सबके अपने, सबके प्यारे चितरंजन भाई को सलाम…

वो जहां जाते थे, जिससे मिलते थे, सबके बहुत अपने हो जाते थे… उनकी सादगी और संघर्ष की कहानियां तमाम हैं… हर साथी की अपनी अपनी यादें हैं, अपने अपने अनुभव हैं… सबके लिए वो चितरंजन भाई थे.. हमारे लिए भी… गमछा गले में लपेटे या कभी कभार पगड़ी की तरह बांध लेते, पान खाते, गोल मुंहवाले बहुत ही प्यारे से लेकिन सबके संघर्ष के साथी… खुद की तकलीफों की कभी परवाह नहीं की… बातें करने से ज्यादा सुनने में भरोसा करते थे चितरंजन भाई। 

जुझारु इतने कि कभी भी, किसी भी वक्त आप उनको कहीं भी पा सकते थे। कोई भी युवा साथी हो, उसका उत्साह बढ़ाने और कामकाज की तारीफ के साथ ही उसे जीवन की सच्चाइयों से बड़े प्यार से रू ब रू कराने वाले एक अद्भुत व्यक्तित्व थे चितरंजन भाई… पीयूसीएल से भी जुड़े रहे, तमाम वामपंथी आंदोलनों से भी, साहित्य-संस्कृति की गहरी समझ और लेखन के धनी… ज़िंदगी के तमाम उतार चढ़ावों के बीच भीड़ में भी अकेले लेकिन ऐसे कि आप मिलें तो आपके बहुत अपने से चितरंजन भाई…  

मैं बहुत सालों से उनसे नहीं मिला था… ज़िंदगी की जद्दोजहद और नौकरी की मारामारी ने तमाम लोगों से फ़ासले बढ़ा दिए… लेकिन अब भी वो उतने ही जीवंत हैं, जितने तब थे…  चितरंजन भाई को तमाम साथियों ने अपने अपने तरीके से याद किया है, लखनऊ के जनसंदेश टाइम्स ने उनपर विशेष पेज भी छापा है…. कुछ साथियों की यादें 7 रंग के पाठकों के लिए….

सबसे पहले कवि और जन संस्कृति मंच के वरिष्ठ साथी कौशल किशोर की यादें….

उनका जाना जनयोद्धा का जाना है!

चितरंजन भाई (चितररंजन सिंह) के नहीं रहने की दुखद सूचना मिली। उनका जाना एक जनयोद्धा का जाना है। वे क्रांतिकारी वाम आंदोलन के साथ नागरिक अधिकार आंदोलन के भी साथी थे। पीयूसीएल के नेतृत्वकारी पदों पर रहकर नागरिक आंदोलन को आगे बढ़ाया। वे बलिया के रहने वाले थे। उनमें विद्रोही चेतना बहुत आरम्भ से रही।

मेरी पहली मुलाकात इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हालैंड हॉस्टल में एक बैठक में हुई थी। इस बैठक का आयोजन भाई रामजी राय ने किया था। उत्तर प्रदेश से जन आंदोलनों की एक पत्रिका ‘जनदिशा’ को निकालने को लेकर यह बैठक हुई थी। लखनऊ से अजय सिंह, अनिल सिन्हा के साथ मैं भी उसमें शामिल हुआ था। वहीं पहली बार चितरंजन भाई से मुलाकात हुई। आपात स्थिति के बाद उत्तर प्रदेश में जिन साथियों ने क्रांतिकारी बाम आंदोलन और क्रांतिकारी जनवाद की धारा को संगठित करने का कार्य किया, उनमें चितरंजन भाई अग्रणी साथी थे। 1980-81 के दौर में उत्तर प्रदेश में जन आंदोलन की शक्तियों को संगठित करने के प्रयास में उत्तर प्रदेश संयुक्त जनमोर्चा का निर्माण हुआ। इस मोर्चे से लेकर इंडियन पीपुल्स फ्रन्ट के गठन में उनकी भूमिका थी। वे इसके पदाधिकारी भी रहे। जहां तक मुझे याद आ रहा है वे प्रदेश के कोषाध्यक्ष चुने गए थे। तमाम आंदोलनों, धरना, प्रदर्शन, गिरफ्तारी में वे शामिल रहे। बाद के दिनों में नागरिक अधिकार आंदोलन से जुड़े और पीयूसीएल के प्रदेश के संगठन सचिव और बाद में अध्यक्ष भी बने।

