राजीव सिंह जाने माने लेखक और पत्रकार रहे हैं, मीडिया शिक्षण के क्षेत्र में करीब दो दशकों से सक्रिय रहे हैं और हाल ही में उनकी बनारस पर केन्द्रित एक अद्भुत किताब आई है – कविता में बनारस। हर दौर के कवियों और शायरों ने जिस तरह बनारस को देखा, उसके बारे में लिखा, उसे राजीव सिंह ने अपनी किताब में बेहद संजीदगी से समेटा है। इस दौरान उन्होंने कई शायरों को बहुत करीब से और शिद्दत के साथ पढ़ा। सांप्रदायिक सद्भाव के साथ साथ अपने देश की गंगा जमुनी तहज़ीब को इन शायरों ने जिस तरह देखा, महसूस किया उसे राजीव सिंह ने आज के संदर्भ में खूबसूरती से पेश किया है … पूरी संवेदना और सामाजिक चिंताओं के साथ। इस आलेख को उन्होंने हाल के एक संदर्भ के साथ जोड़ा है जब अलीगढ़ की रूबी खान के खिलाफ कुछ मौलवियों ने फतवा जारी कर दिया। देश के मौजूदा माहौल की यह एक छोटी सी मिसाल भर है। लेकिन इसके मायने गहरे हैं। राजीव जी ने इसे किस तरह समझा और अपने देश के नामचीन शायरों और साहित्य के धरोहरों के ज़रिये पेश किया, 7 रंग के पाठकों के लिए ये खास आलेख…
हिंदू भी सुकूँ से है, मुसलमान भी सुकूँ से है
इंसान परेशान, यहाँ भी है वहाँ भी
उर्दू के नामचीन शायर मुक्तदा हसन निदा फ़ाज़ली अब दुनिया में नहीं हैं। उनका यह शेर ज़िंदा है और आज की तारीख़ में मौज़ू भी। आज़ादी के 75 बरस बाद भी भारत में रह-रह कर धार्मिक उन्माद का पारा उफान पर चढ़ जाता है। आग हवा देने वालों में हिंदू-मुसलमान दोनो शामिल है। कही मंदिर को ले कर तनाव है तो कही मस्जिद को ले कर। कही मॉल में नमाज़ पढ़ने को ले कर शोर है तो कही गौकशी को ले कर हंगामा। आज हिंदू धर्म के सम्राट और इस्लाम के मौलवी दोनो सक्रिय हैं। इन्हें मुद्दों का इंतज़ार रहता है।
पिछले दिनो अलीगढ़ की रूबी खान के खिलाफ फतवा जारी हुआ। इस बार विवाद की जड़ में हिंदुओ के आराध्य लम्बोदर गणेश है। विघ्न विनाशक कहलाने वाले गणेश की मूर्ति ने भाजपा से जुड़ी अलीगढ़ की रूबी के सामने बड़ा संकट पैदा कर दिया। रूबी ने अपने घर में गणेश प्रतिमा रखी।और पूजा की गुस्ताखी कर बैठी। मूर्ति पूजा के बाद विवाद बढ़ा और फ़तवे की नौबत आ गई।
मूर्ति पूजा के ख़िलाफ़ दो मुस्लिम मौलाना/मौलवी ने आपत्ति उठाते हुए गणेश पूजा को इस्लाम धर्म के ख़िलाफ़ बताया। ये सज्जन हैं अलीगढ़ के पूर्व प्रोफेसर मौलाना मुफ्ती जाहिद और सहारनपुर के मौलवी मुफ्ती अरशद फारूखी। मौलवी और मौलाना का मानना है एक खुदा को मानने वाला ही सच्चा मुसलमान है। मूर्ति पूजा करने वाला काफिर कहलाएगा। रूबी मौलानाओं के फ़तवे को सही नही मानती। वे कहती हैं मूर्तिपूजा को हिंदू-मुसलमान एकता के नज़रिए से देखना चाहिए। हालाँकि अब विवाद शांत हो गया है लेकिन अपने पीछे एक बार फिर बहस की गुंजाइश छोड़ गया है।
