बनी तो उसे सिर्फ एक राह सूझी : प्राविडेंट फंड से पाँच सौ रुपए कर्ज ले लूँ। उसने तत्‍काल कोशिश की और दफ्तर के बाबुओं ने भी पचास झटक लिए। उसके पास नए कर्ज में से कुल जमा चार सौ पचास बचे।

ज्‍यों-त्‍यों करके उसने पचास रुपए और जुटाए और खन्‍ना जी के घर दे आया। जान-बूझ कर ऐसा वक्‍त चुना था कि जब खन्‍ना जी घर पर नहीं थे। रुपए लिफाफे में बंद कर वह खन्‍ना जी की पत्‍नी को दे आया था। उन्‍होंने लिफाफा हाथ में ले कर पूछा भी, यह क्‍या है भाई साहब? वह हँस कर टाल गया, बस, इतना ही कह सका, एक गुप्‍त दस्‍तावेज है, आप खन्‍ना जी को दे दीजिएगा।

पाँच सौ रुपया लौटाने के तीन माह बाद उसे पुन: एक टंकित पत्र मिला। अपने दफ्तर के पत्र-पैड पर खन्‍ना जी ने यह पत्र इस प्रकार लिख भेजा था, आपने रुपया पूरा नहीं भेजा है। बैंक की न्‍यूनतम ब्‍याज दर के हिसाब से ढाई वर्ष में दो सौ रुपए से ऊपर ब्‍याज निकलता है। कृपया इस पत्र को पाते ही शेष धन भिजवाने का कष्‍ट करें। यद्यपि दिसंबर का महीना था, तथापि उसके माथे पर पसीना चुहचुहा आया। ऐसी अंतर्विरोधी बातें तो उसने किताबों में भी नहीं पढ़ी थीं। बाप की कंजूसी और सूदखोरी को भला-बुरा कहने वाला कोई स्‍वनिर्मित संघर्षरत धनी व्‍यक्ति उसके जैसी परिस्थितियों में फँसे आदमी को भला सूद से भी छूट न दें!

इस बेरहम तकाजे से वह हीरे की तरह सख्‍त हो गया। उसने खन्‍ना साहब के घर जाना तो दूर उस घर के रास्‍ते तक से निकलना छोड़ दिया।

एक दिन उसके घर खन्‍ना जी का पुत्र नरेंद्र आया और कहने लगा, आप पापा को आगे से एक पैसा भी न दें। इस बात पर मेरी उनसे काफी तू-तू, मैं-मैं हो चुकी है। मम्‍मी और नीरा (छोटी बहन) भी इस बात पर बहुत नाराज हैं। पापा हमारे बाबा जी के लिए गाली निकालते हैं और खुद उनसे भी गए-बीते हैं, उनके लिए ‘ह्यूमन रिलेशन’ (मानवीय संबंध) सिर्फ मजाक की चीज है। अब उन्‍हें और एक कौड़ी भी न दें। मैं देख लूँगा, वह आपसे सूद किस तरह वसूल करते हैं।

वह नरेंद्र के व्‍यवहार से द्रवित हो उठा और आकुल हो कर बोला, नहीं, नहीं, नरेंद्र ऐसी बात नहीं करते। तुम्‍हारे पिता जी नेक आदमी हैं। उन्‍होंने मुझे जिस आड़े वक्‍त पर सहायता दी थी, उसको देखते हुए ब्‍याज वगैरह बहुत मामूली चीज है। हम किसी का रुपया तो लौटा सकते हैं लेकिन सहायता से मिली सांत्‍वना की भरपाई तो नहीं कर सकते। फिर वह नरेंद्र की पीठ पर प्‍यार से हाथ रख कर बोला, तुम इन फिजूल की बातों में न पड़ो, तुम लोगों से मेरे जो संबंध हैं, वे मेरे खाते में एक बड़ी नियामत हैं।

दिन निकलते चले गए, वह खन्‍ना जी को सूद की रकम नहीं भेज पाया। ‘कल देखेंगे’ वाली स्‍थगन प्रक्रिया में अनजाने में ही कई माह निकल गए। और एक दिन आखिर खन्‍ना जी उसे अपने दफ्तर में घुसते दीखे। वह अपनी कुर्सी से उठ खड़ा हुआ और उनके साथ चुपचाप दफ्तर से बाहर निकल आया। साथ-साथ चलते हुए यकायक उसे उन्‍हें निहारने की इच्‍छा हुई। उसने देखा कि पस्‍तकद का चुँधी-चुँधी आँखों वाला यह गंजा आदमी मानवीयता का एक नमूना है। चश्‍मे के भीतर से खन्‍ना जी की आँखें उसे बिज्‍जू की आँखें जैसी लगीं। उसने तैश में कुछ बातें कहनी चाहीं, लेकिन फिर वह ढीला पड़ गया। दफ्तर के बाहर एक खाली जगह पर पहुँच कर खन्‍ना जी बोले, मिश्रा जी, आपकी तरफ दो सौ रुपए और निकलते हैं। मैंने आपसे कोई लिखा-पढ़ी भी नहीं की थी। चूँकि यह इंसानियत का सवाल था। आज मेरी पावनादारी की मियाद खत्‍म हो रही है और मैंने आपसे एक रुक्‍का भी नहीं लिखवाया।

