अलविदा अदाकार-ए-आज़म दिलीप कुमार

 जन्म- 11 दिसंबर 1922 पेशावर                                                                                                          निधन- 7 जुलाई 2021 मुंबई

वैसे तो दिलीप साहब के गुज़र जाने पर सोशल मीडिया और तमाम माध्यमों पर उन्हें सब अपने अपने तरीके से याद कर रहे हैं और उनके न होने का मतलब भी बताने की कोशिश कर रहे हैं….दिलीप साहब किस गहराई से आज भी लोगों के दिलो दिमाग पर छाए रहे और किस तरह सिनेमा को उन्होंने नई दिशा दी, ट्रेजेडी को भी एक रूमानियत की बेहतरी अभिव्यक्ति बना दी… ये सब बहुत साफ हो रहा है.. सिनेमा भले ही कहां से कहां आ गया है, तकनीक से लेकर सोच तक और  कथानक से लेकर अभिनय तक, सबकुछ बदल गया हो, लेकिन दिलीप साहब आखिरी वक्त तक दिलीप कुमार ही रहे.. वही अपने युसूफ साहब…. जो अल्फाज़ और अनुभव या कहूं कि दिल की कुछ आवाज़ें जो फेसबुक पर सुनाई, दिखाई दीं, उनमें से चंद 7 रंग के पाठकों के लिए पेश है….

पहली टिप्पणी वरिष्ठ पत्रकार खुशदीप सहगल की वॉल से

कलाकार या स्टार आते-जाते रहते हैं लेकिन सदियों में अदाकार-ए-आज़म एक बार ही आता है….दिलीप कुमार अभिनेता के साथ-साथ अभिनय की यूनिवर्सिटी भी है…जिनकी फिल्में देख देख कर ही कई बड़े सितारों ने एक्टिंग सीखी…

यूसुफ़ ख़ान के तौर पर पेशावर के फल-कारोबारी गुलाम सरवर खान के यहां 11 दिसंबर 1922 को जन्मे दिलीप कुमार छह भाइयों और छह बहनों में तीसरे नंबर की संतान रहे…

पेशावर के साथ-साथ दिलीप कुमार के पिता के महाराष्ट्र के देवलाली में भी फलों के बागीचे थे…मुंबई से 200 किलोमीटर दूर देवलाली कैंट स्टेशन में स्कूली पढ़ाई के दौरान दिलीप कुमार का पहला प्रेम फिल्में नहीं फुटबॉल था…देवलाली में दिलीप कुमार आठ साल रहे और इस दौरान उन्होंने एक भी फिल्म नहीं देखी…

देवलाली से पढ़ाई पूरी करने के बाद बोरी बंदर के अंजुमन-ए-इस्लाम हाई स्कूल में दाखिला किया…स्कूली किताबों से ज़्यादा दिलचस्पी फुटबॉल, क्रिकेट और हॉकी में रही…हर इम्तिहान से पहले दिलीप कुमार का एक सहपाठी उन्हें टिप्स दिया करता था जिससे उनकी नैया पार लग जाती…दिलीप साहब कभी इस राज़ का पता नहीं लगा सके कि वो सहपाठी कहां से उन टिप्स का जुगाड़ करता था…

मैट्रिक करने के बाद दिलीप कुमार ने विल्सन कॉलेज से आगे की पढ़ाई की…कॉलेज की पूरी पढ़ाई के दौरान उनकी एक भी गर्ल-फ्रैंड नहीं थी…और यही दिलीप कुमार आगे चलकर मैटिनी आइडल बना…

कॉलेज के टाइम दिलीप कुमार फुटबॉल के अलावा अंग्रेजी में बेहतरीन निबंध लिखने के लिए भी जाने जाते थे…1941 में एक बार क्रिसमस पर निबंध में उन्होंने लिखा…क्रिसमस पर विशेष फिल्मों का आकर्षण किसी की जे़ब से बची-खुची रकम भी झटक लेता है…दिलीप साहब के इस निबंध को उनके एक दोस्त ने आज तक संभाल कर रखा है…

कालेज के दिनों से आज तक दिलीप कुमार ने अपना हेयर-स्टाइल नहीं बदला…माथे पर झूलते पफ में सात दशक बाद भी कोई फर्क नहीं आया है…

दिलीप साहब को कालेज के दिनों में अंग्रेज़ी फिल्में देखने का बड़ा शौक था,..सिनेमा हाल के लेफ्ट में सबसे कार्नर वाली सीट को दिलीप साहब फिल्म देखने के लिेए सबसे बढ़िया एंगल मानते हैं

विल्सन कॉलेज और फिर खालसा कॉलेज से पढ़ाई पूरी करने के बाद दिलीप साहब ने पुश्तैनी धंधा अपनाने की जगह खुद की पहचान बनाने का फैसला किया…उस वक्त तक फिल्में दिलीप कुमार के ज़ेहन में दूर-दूर तक नहीं थी…