चितरंजन भाई आंदोलनों के लेखक भी थे। वे नियमित रूप से ‘शान-ए- सहारा’ ‘अमृत प्रभात’ आदि अखबारों में लिखते थे। जब स्कूटर इंडिया के निजीकरण के खिलाफ आंदोलन चला, वे न सिर्फ इस आंदोलन से जुड़े बल्कि इस आंदोलन के बारे में उन्होंने ‘शाने सहारा’ में लिखा भी। इसी तरह डाला, चुर्क, चुनार के निजीकरण के खिलाफ संघर्ष से भी उनका जुड़ाव था।
बाद के दिनों में उनसे संपर्क टूट सा गया था। कभी-कभार फोन आता। वह साथीपन और आत्मीयता से भरा होता। अनिल सिन्हा के पटना में निधन के समय उनका फोन आया। साथियों की चिन्ता उन्हें रहती। जब अदम गोंडवी गंभीर रूप से बीमार हुए और लखनऊ के पीजीआई में भर्ती थे। उनका हालचाल लेने के लिए उन्होंने फोन किया और यह जानना चाहा कि इलाज के लिए क्या किया जा सकता है। उन्होंने अदम गोंडवी के अकाउंट में 10000 का सहयोग कराया। संभवत यह इंसाफ की ओर से यह सहयोग था।
चितरंजन सिंह जन आंदोलन के साथी रहे हैं। उनका जाना जनयोद्धा का जाना है।

उनके निधन भावपूर्ण श्रद्धांजलि, सलाम, लाल सलाम!

पत्रकार राजेश जोशी की यादें

“राजेश तुमने बड़ा ब्रेकथ्रू किया है…”

मेरे जनसत्ता अख़बार में रिपोर्टरी शुरू करने पर चितरंजन भाई ने पीठ ठोकते हुए कहा था. फिर लगभग दो साल बाद रिपोर्टिंग के सिलसिले में ही एक विवाद हुआ जिसमें मुझे जान से मारने की धमकी दी गई.

चितरंजन भाई उन दिनों इलाहाबाद में पीयूसीएल के संयोजक थे. उन्होंने संगठन की बैठक बुलाकर धमकी देने वालों के ख़िलाफ़ प्रस्ताव पास करवाया और पोस्टकार्ड के ज़रिए इसकी सूचना जनसत्ता अख़बार में भिजवाई.

हर प्रतिरोध, हर संघर्ष में आगे रहने वाले चितरंजन भाई जितने अकेले थे उतना अकेलापन ज़ाहिर नहीं होने देते थे. मुझे उनमें कुछ कुछ गिरदा की झलक मिलती थी. वो सबसे उतने ही अपनेपन से मिलते थे जितने अपनेपन से गिरदा मिलते थे.

तमाम तरह की पारिवारिक और शारीरिक कष्ट होने के बावजूद वो कई बार थके हुए ज़रूर दिखते थे पर हारे हुए नहीं.

उनकी अंतरंग मित्रमंडली में नक्सवादी आंदोलन से जुड़े लोग थे तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग भी. पर उन्होंने कभी इस मित्रता पर विचारधारा या विचारधारा पर मित्रता को हावी नहीं होने दिया.

जब मिलते तो घर परिवार का हाल पूछते और फिर बेहद निर्मल आत्मीयता से सवाल करते – तुम कैसे हो?

सन 2004 में बीबीसी हिन्दी रेडियो ने पूर्वी उत्तर प्रदेश में श्रोताओं से संपर्क के लिए रोडशो आयोजित किए थे. बलिया में मैं मंच संभाल रहा था कि किसी ने चुपके से आकर पीले रंग की एक पर्ची थमाई जिसमें लिखा था — तुमको सुनने आया हूँ. सबसे पीछे बैठा हूँ. चितरंजन सिंह, कैम्प -बलिया.

मैंने तुरंत माइक पर उनसे आकर मंच पर बैठने का इसरार किया. न चाहते हुए भी उन्हें मंच पर आना पड़ा और सभा को संबोधित करना पड़ा.

दिल्ली में कई बार अरुण पांडेय के घर तो कभी कटवारिया सराय में इंसाफ़ के दफ़्तर के पास डीडीए के पार्क में उनसे सुबह की सैर के वक्त कई बार अचानक भेंट हुई.

बीजेपी सांसद स्वर्गीय लालमुनि चौबे के अट्टाहसनुमा ठहाकों के बीच राम बहादुर राय, बीजेपी सांसद वीरेंद्र सिंह और चितरंजन सिंह को एक शाम मछली बनाकर खिलाना भी मुझे याद है.