वह इस ‘इंसानियत’ शब्‍द से यकायक भड़क उठा और धैर्य छोड़ कर बोला, खन्‍ना जी, फिलहाल उतने रुपए तो मेरे पास हैं नहीं, जब होंगे तब आप जो कहेंगे, दे दूँगा, चाहें तो आप लिखवा लें।

आपकी जैसी मर्जी, कहते हुए खन्‍ना जी ने सड़क से गुजरते रिक्‍शे वाले को आवाज दी और उससे बोले, आइए, रिक्‍शे में आ जाइए, अभी पंद्रह मिनट में वापस चले आइएगा। वह बिना कुछ समझे-बूझे उनकी बगल में बैठ गया। रिक्‍शा चालक से खन्‍ना जी ने कहा, जरा जल्‍दी से कचहरी चलो।

रिक्‍शा सड़क पर दौड़ने लगा। वह सब तरफ से बेखबर हो कर सड़क पर यत्र-तत्र छितराई भीड़ देखने में डूब गया। सारी चीजों के प्रति उसका भाव एकदम तटस्‍थ दर्शक जैसा हो गया। वह एकदम भूल गया कि दफ्तर से बिना किसी से कुछ कहे ही खन्‍ना जी के चंगुल में फँस आया है। कचहरी के गेट के सामने पहुँच कर खन्‍ना साहब ने रिक्‍शावाले को पैसे चुकाए और एक झोपड़ी की तरफ बढ़ लिए। वह भी अनजाने-सा उनके पीछे चलता रहा।

खन्‍ना जी ने झोपड़ी में घुसने से पहले उसकी ओर मुड़ कर देखा और बोले, आ जाइए। वह भी झोपड़ी में घुस गया। वहाँ एक चौकी और दो-तीन मरी-मरी सी कुर्सियाँ पड़ी थीं। चौकी पर एक टीन का संदूक रखा था और अधेड़ उम्र का मरगिल्‍ला-सा व्‍यक्ति स्‍टांप पेपर पर कोई इबारत लिख रहा था। खन्‍ना जी को देख कर वह बोला, आइए बैठिए, एक मिनट में फारिग हो कर आपका काम करता हूँ।

हाँ, हाँ, ठीक है, जरा जल्‍दी है, लंबा काम हो तो उसे फिर निबटा लेना। कह कर खन्‍ना जी ने अपने बैग से एक स्टांप पेपर निकाल मुंशी के हाथ में थमाया। मुंशी ने हाथ का काम छोड़ कर स्टांप पेपर अपने सामने संदूक पर रखा और यह लिखने लगा, ‘मैंने 250 रुपए मुबलिग जिसका आधा एक सौ पचीस रुपए आज दिनांक… को विहारीलाल खन्‍ना वल्‍द हीरालाल से कर्ज लिया, जिसका बैंक दर से सूद मय मूलधन देने की देनदारी मेरे सिर पर है। इतना लिखने के बाद उसने सिर उठा कर खन्‍ना साहब से व्‍यस्‍तता दिखलाते हुए पूछा, मगर वह आदमी कहाँ है, जनाब?’

‘मगर वह आदमी कहाँ है, जनाब’ उसके सिर में इस तरह बजा जैसे किसी ने घंटे पर हथौड़े की चोट की हो। वह सहसा आगे बढ़ कर बोला, अगर आप मुझे आदमी मान सकें तो वह बदनसीब मैं ही हूँ! उसके इतना कहते ही खन्‍ना जी और मुंशी एकदम सकपका गए। खन्‍ना जी के स्‍वर में खासा उखड़ापन था, आदमी नहीं, मुंशी जी, आप ही हैं वह मिश्रा जी।

‘अच्‍छा, अच्‍छा, कहते हुए मुंशी बिलकुल सिटपिटा गया। शायद यह उसकी कल्‍पना में भी नहीं था कि सिर्फ ढाई सौ रुपया कर्ज ले कर स्टांप लिखने वाला आदमी ऐसा भी होता है, जिसे अमूर्त करके अनदेखा नहीं किया जा सकता। वह अपनी कई दिनों की बढ़ी हुई दाढ़ी खुजलाते हुए बोला, माफ करना बाबू साहब, आप जरा इधर दस्‍तखत बना दीजिए।

उसने मुंशी के लगाए हुए निशान पर हस्‍ताक्षर कर दिए। इसके बाद मुंशी ने उसकी तरफ निगाह भी नहीं उठाई। वह खन्‍ना और उसे विस्‍मृत करके पहले वाली तहरीर में उलझ गया।

असमंजस में वह एक मिनट तक गुमसुम हो कर खड़ा रहा और फिर खन्‍ना जी और मुंशी जी को उसी झोपड़ी में छोड़ कर कचहरी के गेट से तेजी से बाहर निकल आया।

अपने दफ्तर की ओर कदम नापते हुए उसके दिलो-दिमाग की शिराओं में ‘मगर वह आदमी कहाँ है’ बार-बार तेजी से गूँज रहा था।

(हिन्दी समय से साभार)

Posted Date:

July 10, 2020

6:36 pm Tags: , , , , , ,
Copyright 2023 @ Vaidehi Media- All rights reserved. Managed by iPistis