‘कोरोना से जंग कौन लड़ रिया…’

देख तमाशा दुनिया का

आलोक यात्री की कलम से

  “लो जी कल लो बात…?” यह बात करने का कोई न्यौता था या वह सज्जन मुझे कुछ बताना चाह रहे थे? लहजा ही बड़ा अटपटा था- “लो जी… कल लो बात?” हमने गरदन मरोड़ कर चारों तरफ को देखा। ओरे-धोरे कोई नहीं था। फिर यह बात वाली “बात” किसने छेड़ी थी? अलबत्ता एक पड़ोसी अपनी छत पर खींसे निपोरता जरूर नजर आया। हमें ख्याल आया कि बात का न्यौता यह तो देने से रहा। इस घर में आने से पहले ही मेल-मुलाकात जैसे शब्द अलगनी पर टांग आया था। बात-बात में लात की धौंस अधिक देता था। अड़ोसियों-पड़ोसियों के साथ जल्दी ही हमें भी इस बात का गुमान हो गया था कि पति-पत्नी दोनों ही बात का काम हाथ और लात से ही निपटा लेते हैं। लिहाजा अपनी चारदीवारी के पार हमने नजरें दौड़ाने की हिमाकत कभी नहीं की। लॉक डाउन के बाद से दुलत्ती छाप हमारा यह पड़ोसी गाहे बगाहे छत पर नमूदार हो जाता था। उसकी हिनहिनाहट मेरी इस धारणा को और पुष्ट कर देती थी कि हो ना हो मरियल सा यह शख्स किसी तांगे का घोड़ा होगा जो बस नाक की सीध में दौड़ा चला जाता होगा। 

  इन दिनों मेरी छत और आसपास की मुंडेरों पर आने वाले पंछियों और गिलहरियों की संख्या अचानक बढ़ गई है। सूरज देवता अभी प्रकट नहीं हुए हैं लेकिन भोजनार्थी आ जुटे हैं। पड़ोस की छत से आ रही हिनहिनाहट बता रही थी कि पड़ोसी को भी चारे की सख्त जरूरत थी। उनकी हिनहिनाहट जब नाकाबिल ए बर्दाश्त हो गई तो थोड़ा तल्खी से मुखातिब होते हुए मैं पूछ ही बैठा “चारा खत्म हो गया क्या भाई साहब…”

कार्टून सौजन्य – भारत बोलेगा डॉट कॉम

  पता नहीं पड़ोसी ने क्या समझा और क्या सुना “जी… वही तो… वही तो…” कहता हुआ हाथ में अखबार लिए मेरी मुंडेर की तरफ सरक आया। भारत-पाक के से ताल्लुक दरकिनार करते हुए मैंने पूछा “क्या हुआ जनाब?”

  मेरे प्रश्न के जवाब में अपनी बात उसने फिर दोहराई ” लो जी… कल लो बात”

  माजरा समझने की गरज से मैंने पूछा “हुआ क्या…”

  “अजी होणा के है… देश में दूद की नदियां बै रीं… अच्छे दिण आन लाग रे… राम राज आ गा…” मुझे लगा कि ऊपरवाले ने सुबह-सुबह मेरे पल्ले में एक भक्त और आ टपका दिया है। जितने थे हम उनसे ही आजिज थे। हमारे स्याने मित्रों की सलाह है कि भूत और भक्त दोनों मिल जाएं तो भक्त का खैरमकदम पहले करना चाहिए। सलाह पर अमल करते हुए हमने कृत्रिम सी उत्सुकता प्रकट की- “कहां जी कहां…”

  “अजी परयाग में… लो कल लो बात” कहते हुए महाशय जी ने अखबार खोल कर खबर बांचनी शुरू कर दी “गरमी आते ही दूद की किल्लत हो जाती है। पर लैकडोन में उल्टी गंगा बै री ए। पानी से सस्ता‌ दूद बिक रो ए। भैंस का दूद अट्ठार रुपए तो गाय का दूद पंदरै रुपए लीटर बिक रा ए। कोरोना के नाइ सादी-आदी नइ हो रई एं। मिठाई की दुकानें बी बंद एं। इन दिनों दूद की मांग आधी रै गी। कोरोना के डर से लोग दुदियन से बी दूद ना ले रै। जिससे दूदियन की बी कमर टूट गी। डंगर के चारे का खरचा बी ना निकण रा …” कहते हुए पड़ोसी ने अखबार लपेट लिया। फिर अचानक बोला “लो… कल लो बात… पानी की बोत्तल बलैक में बिक री… पच्चीस-तीस रुपए लीटर… लो जी… रामराज तो आ गा… दूद की नदियां बहण लाग रीं…?”

 उसके कहे आखिरी वाक्य पर मैं अचकचा सा गया। वह मुझे बता रहा था या सवाल पूछा रहा था…? बता रहा था तो ठीक ही बता रहा था। अखबार में जो छपा है…। लेकिन अगर सवाल पूछ रहा है तो मैं क्या जवाब दूं… 

 मैं कुछ कह कर पिंड छुड़ाने की सोच ही रहा था कि उसने अखबार फिर खोल लिया। अब वह हिनहिना नहीं रहा था। “जरा यो समझाओ जी…”

आधे-अधूरे मन से हमने सहमति जताई।

हम – “जी… फरमाएं”

पड़ोसी – “बचाव के लिए मास्क, सेनिटाईज़र कौन खरीदे, किसकी जिम्मेदारी…?”

हम – “जनता…_

पड़ोसी – “दान कौन कर रिया…?”

हम – “जनता…”

पड़ोसी – “आसपास के गरीब गुरबां मजदूरों का ध्यान कौण राख रिया…?”

हम – “जनता…”

पड़ोसी – “प्रधानमंत्री केअर फंड में दान कौन कर रिया…?”

हम – “जनता…”

पड़ोसी – “दुकान के नौकर का वेतन कौण न रोकै… ?”

हम – “जनता…”

पड़ोसी – “कामवाली, माली, ड्राइवर का पैसा कौन न काटे…?”

हम – “जनता…”

पड़ोसी – “किराएदारों से किराया कौण न लेवै …?”

हम – “जनता…”

पड़ोसी – “महँगाई भत्ते की किस्त कौण रुकवावै…?”

हम – “जनता…_

पड़ोसी – “तनख्वाह कौण कटवावै…?”

हम – “जनता…”

पड़ोसी – “टैक्स कौण भरे…?”

हम – “जनता…”

पड़ोसी – “कोरोना से जंग कौण लड़ रा ए…?”

हम – “जनता…”

पड़ोसी – “ना जी… सरकार…”

(निवेदन : आप इस वार्तालाप को लतीफा मानने के लिए स्वतंत्र हैं।)

Posted Date:

May 4, 2020

4:31 pm Tags: , , ,
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