बात-बात पर मौलवियो का फ़तवा या धर्म गुरुओं के आदेश से समाज का बड़ा तपका असहज हो उठता है। इस तपके को निदा फ़ाज़ली इंसान कहते हैं। उसे आपसी सौहार्द बिगड़ने की आशंका हो जाती है। राष्ट्रवाद के दौर में देश आज संकट से गुजर रहा है। यह संकट हर नज़रिए से देश के विकास में बाधक है। इतिहास सबक़ और प्रेरणा दोनो का श्रोत है। आज के दौर में इतिहास फिर से पढ़ने की ज़रूरत है। हिंदी-उर्दू साहित्य का इतिहास मुग़लकाल में सांप्रदाइक सौहार्द के बारे में बहुत कुछ बताता है। भारत के तमाम मुग़ल शासको के राज में राजनीतिक और धार्मिक दुश्वारिया रही इससे इनकार नही किया जा सकता। वही दूसरी ओर इस्लाम की धार्मिक कट्टरता के बीच हिंदी साहित्य का भक्ति आन्दोलन संकीर्ण साम्प्रदायिकता से मुक्त रहा। इसमें कृष्ण और राम के मुस्लिम भक्त कवियों का बड़ा योगदान एक मिसाल है। मुस्लिम रचनाकारों के सांप्रदाइक सौहार्द के आचरण से आज के लोगों को सीखने के लिए बहुत कुछ है। हिंदी साहित्य में कृष्ण भक्ति और राम भक्ति शाखा के हिंदू और मुसलमान कवियों की लम्बी सूची है। सगुण उपासक मुसलमान भक्त कवियों का हिंदू कवियों की तुलना में भक्ति साहित्य में कम महत्वपूर्ण योगदान नहीं है। देश में धर्म को ले कर हंगामा खड़ा करने वालो को कृष्ण और राम भक्त अपने मानिंद पूर्वजों की रचनाओं पर भी नजर डालनी चाहिए। मुग़लकाल में अनेक मुसलमान कवियों और शायरों ने कृष्ण और राम से प्रभावित हो कर उनकी भक्ति और प्रेम में हिंदू कवियों को टक्कर देने वाले काव्य का सृजन किया है। मुस्लिम कवियों की रचनायें हिंदी साहित्य के भक्ति काल का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। भारत के मुसलमान कवियों की रचनाओं को देखने से से आज हिंदुओ और मुसलमानो दोनो को आपसी कटुता कम करने में मदद मिलेगी।
नज़ीर बनारसी
नज़ीर बनारसी ने अपनी तमाम कविताओं के ज़रिए गंगो-जमुनी तहज़ीब की हौसलाअफ़जाई की है-
मस्जिद-ओ-मंदिर कलीसा सब में जाना चाहिए
दर कहीं का हो मुक़द्दर आज़माना चाहिए
वो मानते है कि आदमी को मस्जिद, मंदिर या गिजाघर हर जगह जा कर अपनी क़िस्मत आज़मानी चाहिए। नजीर की नजर में मस्जिद, मंदिर और गिजाघर सब बराबर हैं। आपस में झगड़ा क्यों? यानी सबका मालिक एक है।
नज़ीर अकबराबादी
नज़ीर अकबराबादी का असली नाम वाली मुहम्मद था। जनकवि कहे जाते हैं। आम लोगों की बात करने वाले। बंजारा और रोटियाँ जैसी कालजयी रचनायें लिखने वाले। भारतीय संस्कृति में रच-बस गए नजीर ने हिंदुओ के तीज-त्योहारों मसलन होली, दीपावली, बसंत आदि विषयों पर अनेक कवितायें लिखी है। साथ ही नजीर ने अपनी रचना का विषय कृष्ण और बलदेव को भी बनाया है। उनकी कृष्ण पर लिखी रचना पर गौर करे-
“तू सबका ख़ुदा, सब तुझ पे फ़िदा, अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी
हे कृष्ण कन्हैया, नंद लला, अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी
तालिब है तेरी रहमत का, बन्दए नाचीज़ नज़ीर तेरा
