नुक्कड़ कविता आंदोलन के अहम किरदार थे डॉ राजहंस

(डॉ रवीन्द्र राजहंस बेशक प्रोफेसर रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव हों, अंग्रेज़ी साहित्य के उम्दा प्रोफेसर हों, अमेरिकी आलोचना में शिकागो स्कूल ऑफ क्रिटिसिज्म जैसे जटिल विषय पर पीएचडी किया हो, लेकिन हिन्दी व्यंग्य लेखन और कविता में जो उनकी पहचान रही, समाज और सत्ता की विद्रूपता को देखने की जो उनकी दृष्टि रही, वह उन्हें सबसे अलग करती है। ज़िंदगी के शुरुआती दौर में पारिवारिक ज़िम्मेदारियों का बोझ उठाते, पढ़ाई लिखाई के बीच अपनी साहित्यिक अभिरुचियों की बदौलत खुद को स्थापित करते और सामाजिक बदलाव के आंदोलन के साथ साथ जेपी आंदोलन को करीब से देखते, महसूस करते और अपनी साहित्यिक गतिविधियों के जरिये लगातार सक्रिय रहते रवीन्द्र राजहंस ने खूब लिखा, कुछ अलग लिखा और नुक्कड़ कविता आंदोलन के अहम किरदारों में रहे। करीब 82 साल की उम्र में उन्होंने चुपचाप सबको अलविदा कह दिया। 7 रंग परिवार डॉ राजहंस को सादर नमन करता है। उनकी ढेर सारी स्मृतियां हैं, बहुत से खट्टे-मीठे पारिवारिक पल हैं, बचपन से लेकर कॉलेज के दिनों और जीवन के तमाम पलों की बहुत सी यादें हैं।)

बिहार में नुक्कड़ कविता आंदोलन का जब भी ज़िक्र होगा, जब भी जेपी आंदोलन के दौरान कविता की नई धारा की चर्चा होगी, डॉ रवीन्द्र राजहंस का नाम बेहद गर्व के साथ लिया जाएगा। याद आते हैं 1974 आंदोलन के वो दिन जब पटना में हर शाम किसी न किसी नुक्कड़ पर हिन्दी के सुप्रसिद्ध कहानीकार फणीश्वरनाथ रेणु की अगुवाई में डॉ रवीन्द्र राजहंस के साथ सत्यनारायण, गोपी वल्लभ, बाबूलाल मधुकर, परेश सिन्हा समेत कई युवा और उत्साही कवि अपनी व्यंग्य कविताओं और सत्ता पर लिखी धारदार पंक्तियों से एक नई चेतना पैदा करने की कोशिश करते थे। ये सिलसिला कई महीनों तक चला। इमरजेंसी के दौरान डॉ रवीन्द्र राजहंस की व्यंग्य कविताओं की धूम थी। अपने कॉलेज के दिनों से ही धारदार कविताएं लिखने वाले डॉ राजहंस का पहला कविता संग्रह 1965 में आया – अप्रियं ब्रूयात।

बेहद संजीदा तरीके से लिखी गई उनकी कविताओं में भ्रष्टाचार, ब्यूरोक्रेसी के विद्रूप चेहरे, राजनेताओं और सत्ता के चरित्र पर तीखा व्यंग्य था। डॉ राजहंस जब कविताएं सुनाते थे तो उनके सहज अंदाज़ और मुस्करा कर व्यंग्य करने की उनकी शैली बहुत गहराई तक लोगों को प्रभावित करती थी। जेपी आंदोलन के ही दौरान डॉ रवीन्द्र राजहंस के संपादन में एक बेहद चर्चित कविता संग्रह आया – समर शेष है। इसमें उस दौर में नुक्कड़ कविता आंदोलन के सात कवियों की कविताएं शामिल थीं।

डॉ रवीन्द्र राजहंस बेशक अब हमारे बीच न हों, लेकिन अपने जीवन के अंतिम दिनों में कई तरह की बीमारियों के बावजूद उनका चिंतन और लेखन बरकरार रहा। हिन्दी के जाने माने रचनाकार और साहित्यरत्न डॉ मुरलीधर श्रीवास्तव के वे दूसरे बेटे थे, करीब 82 साल पहले जन्मे थे और घर में लगातार पढ़ने पढ़ाने के माहौल की वजह से युवावस्था में ही लिखने लगे थे। बड़े भाई शैलेन्द्र नाथ श्रीवास्तव पटना विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्रवक्ता थे, भारतीय जनसंघ से जुड़े थे, एक बेहतरीन और ईमानदार शख्सियत के धनी थे, संस्कार भारती के संस्थापकों में रहे और विश्व हिन्दी दिवस को स्थापित करने में उनकी अहम भूमिका रही। चुनाव लड़े तो विधायक भी बने और बाद में सांसद भी। तमाम किताबें लिखीं और हिन्दी के प्रति समर्पित रहे। पद्मश्री से सम्मानित हुए। जाहिर है वैचारिक असहमतियों के बावजूद डॉ रवीन्द्र राजहंस पर डॉ शैलेन्द्र नाथ श्रीवास्तव और अपने पिता मुरली बाबू का असर रहा। डॉ राजहंस, अंग्रेजी के प्रख्यात विद्वान थे, कॉलेज ऑफ कॉमर्स में अंग्रेजी के प्रोफेसर रहे लेकिन हिन्दी और व्यंग्य शैली उनके रग रग में रची बसी थी। बेहद सक्रिय रहते, देश विदेश के तमाम हिन्दी साहित्यिक कार्यक्रमों के हिस्सा रहते और खुद को किसी राजनीतिक विचारधारा में बंधने से बचाकर रखते। इसलिए वह प्रगतिशील लेखक संघ के कार्यक्रमों में भी बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते और उदार समाजवादी या संघ परिवार से जुड़े कार्यक्रमों में भी। लेकिन हर मंच पर सत्ता और व्यवस्था पर उनके तीखे व्यंग्य और कविताओं की धूम सुनाई देती।

