अब तो भइया, जो बिकता है, वही दिखता है…

आलोक यात्री की कलम से…

देख तमाशा दुनिया का…                                                                                                   

एक दौर था जब “जो दिखता है, वो बिकता है” जुमला भारतीय राजनीति और मीडिया के ताल्लुकों का पैमाना हुआ करता था। बीते दो दशकों में मीडिया, खासकर खबरिया चैनल्स की कार्यशैली में आमूलचूल परिवर्तन आया है। अधिकांश मीडिया घरानों और खबरिया चैनल्स ने पेशेवर रुख अख्तियार कर लिया है। शायद उसी का नतीजा है कि उपरोक्त जुमला बदल कर यूं हो गया है -“जो बिकता है, वही दिखता है।” मुझ जैसे दर्शक की हैसियत बड़ी विचित्र सी हो गई है। चैनल्स के प्रोड्यूसर और प्राॅडक्ट इंचार्ज ने मुझ जैसे पाठक या श्रोता को ग्राहक समझ लिया है और खबरों को पूरी तरह प्राॅडक्ट बना दिया गया है। अधिकांश खबरिया चैनल्स खबरों को रसीले व्यंजन की तरह परोस रहे हैं। अधिकांश चैनल्स में मैकडोनाल्ड, केएफसी और डोमिनोज की तरह प्रतिस्पर्धात्मक जंग छिड़ी है। जबकि छोटे और मझोले अखबारों और प्रादेशिक चैनल्स अभी भी पत्रकारिता धर्म के प्रति निष्ठावान नजर आ रहे हैं।

मीडिया की बदलती नैतिकता का नतीजा यह निकला कि पाठक, श्रोता या दर्शक के सामने खबर “तंदूरी चिकन” के तौर पर परोसी जाती हैं। उतने ही सच के साथ जितना दिखाना (या मजबूरी) हो। परोसे गए समाचार को लेकर आपके भीतर कितने ही सवाल क्यों न उमड़ें? मीडिया से उनका कोई सरोकार नहीं है। मेरे सामने बड़ी दुविधा यह रहती है कि परोसे गए “तंदूरी चिकन” की हड्डियां कहां फेंकी जाएं? इसके अलावा और भी कई सवाल होते हैं जो मुझ जैसे व्यक्ति को भीतर ही भीतर धुनते रहते हैं। धुनते-धुनते हमारी स्थिति रूई के गालों सी हो जाती है। यह सामने वाली की मर्जी है कि वह उससे रजाई बना ले, तकिया, गद्दा या कुशन…। आभारी होना चाहिए हमें तथाकथित इन बड़े घरानों का कि वह हमें मुर्गा नहीं बनाते। ऐसा करते तो एक दिन हमारी नियति भी “बटर चिकन” जैसी होती।


हां! तो मैं बात कर रहा था “तंदूरी चिकन” निपटा कर बची हड्डियों को ठिकाने लगाने की। ऐसे ही एक मसले को दो-चार दिन से संभाले बैठा हूं कि कोई स्याना मिल जाए और सलाह दे कि मुझे क्या करना चाहिए? “मां के शव पर ढकी चादर से ही खेलता रहा ढ़ाई साल का मासूम…।” खबर विचलित करने वाली तो थी ही मेरी दाढ़ में तिनके की तरह अटक भी गई। 14 सेकेंड के एक वीडियो क्लिप को खबरिया चैनल पूरे दिन दंत मंजन की तरह घिसते रहे। मुजफ्फरपुर स्टेशन पर मृत अवस्था में पड़ी इस महिला का शव एक श्रमिक स्पेशल ट्रेन से उतार कर लावारिस सामान की तरह प्लेटफार्म पर पटक दिया गया था।14 सेकेंड के बेआवाज वीडियो क्लिप में पार्श्व में ट्रेनों के आवागमन की सूचना ही सुनने को मिलती है। चंद सेकेंड के इस वीडियो के आधार पर एंकर चीख-चीख कर स्टूडियो का तापमान बढ़ाते हुए अपने “तंदूरी चिकन” को सेंकने की पुरजोर कोशिश करते रहते हैं।
“मुफ्त का मंजन, घिस मेरे नंदन” का अर्थ पहली मर्तबा समझ में आया। लगभग हर चैनल ने पूरे दिन हमारे दांतों की भरपूर घिसाई के साथ हमारे मुंह में “तंदूरी चिकन” ठूंसने में कोई कसर नहीं छोड़ी। लेकिन हाय री फितरत… हम से “तंदूरी चिकन” खाया ही नहीं गया। रही सही कसर अगले दिन कुछ अखबारों ने पूरी कर दी। दाएं-बाएं, आगे-पीछे, ऊपर-नीचे, दबी-छुपी यह खबर नजर आ रही थी। बासी कढ़ी को स्वादिष्ट बनाने के लिए मार्मिकता के कई तड़के उसमें लगाए गए थे। “तंदूरी चिकन” के इर्द-गिर्द जितना गोल-गोल खबरिया चैनल्स वाले घूम रहे थे, प्रिंट मीडिया वाले भी उससे राई-रत्ती आगे बढ़ने को तैयार नहीं थे। अपने अनुत्तरित सवालों के साथ हमने यह खबर वैसे ही दफन कर दी जैसे और कईं और खबरें की जाती हैं। सोच रहा हूं कि लाॅक डाउन खुले तो “पेट नहीं खबरों का कब्रिस्तान” लिखा एक बोर्ड तैयार कर गले में टांग लूं। शायद किसी दिन किसी खबरिया चैनल की मुझ पर भी मेहरबानी हो जाए और मैं भी “बटर चिकन” या “तंदूरी चिकन” की सी सदगति को प्राप्त हो सकूं।
खैर… अखबारों में कुछ और खबरें भी हैं। अमिताभ बच्चन, सोनू सूद, हवाई यात्रियों, चीनी सैनिकों और टिडढ़ियों से जुड़ी हुई। अमिताभ बच्चन और सोनू सूद की मुस्कुराती हुई तस्वीरें खबरों के आंशिक ब्यौरे के साथ मास्टहैड पर टंगी हैं। जिन्हें भीतरी पृष्ठों पर विस्तार से पढ़ा जा सकता है। खबरिया चैनल्स पर भी दोनों सितारों का जोरदार महिमा मंडन हो रहा है। खबरों की रेलमपेल में बच्चा कहीं गुम हो गया है। कहां गया बच्चा… किसी को पता है…?

Posted Date:

June 1, 2020

1:02 pm Tags: , , ,
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