तू बहरे करम है नंदलला, ऐ सल्ले अला, अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी।’
रसखान
रसखान का असल नाम सैयद इब्राहिम था। तुलसीदास के समकालीन थे। कृष्ण के मोहक व्यक्तित्व ने रसखान को बहुत प्रभावित किया। जिसके चलते सैयद इब्राहिम जैसे मुसलमान से रसखान हो गए। वे कृष्ण भक्त कवि थे। रसखान आदि मुसलमानो की भक्ति पर भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने रीझ कर कहा था- “इन मुसलमान हरिजनन पर कोटिन हिंदुन वारिए” रसखान दिल्ली से वृंदावन चले आए। सारा जीवन वृंदावन और मथुरा में बीत गया। कृष्ण राजा भी हैं और आमजन भी। वे उच्च वर्गीय मर्यादाओं को ध्वस्त भी करते है। कृष्ण के साथ संस्कृति के अन्य आयाम भी जुड़ते हैं-गीत-संगीत,नृत्य,नाट्य लोकधुन आदि। राम में गांभीर्य है। वे मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। कृष्ण का व्यक्तित्व बहुआयामी है। उनमें एक नटखटपन भी है। उनका नटखटपन कवियों को इस कदर आकर्षित करता है कि वे उनके मुरीद हो जाते हैं। कृष्ण के प्रेम और भक्ति में डूबी रसखान की रचना देखे-
मानुष हौं तो वही रसखानि बसौ ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।
जो पसु हौं तो कहा बसु मेरा चरौं नित नंद की धेनु मँझारन।
पाहन हौं तो वही गिरि को जो धर्यौ कर छत्र पुरंदर कारन।
जो खग हौं तौ बसेरो करौं मिलि कालिंदी-कूल-कदंब की डारन॥
(रसखान कहते हैं कि यदि मुझे अगले जन्म में फिर से मनुष्य-योनि मिले तो मैं चाहूँगा कि मुझे ब्रज और गोकुल गाँव के ग्वालों के साथ रहने का अवसर मिले। हालाँकि अगले जन्म पर मेरा कोई वश नहीं है। ईश्वर जैसा चाहेगा वही होगा। यदि मुझे पशु बनाना हो तो एसा पशु बनाना जिसे नंद की गायों के साथ चरने का सौभाग्य प्राप्त हो। यदि ईश्वर मुझे पत्थर बनाना चाहे तो भी कोई बात नहीं। मैं उसी पर्वत का एक हिस्सा बनना चाहूँगा जिसे श्रीकृष्ण ने इंद्र का घमंड चूर करने के लिए अपने हाथ पर उठा लिया था। और यदि मुझे पक्षी बनाया जाय तो मैं ब्रज भूमि में ही जन्म लेना चाहूँगा। ताकि मैं यमुना के तट पर खड़े विशाल कदम्ब के पेड़ों की डालियों पर अपना घोंसला बना सकूँ।)
रहीम
अकबर के दरबार के सम्मानित सदस्य थे। वे अकबर के दरबारी नहीं थे। उन्होंने अकबर की प्रशंसा में उन्होंने एक छंद नही लिखा। रहीम हिंदी, संस्कृत, फ़ारसी और उर्दू के पंडित थे। एक कवि के साथ सेनापति, प्रशासक और कलाप्रेमी भी थे। रहीम न वैष्णव थे न सूफ़ी। मुसलमान होते हुए भी हिंदू देवी-देवताओं, धार्मिक मान्यताओं से उनका गहरा लगाव था। यह भारतीय संस्कृति के प्रति उनकी आस्था को दर्शाता है। हिंदुओ के पौराणिक ग्रंथो का उन्होंने गंभीरता से अध्ययन किया था। जिसका नतीजा है कि उनकी रचनाओं में राम, हनुमान, लक्ष्मी, रावण, गंगा, सुदामा के संदर्भ बीच बीच में मिल जाते हैं। रहीम ने अपनी रचनाओं में रामायण, महाभारत गीत जैसे पौराणिक ग्रंथो के कथाओं के संदर्भो को बीच बीच में पिरोया है। रहीम की एक रचना में राम का चित्रण देखे-