 1983 में उनका एक कविता संग्रह आया – नाख़ून बढ़े अक्षर। इसकी कविताओं में सत्ता, व्यवस्था और ब्यूरोक्रेसी पर जबरदस्त व्यंग्य था और इसकी कविताएं इतनी चर्चित हुईं कि उन्हें 1985-86 में इसके लिए दिनकर पुरस्कार दिया गया। उनकी कविता ‘जला आदमी’ बहुत चर्चित हुई और हर मंच पर उनकी इस कविता की मांग उठती – इस शहर में कहां रहता है भला आदमी…।

डॉ रवीन्द्र राजहंस कई सालों तक पटना के दैनिक हिन्दुस्तान, नवभारत टाइम्स, दैनिक जागरण और पाटलीपुत्र टाइम्स में अपना व्यंग्य कॉलम लिखते रहे। हर हफ्ते सत्ता, नेता और व्यवस्था पर उनके तीखे व्यंग्य खूब पसंद किए जाते थे। साहित्य में उनके योगदान के लिए 2009 में उन्हें पद्मश्री से नवाज़ा गया। आकाशवाणी और दूरदर्शन पर उनके तमाम कार्यक्रम होते रहे और उनकी कविताओं और व्यंग्य रचनाओं को खूब पसंद किया जाता रहा। बेशक उन्होंने खुद को सोशल मीडिया से दूर रखा, साहित्यिक खेमेबाजी के हिस्से नहीं रहे और शुद्ध रूप से अपनी रचनात्मकता और आम आदमी से जुड़ी अपनी दृष्टि को बरकरार रखा। जाहिर है डॉ राजहंस इसलिए बहुत चर्चा में नहीं रहे और न ही सम्मानों और पुरस्कारों की दौड़ में रहे।

डॉ राजहंस सीधी सपाट और सीधे तौर पर आपको समझ में आने वाली कविताएं लिखते थे। न ज्यादा छंदों, अलंकारों में बात करते थे और न ही साहित्य की गूढ़ और छायावादी शब्दावलियों का इस्तेमाल करते थे। लेकिन व्यंग्य का पुट ऐसा होता था कि आपको बेचैन भी कर दे, मुस्कराते हुए हालात पर सोचने के लिए मजबूर भी कर दे।

उनकी कविता दृष्टि में बदलाव तब आया जब उन्होंने गरीब बच्चों की जिंदगी को बहुत करीब से देखा। इन बच्चों पर उनकी 57 कविताओं का संग्रह 2002 में आया – किस चिड़िया का नाम है बचपन। बच्चों के लिए काम करने वाली संस्था प्रयास की पहल पर ये संग्रह छपा। बाद में स्लमडॉग मिलेनियर से प्रभावित होकर डॉ राजहंस ने गरीब बच्चों पर खूब लिखा। पेंगुइन ने इनकी किताब ‘सनराइज़ इन स्ल्म्स’ 2013 में छापी जिसमें हिन्दी और अंग्रेजी में बच्चों पर 101 कविताएं थीं… इसका विमोचन तत्कालीन उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने किया।

 उनके दोनों बेटों ज्योति कलश और अमृत कलश पर भी उनके साहित्य का असर कुछ हद तक नजर आता है और भारतीय प्रशासनिक सेवा और भारतीय पुलिस सेवा में अहम पदों पर रहते हुए उनके बच्चों ने डॉ राजहंस के लेखन को निखारने और सम्मान दिलाने की लगातार कोशिशें की हैं। इसी कोशिश का नतीजा है कि 2018 में वाणी प्रकाशन ने डॉ रवीन्द्र राजहंस का संग्रह छापा – सूने पिंजड़े की चहचहाहट।

दरअसल साहित्य की दुनिया बहुत बड़ी, व्यापक और खेमेबाजियों से भरी हुई है। ऐसे में किसी कवि और रचनाकार के चिंतन और लेखन को उचित जगह और उचित सम्मान मिल सके, समाज में पहचान मिल सके, ये एक अहम बात होती है। जाहिर है डॉ रवीन्द्र राजहंस भी हाशिये पर पड़े उन कई अहम रचनाकारों की ही तरह रहे जिन्हें वो जगह नहीं मिल सकी जिसके वो हकदार रहे।

♦ अतुल सिन्हा

 

 

 

 

Posted Date:

May 8, 2021

6:08 pm
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