‘इन दिनों कोई किसी को अपना दुख नहीं बताता’

एक बेचैन और संवेदनशील कवि का यूं चला जाना…

पिछले साल अपने घर पर अपनी किताब ‘एक सड़क एक जगह’ की प्रति भेंट करते हुए मंगलेश जी ने लखनऊ की वो तमाम यादें ताजा कर दीं जब उनका पहला कविता संग्रह आया था ‘पहाड़ पर लालटेन’। उन्होंने याद किया ‘कैसे तुमलोगों ने पहाड़ पर लालटेन का नाट्य रूपांतरण करने की कोशिश की थी। वो दौर भी क्या दौर था। संवेदनाएं थीं, एक दूसरे के साथ मिलने बैठने का वक्त होता था, इतने फ़ासले नहीं थे। अब तो आदमी जैसे मशीन हो गया है। सत्ता और पूंजी के खेल में सबकुछ जैसे नष्ट हो गया है।‘

फिर उन्होंने खुद किचन में चाय बनाई, मैं भी वहीं मौजूद रहा और पुराने दिनों के कई किस्से आते जाते रहे।

कुछ महीने बाद नेमिचंद्र जैन जन्मशती समारोह के कार्यक्रमों के दौरान साहित्य अकादमी में मिले तो भी वही बिंदासपन और फक्कड़पन। अशोक वाजपेयी, मधुसूदन आनंद, असद ज़ैदी और तमाम साथियों के साथ उनका वही पुराना अंदाज़। सबसे मिलवाने और पुरानी यादें ताजा करवाने का उनका वही आत्मीय तरीका। इसी साहित्य अकादमी ने उन्हें सम्मानित किया और अपने रवैये की वजह से उन्हें नाराज़ भी किया। यहां तक कि उन्हें और यहां जमा साथियों को ‘अवार्ड वापसी गैंग’ और ‘टुकड़े टुकड़े गैंग’ जैसी उपाधियों तक से नवाज़ा गया।

लेकिन मंगलेश डबराल ने कभी हार नहीं मानी। रचनाकर्म और अपनी जीवनशैली में पूरी ईमानदारी के साथ आखिरी वक्त तक डटे रहे। उनकी कविताएं उनके जीवन के इर्द गिर्द रही हैं जहां पहाड़ भी है और समतल ज़मीन भी, गांव का मुश्किल जीवन भी है और शहरों- महानगरों की आपाधापी भी। रिश्तों की बारीकियां भी हैं, बदलती हुई सामाजिक व्यवस्थाओं और सत्ता के अधिनायकवाद के चेहरे भी हैं। एक अकेलापन और कहीं कुछ छूट जाने का एहसास तो उनकी कविताओं और बातचीत में अक्सर मिलता ही रहा। और कहीं न कहीं वो खुद भी अपनी कविताओं से झांकते हुए ज़रूर मिल जाते हैं।

1981 में जब उनकी चालीस कविताओं का पहला संग्रह ‘पहाड़ पर लालटेन’ आया तो लगा कि उन्होंने सत्तर और अस्सी के दशक के दौरान देश के धधकते खेत खलिहानों का सच, लोगों के भीतर के दर्द और कठिन जीवन को बेहद करीब से महसूस किया और कविताओं में उतार दिया। जाने माने कवि और रचनाकार पंकज सिंह ने इन कविताओं पर तब लिखा था – ‘कविता के समकालीन परिदृश्य में पहाड़ पर लालटेन की कविताएँ हमें एक विरल और बहुत सच्चे अर्थों में मानवीय कवि-संसार में ले जाती हैं जिसमें बचपन है, छूटी जगहों की यादें हैं, अँधेरे-उजालों में खुलती खिड़कियाँ हैं, आसपास घिर आई रात है, नींद है, स्वप्न-दु:स्वप्न हैं, ‘सम्राज्ञी’ का एक विरूप मायालोक है मगर यह सब ‘एक नए मनुष्य की गंध से’ भरा हुआ है।’ यानी अपने पहले ही कविता संग्रह में मंगलेश जी ने अपने भीतर के एक बेहद संवेदनशील और सामाजिक सरोकारों वाले जागरूक कवि के भविष्य का संकेत दे दिया था।