अनुचित बचन न मानिए जदपि गुराइसु गाढ़ि।
है रहीम रघुनाथ ते, सुजस भरत को बाढ़ि।।
चित्रकूट में रमि रहे रहिमन अवध नरेश।
जा पर बिपदा पड़त है सो आवत यहि देश।।
और कृष्ण का चित्रण –
तै रहीम मन आपुनो कीन्हो चारु चकोर।
निसि बासर लागो रहै कृष्ण चंद की ओर।।
मीर तक़ी मीर
मीर तक़ी मीर का असल नाम मोहम्मद तकी था। उनके पिता सूफ़ी फ़क़ीर थे। मीर विचारधारा में कबीर के करीब हैं और भाषा के मिठास में सूर के। मीर की रचना के ग़ालिब, ज़ौक़ हसरत मोहानी सब क़ायल थे। मीर ने सूफ़ी धर्म को जिया था और अपनी रचनाओं में उतारा भी। मीर के समकालीन सूफ़ी कवियों में इस्लाम की लक्ष्मण रेखा को पार करने का साहस कम दिखाई देता है। धर्म की दीवारों को तोड़ती मीर के इश्क़हक़ीक़ी का एक नमूना देखें-
मीर के दीनो मजहब को अब पूछते क्या हो उनने तो
कश्का खीचा दैर में बैठा कब का तर्क इस्लाम किया
(मीर के धर्म के बारे में क्या पूछते हो। वह तो माथे पर (कश्का) टीका लगा (दैर) मंदिर में बैठ गया है। उसने इस्लाम से कब का रिश्ता (तर्क) तोड़ लिया है। इसे मीर की बेबाक़ी नही तो और क्या कहेंगे।)
मीर की कविता में इमाम का चित्रण देखे-
फिर मीर आज मस्जिद-ए-जामे में थे इमाम
दाग़-ए-शराब धोते थे कल जानमाज़ का
(जानमाज़ वह कपड़ा होता है जिस पर नमाज़ पढ़ी जाती है)
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ालिब किसी परिचय के मोहताज नहीं। उर्दू कविता के सर्वोच्च शिखर। कुछ मीर को बड़ा मानते हैं। ग़ालिब ने भी मीर को याद करते हुए लिखा है- ‘रेख्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो ग़ालिब/ कहते है अगले जमाने में कोई ‘मीर’ भी था।‘दिल्ली से कलकत्ता जाते हुए इलाहाबाद गए। शहर पसंद नहीं आया। फिर बनारस आए। बनारस भा गया। ग़ालिब बनारस पर इस क़दर फ़िदा हो गए कि कुछ महीने रुक़ गए। बनारस रहते हुए उन्होंने बनारस के घाट, इसके धार्मिक महत्व, गंगा में स्नान करती सुंदर स्त्रियों का अपनी कविता में सुंदर चित्रण किया है। उन्होंने अपनी मसनवी ‘चिरागे दैर’ में बनारस को हिंदुस्तान का क़ाबा बताया है-
इबादत ख़ाना- ए- नाक़ूसियानस्त
हमाना काबा- ए- हिंदोस्तानस्त
मौलवी मुल्लाओ के हक़ में शायद ही किसी शायर ने कुछ लिखा हो। ग़ालिब शराब के शौक़ीन थे। अपने को आधा मुसलमान कहते थे। शेरों-शायरी में ‘मीर’ की तरह मुल्लाओ की खबर लेते रहते थे। बनारस को हिंदुओं का क़ाबा बताने वाले ग़ालिब ने वाइज़ पर तीर चलाते हुए लिखा है-
कहाँ मयखाने का दरवाज़ा ग़ालिब और कहा वाइज़
पर इतना जानते हैं कल वो जाता था कि हम निकले
(वाइज़- उपदेश देने वाला)
शेख़ अली हजी
