एक अलोने-सलोने आसमान का रीता हो जाना
सिनेमा के शहंशाह आप उन्हें कह सकते हैं। सिनेमा को नई परिभाषा देने वाले और अभिनय को एक ऊंचाई तक पहुंचाने वाले दिलीप कुमार पर तमाम लोग अपने अपने तरीके से अभिव्यक्त कर रहे हैं। फिल्मों को करीब से देखने और महसूस करने वाले जाने माने पत्रकार और लंबे समय तक जनसत्ता से जुड़े रहे प्रताप सिंह ने दिलीप कुमार को कैसे देखा, कैसे याद किया और कैसे उन्हें महसूस किया.. 7 रंग के लिए उनका ये शानदार आलेख….
अभिनय के आसमान दिलीप कुमार सौ बसंत पूरे होने से पहले ही स्मृति-लोप के साथ इस दुनिया से विदा ले गए। हमारे समय के सबसे बड़े लिक्खाड़ कवि और सिने विशेषज्ञ विष्णु खरे जी ने उनकी रेंज पहचानते हुए कभी दिलीप कुमार को विश्व कोटि के बेहतरीन अदाकार पाल मुनि और मार्लेन ब्रांडो की कद-काठी और उन्हीं की श्रेणी का बताया था। तो इसमें अतिश्योक्ति नहीं है। आला दर्जे के फिल्मकार डेविड लीन ने उन्हें “लारेंस ऑफ अरेबिया” में विशिष्ट भूमिका ऑफर की थी और उसे करने की बजाय उन्होंने हिंदुस्तानी सिनेमा में बने रहने में ही तरबीयत हासिल करना बेहतर समझा। बाद में वह रोल ओमेर शरीफ ने किया।
हिन्दुस्तानी सिनेमा का यह आखिरी मुगल इतना कुछ दे गया कि आज वही त्रासदी और कामदी का तवाज़ुन/संतुलन संभालती फिल्मों का खुद एक स्कूल है। जिसका कोई सानी नहीं है। किरदारों के चारसू बिखरे हुए रंग उनकी बेमिसाल अदाकारी से इतने सम्पन्न और खा़लिस हैं कि
ख़ासोआम सभी उनके दीवाने और मुरीद रहे हैं।
सिनेमा के सौ साल पूरे होने के अवसर पर सिने-पत्रिका Filmfare ने उन्हें याद किया था और उसके आवरण पर भी वही अहम शख्सियत के रूप में उपस्थित रहे। इफ्फी -गोवा में एक साल सायरा और आमिर के साथ उनकी उपस्थिति ने सबको दिल- आवेज़ किया था। कुंवर महेंद्र सिंह बेदी के बुलावे पर एक  मुशायरे में शिरकत करते हुए उन्हें सुनना भी सचमुच किसी आसमानी सितारे की मौजूदगी से कम न था। याद आ रहा है कि अमरीशपुरी जी को ‘अंधा युग’ के पाठ के लिए उन्होंने विज्ञान भवन जैसी जश्न की अमीर जगह यह कहकर आमंत्रित और संबोधित किया था कि…”इनामात.. जवाहारात वगैरा तो मिलते रहेंगे, मगर थिएटर के इस बंदे के पास जो है, वो सिनेमा में जाया हो रहा है। चलो, उन्हीं अमरीश साहब की सम्पूर्ण कला में, दानाई में और दास्तानी आवाज़ में…
‘अंधायुग’  को फिर से रौशन होते देखा जाय!! यह मौका विज्ञान -भवन में सिने राष्ट्रीय पुरस्कार का था और दिलीप कुमार की इस दूरदर्शिता और दरियादिली ने उसे एक तारीख़ में बदल दिया था। पुरस्कार समारोह की परम्परा को कुछ शानदार लम्हों के लिए तोड़कर इस तरह भी जगमगाया गया। यह दिलीप कुमार की बदौलत ही हो सका।
अमरीश पुरी की खलनायकी छवि से परे उनकी आवाज़ की अलग परतों से यह विस्मयकारी परिचय भी उनकी रंगमंचीय भूगोल में दूर बैठे गहन दिलचस्पी से संभव हुआ। जिसका अमरीश पुरी ने भी अपने पाठ से उनके सामने नतमस्तक होकर जैसे कला-ऋण चुकाया और गर्व महसूस किया।
एक बार उन्होंने संजीव कुमार का भी नौ रसों से लबरेज फिल्म “नया दिन, नयी रात” के आगाज़ के लिए दासानी परिचय दिया था। जो उनके साथ ‘संघर्ष’ और ‘विधाता’ में बराबरी पर रहने का मौका पा गया। इतने ही से किसी की कला की उच्चतम परख  कर लेना हमारी सदी के एक महानायक के विवेकपूर्ण होने,उसकी शाइस्तगी का प्रमाण और बड़प्पन भी है।
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देवदास की याद…