लेकिन अपना घर, गांव, पहाड़ और वहां का जीवन हमेशा से उनके भीतर कहीं बहुत गहरे धड़कता रहा और जब 1988 में उनका दूसरा कविता संग्रह  ‘घर का रास्ता’ आया तो मानो उनकी ये बेचैनी और गहरी होकर सामने आई। लेकिन अब वह बहुत दूर निकल चुके थे। दिल्ली में पत्रकारिता और साहित्य के बीच के रिश्ते को मजबूत कर रहे थे, उसे सींच रहे थे और नई पीढ़ी के लिए भाषा, लेखन, समाज और पत्रकारीय मूल्यों की इबारत गढ़ रहे थे। जो भी उनसे मिलता उनकी आत्मीयता का कायल हो जाता।

दरअसल तबतक साहित्य की दुनिया में खेमेबाजियों का इतना भयानक दौर नहीं शुरु हुआ था और पत्रकारिता भी काफी हद तक ज़िंदा थी। इसलिए मंगलेश जी में उम्मीदें बरकरार थीं, सामाजिक-सांस्कृतिक जिम्मेदारियों का एहसास उन्हें बार बार जन संघर्षों के साथ ला खड़ा करता था। वामपंथी आंदोलन को लेकर रचनात्मक तौर पर कुछ असहमतियों के बावजूद मंगलेश जी प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ और जन संस्कृति मंच को अपने बहुत करीब पाते थे। हालांकि उन्होंने खुद को कभी किसी दायरे में नहीं बांधा। उनका मूल लेखन और चिंतन जनपक्षधरता को समर्पित रहा और सत्ता के प्रतिरोध की संस्कृति के साथ खड़ा रहा।

संगीत उन्हें हमेशा एक दूसरी दुनिया में ले जाता। कुमार गंधर्व और भीमसेन जोशी उनके प्रिय गायकों में थे। ‘आवाज़ भी एक जगह है’  तक आते आते उनकी कविताओं में एक नये फलक का एहसास होने लगा। इसमें उनकी सांस्कृतिक चेतना और जीवन के मूल्यों के उस एहसास की झलक दिखती है जहां से एक आदमी वाकई एक संवेदनशील आदमी बनकर उभरता है। लेकिन सत्ता के खतरनाक और विद्रूप चेहरे को लेकर उनका तीखा तेवर बरकरार रहा और उन्होंने ‘नए युग के शत्रु’ में इसे बखूबी सामने लाने की कोशिश की। बाजारीकरण के खतरे और इससे जीवन और रिश्तों पर पड़ने वाले असर को उन्होंने ‘नए युग में शत्रु’ में लिखा। ‘कवि का अकेलापन’ उनके भीतर के उस अकेलेपन और रिश्तों की संवेदनहीनता को सामने लाने वाला है।

मंगलेश जी जैसे संवेदनशील कवियों, रचनाकारों के लिए 2014 के बाद से हिन्दूवादी ताकतों के जबरदस्त उभार, देश के पूरे परिदृश्य में एक भयानक और आक्रामक सियासी मनमानियों ने खासी मुश्किलें खड़ी करना शुरु कर दी थीं। विरोध की आवाज़ उठाने वालों और इस लहर के खिलाफ बोलने वालों पर हमले से लेकर हत्याओं तक के सिलसिले ने मंगलेश जी और तमाम रचनाकारों, कलाकारों को प्रतिरोध की आवाज़ तेज करने को मजबूर किया। ये आवाज़ें सत्तर और अस्सी के दशक में भी उठी थीं जब देश सत्ता की निरंकुशता का दंश झेल रहा था। इतने सालों बाद फिर उससे भी भयावह स्थितियां महसूस करते हुए मंगलेश जी काफी बेचैन थे। कलबुर्गी, गौरी लंकेश की हत्याओं ने उन्हें भीतर तक हिला दिया था। पिछले कुछ सालों से उनके भीतर की निराशा गहराती जा रही थी। वह बेचैन रहने लगे थे। पत्रकारिता की दुर्दशा और हिन्दी के पतन से वो बेहद परेशान थे। लेकिन उनका लेखन और बेहतरीन कृतियों के अनुवाद का काम बदस्तूर जारी रहा।