शेख़ अली हजी ईरान में राजनीतिक उथल-पुथल के बाद भारत आ गए। भारत में तमाम शहर घूमने के बाद बनारस पहुँचे। बनारस उनको रास आ गया। यहीं बस गए। कुछ बरस बाद ईरान से वापसी का बुलावा आया। तब तक अली हजी को शहर की आबोहवा रास आ गई थी। वे बनारस में रम गए थे। उन्होंने कहा अब मैं बनारस से नहीं जाऊँगा। यह सब लोगों की उपासना का स्थान है। ईरान से आया एक मुसलमान हिंदुओ के धार्मिक केंद्र काशी में बस गया। वहाँ से अपने देश जाने इनकार का अर्थ है वे हिंदुओ के क़ाबा बनारस में महफ़ूज़ थे। हिंदुओ के शहर में मुसलमान महफ़ूज़ हों, सांप्रदाइक सौहार्द का इससे बड़ा उदाहरण क्या होगा? शेख़ अली हजी की फ़ारसी में लिखी कविता में हिंदुओ के पूज्य महादेव, राम लक्ष्मण और गंगा का वर्णन देखे-
अज़ बनारस न रवम माबदे आमअस्तईज
हर बरहमन पेसरे लछमनो रामअस्तईज
परी रुखाने बनारस व सद करिश्मो रंग
पये परिश्ते महादेव चूँ कुनन्द आरंग
ब गंग गुस्ल कुनंद व बसंग या मालंद
ज़हे शराफते संग व ज़हे लताफते गंग
(मैं बनारस से नहीं जाऊँगा, क्योंकि यह सबकी उपासना का स्थान है। यहा के ब्राह्मणो के बेटे राम और लक्ष्मण की तरह हैं। यहा परियों जैसी सुंदरिया सैकड़ों हाव भाव के साथ महादेवजी की पूजा के लिए निकलती हैं।वे गंगा में स्नान करती हैं और पत्थर पर पैर घिसती हैं। क्या ही उस पत्थर की सज्जनता है और क्या है गंगाजी की पवित्रता।)
इक्कीसवी सदी में धर्म के दिनो दिन कट्टर होते स्वरूप और बढ़ते सांप्रदायिक तनाव को दुनिया झेल रही है। दुनिया में आज राष्ट्रवाद का बोलबाला है। भारत में भी राष्ट्रवाद का नारा गूंज रहा है। सबके राष्ट्रवाद का राग अलग अलग है। राष्ट्रवाद तक तो ठीक है। राष्ट्रवाद में धर्म का घुसना कहां तक सही है। भारत में पिछले रास्ते से चुपके से धर्म घुस गया है। धर्म के झगड़े लोकतांत्रिक देशों में ज्यादा है। भारत भी इसके जद में है। यूँ आँकड़ों की बात करें तो भारत में दंगों की संख्या में कमी आई है। फिर भी हिंदू- मुसलमानों में दूरियाँ बढ़ी हैं। मुग़लकाल के तमाम मुसलमान कवियों की कविताओं ने देश में सांप्रदायिक सौहार्द बनाए रखने में बड़ी भूमिका अदा की। अंग्रेज भारत को लूट कर वापस चले गए। मुग़ल शासक बाहर से आए लेकिन भारत के बन कर रह गए। मुस्लिम कवि और शायर भी भारतीय मिट्टी और संस्कृति में रच-बस गए। मुग़लिया शासन में उन्होंने कृष्ण और राम की भक्ति में रचनायें कर धार्मिक समन्वय का मार्ग प्रशस्त किया था। भारत के सपन्न हिंदी-उर्दू साहित्य से अगर दोनो सम्प्रदाय के लोग थोड़ा भी सीख लेते तो आए दिन मौलवियों को फ़तवा जारी करने की नौबत न आती। हिंदू धर्म गुरु भी विष वमन से बच जाते। ज़रूरत है दिल बड़ा करने की। संकुचित दिमाग़ को और खोलने की, जिससे आपस में संवाद जारी रहे। ऐसे में मिर्ज़ा ग़ालिब की ये पंक्तियां भी याद आती हैं…
जब कि तुझ बिन नहीं कोई मौजूद
फिर ये हंगामा ऐ ख़ुदा क्या है
Posted Date:
September 11, 2022
2:49 pm Tags: कबीर, राजीव सिंह, निदा फाजली, मिर्जा गालिब, नजीर बनारसी, रूबी खान