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 हिंदी सिनेमा के युग-प्रर्वतकों में अशोक कुमार के बाद  दिलीप कुमार ही महानायक और सदाबहार कहलाने का हक /बा-हक रखने वाली पहली अज़ीम हस्ती हैं। उनके सिनेमा  की जरख़ेज- जमीन की हर सूरत कीमती है। पर उसे ‘देवदास’ की अना और अदा के बगैर  मुकम्मिल नहीं माना जाता। गमगीनीयत में डूबे बिमल राय के देवू और पारो की यह सिने-कथा जिसने भी परदे पर देखी वह मैटिनी हो या नाइट शो उसके साथ ही घर तक चली आई। फिल्म खत्म होने के बाद भी खलक़त की चुप्पी का असर बताता था कि जैसे सब देवदास के अन्तिम मंज़र से लौट रहे हों, फिल्म देखकर नहीं। यही देवदास के दिलीप और बिमल दा की कला का जादू है जो उनके फ़लक़ से मुक्त नहीं होने देता। देवदास की जटिलताएं और मनोवेदनाएं दूसरी किसी फिल्म में नहीं हैं। न ही ,वैसी उन्मुक्त आंचलिक  जीवन-शैली की  सांकेतिक शुरूआत। न ही ऐसा आत्मसंघर्ष से पलायन करने वाले ‘आत्महन्ता नायक” का प्राणान्त, जिसमें सुपर इम्पोजड क्लोज-अप शाट में देवदास का बचपन और पारो (पार्वती) की स्मृतियां विलीन होते समय फ्लैशबैक में भी उभरती हैं। किशोर अवस्था से गुजर रहा देवू कहता है~•••
“पारो छुट्टी होते ही मैं आ जाऊंगा” या फिर शाट परिवर्तन के साथ यह कहना  “कितनी बड़ी हो गई है तू !” बिमल दा शरद बाबू के इस उपन्यास को परदे पर मानकपुर ले जाकर देवदास की अंतिम- यात्रा को पारो के ससुराल के परकोटे तक ले गए। जहां उस पारो का परिवार और महलनुमा बसेरा है।
अंतिम -यात्रा के बीच में रेल-यात्रा में एक स्वप्निल सी, झीनी सी मुलाकात मोतीलाल से भी है, जो देवू को देवदास बनाने का वायज है। यह प्रतीकात्मक है और फिर भी नशीली भी।
“देवदास” हमारे सिनेमा की बार-बार दोहराई गई इतिहास बन गई जैसे एक  जिंदा कारुणिक घटना है और बिमल राय का देवदास उनमें लैंडमार्क है। यह बिमल राय ही दिखा पाए कि अपने अंत के समय मानकपुर जा पहुॅ॑चे देवदास की आत्मा की पुकार सुन हवेली से दौड़ती, उसे खोजती पारो के होटों पर अपने “देवा” की ही हूक बची है। सांसें उसी के लिए तो बाकी थीं और चल रही थीं, अब तक! नये सिनेमा में विमल राय ही इस जादुई यथार्थवाद के पहले जनक हुए और दिलीप कुमार ऐसे पहले अदाकार जिसने इस देवदास को मरने नहीं दिया और उसकी पीड़ा,दारुण अवस्था, विदीर्ण-मन की गांठों को एक-एक कर खोलकर अमर कर दिया। पी.सी.बरुआ की इसी नाम की फिल्म के छायांकन से जुड़े विमल राय ने दिलीप कुमार की मनोचेतना में ,अन्तर काया में देवदास को ऐसा रचा कि वह अपनी आधी-अधूरी ज़िन्दगी की तड़प के साथ टिमटिमाता रहता है। उसका प्रेम-वेदना से दग्ध हृदय और चंद्रमुखी /पारो दोनों को –उदासिनी/वियोगिनी बनाने की दिशाएं तथा शराबनोशी के बाद का विदारक विसर्जन तक दिलीप कुमार जीते चले गए।इतना -इतना कि चंद्रमुखी की टोक उन्हें (उसे) उलाहना लगती है। चंद्रमुखी का करुण-कथन है~
“इतना मत पियो देवदास। इतनी ज्यादा बरदास्त नहीं कर पाओगे!”
यहाॅ॑ इस बिंदु पर इस गमगीन नायक का संवाद और संलाप दर्शनीय है। देवदास में…. परकायाप्रवेश का यह लम्हा एक  दिलीप कुमार में पोशीदा देवदास की आंतरिकता के पट खोलता हुआ भावक के भीतर भी एक तूफान या खलबली पैदा करता है। जब एक ही शाॅट में बयां होता है एक रिंद का रिंदांदगी के बावजूद दर्द बयां होता है~••
“कौन कमबख़्त है जो बरदाश्त करने के लिए पीता है। मैं तो पीता हूं कि बस! सांस ले सकूॅ॑!!!”
दिलीप कुमार की इस देवदासीय अदा ने ही नहीं, चंद्रमुखी की निष्ठा और विदग्धता ने, पारो की अतृप्त चाहना ने इस फिल्म को नया शिखर प्रदान किया, जिसके केंद्र थे देवदास ! जिसे दिलीप कुमार ही आत्मसात कर पाए। बाद में भी देवदास बनी पर भंसाली नाज, नखरे, नजाक़त और अपने नर-नारी-पात्रों की कसक के गहनों की चमक में वो मुकाम हासिल न कर सके।
काल बेशक किसी की मीमांसा की अनुमति तो नहीं देता। (तिस)पर, दिलीप साहब की पहली फिल्म ज्वारभाटा से लेकर चंद और चलचित्रों में आन, कोहेनूर, पैगाम, मुगल-ए-आज़म, मधुमति, गंगा-जमुना, दिल दिया दर्द लिया, आदमी, संघर्ष, सगीना महतो, राम और श्याम, मशाल, शक्ति, विधाता, धर्मकांटा, कर्मा और किला तक या  कुछ और फिल्मों की मीमांसा के बिना किसी एक दिलीप कुमार को हासिल करना अब असंभव ही होगा। आज उनका न होना –बदलियों की गरज से भरे, बीत गई ऋतुओं से संवरे और  सतरंगे गीतों की झड़ी से बौराये एक अलोने-सलोने आसमान का रीता हो जाना है।
प्रताप सिंह
जाने माने फिल्म पत्रकार
Posted Date:

July 7, 2021

5:03 pm Tags: , , , , , ,
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