अपनी कविताओं की बदौलत तमाम देशों की यात्रा के दौरान उनके भीतर का गद्यकार ने भी एक नए रूप में आकार लिया और 2019 में उन्होंने पहली बार एक यात्रा वृतांत लिखा – एक सड़क एक जगह। वह कहते थे कि उनकी इच्छा लंबे समय से गद्य लिखने की थी और इन विदेश यात्राओं को इस रूप में पेश कर उन्हें खासा सुकून मिला। इसमें उनकी नीदरलैंड, पेरिस और जर्मनी की यात्राओं के साथ साथ अपने पहाड़ के एक गांव हर्शिल की यात्रा का भी बेहद खूबसूरत जिक्र है। इसी साल फरवरी में उनका नया कविता संग्रह आया – स्मृति एक दूसरा समय है। बदकिस्मती से वही उनका आखिरी संग्रह साबित हुआ। इसीके बाद शुरु हुआ खतरनाक कोरोना काल और फिर लगातार बढ़ते इसके प्रकोप ने हम सबके बहुत प्रिय मंगलेश डबराल को भी हमसे छीन लिया। उनके भीतर का अकेलापन आखिरी वक्त तक उनके साथ रहा, लेकिन खुद को प्रेम करने वाले जिस विशाल दुनिया को वो अलविदा कह रहे थे उसके लिए अस्पताल के आखिरी दिनों में भी वो यही कहने की कोशिश करते रहे कि वो कुछ बेहतर हैं और परेशान न हों। कविताओं का एक विस्तृत संसार अपने पीछे छोड़कर मंगलेश जी बेशक चले गए हों, लेकिन वो हमेशा रहेंगे और ये एहसास दिलाते रहेंगे कि गुलामी का नया दौर नज़र आ रहा है, बचके रहिए…

इन दिनों कोई किसी को अपना दुख नहीं बताता
हर कोई कुछ छिपाता हुआ दिखता है
दुख की छोटी-सी कोठरी में कोई रहना नहीं चाहता
कोई अपने अकेलेपन में नहीं मिलना चाहता
लोग हर वक्त घिरे हुए रहते हैं लोगों से
अपनी सफलताओं से ताक़त से पैसे से अपने सुरक्षादलों से
कुछ भी पूछने पर तुरंत हंसते हैं
जिसे इन दिनों के आम चलन में प्रसन्नता माना जाता है
उदासी का पुराना कबाड़ पिछवाड़े फेंक दिया गया है
उसका ज़माना ख़त्म हुआ
अब यह आसानी से याद नहीं आता कि आख़िरी शोकगीत कौन-सा था
आख़िरी उदास फ़िल्म कौन-सी थी जिसे देखकर हम लौटे थे

बहुत सी चीज़ें उलट-पुलट हो गयी हैं
इन दिनों दिमाग़ पर पहले क़ब्ज़ा कर लिया जाता है
ज़मीनों पर क़ब्ज़ा करने के लिए लोग बाद में उतरते हैं
इस तरह नयी ग़ुलामियां शुरू होती हैं

(दैनिक ट्रिब्यून में कवि-रचनाकार मंगलेश डबराल को अतुल सिन्हा की श्रद्धांजलि) 

Posted Date:

December 10, 2020

10:37 pm Tags: , , , ,
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