दिलीप कुमार ने मुंबई से पुणे आकर ब्रिटिश आर्मी में कैंटीन मैनेजर की नौकरी कर ली…इस नौकरी के लिए दिलीप कुमार को 35 रुपये वेतन मिलता था…जल्दी ही दिलीप कुमार को आर्मी मेस में रिफ्रेशमेंट रूम चलाने का ठेका मिल गया…धंधा चल निकला और आमदनी 800 रुपये हर महीने से ऊपर जा पहुंची…उस वक्त 800 रुपये बहुत मोटी रकम मानी जाती थी…

अच्छा खासा बैंक बेलेंस जमा करने के बाद दिलीप कुमार मुंबई वापस आए….उन दिनों बॉम्बे टॉकीज सबसे बड़ा प्रोडक्शन हाउस हुआ करता था…बॉम्बे टॉकीज को सुंदर और अच्छी कद काठी वाले युवा चेहरों की तलाश थी…प्रोडक्शन हाउस के लोगों ने ही बॉम्बे टॉकीज की कर्ता-धर्ता देविका रानी से दिलीप कुमार की मुलाकात कराई…देविका रानी दिलीप कुमार की शख्सीयत और बोलने के अंदाज़ से इतनी प्रभावित हुईं कि बिना स्क्रीन टेस्ट ही उन्हें ज्वार भाटा (1944)के लिए साइन कर लिया…दिलीप कुमार की पहली हीरोइन मृदुला थीं…

तब तक दिलीप कुमार यूसुफ़ ख़ान ही थे…देविका रानी ने ही उनके स्क्रीन के लिए तीन नाम सुझाए थे…जंहागीर, वासुदेव और दिलीप कुमार….युसूफ़ खान को दिलीप कुमार तीनो नामों में सबसे कम पसंद था…लेकिन देविका रानी को यही नाम सबसे ज़्यादा पसंद आया…

ज्वार भाटा रिलीज़ होने के बाद दिलीप कुमार की मोतीलाल जैसे दिग्गज कलाकार ने तारीफ की थी और कहा था कि यही तेवर बनाए रखना, हिंदी सिनेमा तुम्हे सिर-आंखों पर बिठाएगा…बॉम्बे टाकीज से दिलीप कुमार का 625 रूपये महीने पर दो साल का कांन्ट्रेक्ट था..

1947-48 में आई मेला और जुगनू ने दिलीप कुमार को स्टार बना दिया…महबूब खान की फिल्म अंदाज (1949) से दिलीप कुमार को ट्रेजिडी कुमार का नाम मिला..अंदाज में दिलीप कुमार के साथ राजकपूर और नर्गिस सह-कलाकार थे…1961 में दिलीप कुमार ने भाई नासिर खान के साथ फिल्म गंगा जमुना का निर्माण किया..फिल्म हिट भी रही लेकिन उसके बाद दिलीप कुमार ने किसी फिल्म का निर्माण नहीं किया…

1962 में ब्रिटिश निर्देशक डेविड लीन ने लॉरेंस ऑफ अरेबिया में अहम रोल ऑफर किया था जिसे दिलीप कुमार ने स्वीकार नहीं किया…बाद में यही रोल ओमर शरीफ ने किया…

फिल्म ने रिकॉर्डतोड़ सफलता अर्जित की थी…

1966 में सायरा बानू से शादी के वक्त दिलीप कुमार 44 और सायरा बानू 22 साल की थीं…शादी के बाद दिलीप कुमार की एक संतान भी हुई लेकिन जीवित नहीं रह सकी…उसके बाद उनकी कोई संतान नहीं हुई…

1998 में आई किला दिलीप कुमार की आखिरी रिलीज फिल्म थी…1994 में मुगले-आजम और 1997 में नया दौर को कलर करने के बाद दोबारा रिलीज किया था…

धर्मेंद्र और अमिताभ बच्चन समेत तमाम कलाकारो के दिलीप कुमार रोल मॉडल रहे हैं…

दिलीप कुमार की नसीहत

करीब साढ़े पांच दशक के एक्टिव करियर मे दिलीप कुमार ने सिर्फ 61 फिल्मों में काम किया… दिलीप कुमार का हमेशा मानना रहा है कि कलाकार को गुलाब की पंखुड़ियों की तरह एक-एक करके खिलना चाहिए…ये नहीं कि एक ही बार में अपना सब कुछ दिखा दिया…यही वजह है कि दिलीप कुमार ने क्वाटिंटी से ज़्यादा क्वालिटी पर ध्यान दिया…लेकिन कलाकारों की आजकल की पीढ़ी के लिए पैसा ही ईमान है…पैसा मिले तो इन्हें शादियों में नाचने से भी गुरेज़ नहीं….

 

Posted Date:

July 7, 2021

4:02 pm
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