और भी बहुत सारी यादें हैं…. बस सिर्फ़ यादें.

चितरंजन सिंह को उनकी सादगी, जीवट और संघर्षशील जीवन के लिए याद किया जाएगा. बार बार – हर महफ़िल में, हर परिवर्तनकामी जनांदोलन के जुलूस में और ग़रीब की हर लड़ाई में.

साथी चंद्रप्रकाश झा की यादें —

चितरंजन सिंह : अप्रतिम मानवाधिकारवादी

हम बहुत सारे लोग उन्हें भाई चितरंजन कहते थे. सच में भाई थे वे उन सबके जो जनवादी हकों के लिए लड़ते हैं.

सादगी ऐसी कि महात्मा गांधी लगते थे. लेकिन वे कम्युनिस्ट थे . एक झोला कंधे पर होता था. एक गठरी टाईप का सामान लिए जगह जगह आते जाते रहते थे. वो गठरी जिसके भी पास टिके हों वहां मिली बिस्तर पर रखी होती थी .न घर ना कोई टिकाऊ ठिकाना ।

झोला में एक कलम होती थी . कुछ सादा कागज़ होते थे जिस पर तत्काल हाथ से प्रेस रिलीज लिख कर खुद अख़बारों के दफ्तरों में विनम्र आग्रह से सौंप देते थे.

प्रेस रिलीज ऐसी जो मूलतः खबर होती थी . अख़बार वालों को भी मानवाधिकार मामलों की खबर उनकी प्रेस रिलीज से ही मिलती थी .

अख़बारों वालों के कहने पर वे गाहे बगाहे लेख भी लिख देते थे. लेख में अकाट्य तथ्य होते थे .लेख में निश्चय ही मार्क्सवादी विचारों से लैस मानवाधिकार के सरोकार होते थे.

हमारे लिए उनका यूं गुजर जाना अत्यंत दुखद है. जब तक संपर्क रहा बड़े प्यार से ढेर सारी बातें करते थे. हमने लखनऊ में जर्नलिज्म के साथ साथ
एकटीविज्म के लिए मीडिया मंच , पीपुल्स मीडिया , शहीद शंकर गुहा नियोगी श्रम पत्रकारिता पुरस्कार , यूएनआई एम्प्लोईज फेडरेशन का अखिल भारतीय सम्मेलन , उत्तर प्रदेश मानवाधिकार संयुक्त संघर्ष मोर्चा ( मानस) , अवामी मोर्चा , सेक्युलर मार्च और पत्रकारों के लिए कम्प्य़ूटर लिट्रेसी जितने भी काम किए वे सबमें साथ रहे .

उनका निधन पूरी तरह से अप्रत्याशित नहीं कहा जा सकता है.वे लंबे अरसे से बीमार थे .हाल में उनके वाईटल बॉडी ऑर्गंस फेल हो गए थे.

उनसे आखरी मुलाकात दिल्ली के एक सभागार में कुलदीप नायर को शहीद शंकर गुहा नियोगी लाई फ टाईम पुरस्कार भेंट करने के आयोजन के दौरान
संयोग से हुआ. हम यूएनआई को सुभाष चंद्रा को गैर कानूनी तरीके से बेचने के खिलाफ उसकी ट्रेड यूनियन की लड़ाई के सिलसिले में एक दिन के लिए मुंबई से दिल्ली पहुंचे थे. साथी राजेश वर्मा ने उक्त आयोजन की सूचना दी ।तो हम भी वहां चल पड़े.

आयोजन का संचालन कर रहे साथी आनंद स्वरूप वर्मा ने मंच से घोषणा कर दी कि इस पुरस्कार की स्थापना के प्रणेता भी सभागार में मौजूद है और वे यूएनआई की लड़ाई भी जीतने ही वाले हैं .

इस पर हम सकुचा कर छिप ही रहे थे कि इतने में सभागार में एक आवाज गूंजी. वो चिर परिचित आवाज चितरंजन भाई की ही थी .

वे जोर से बोले , ” कहां है ? उनको खड़ा होने कहो. आनंद स्वरूप वर्मा जी के इशारे पर हमें खड़ा होना ही पड़ा.

हमे अनगिनत लड़ाई के लिए खड़ा कर देने वाले चितरंजन भाई का हमारे बीच न होने का एहसास
बहुत कष्टकारी है. लेकिन लड़ाई तो लड़ते रहनी है.यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी .

पत्रकार उत्कर्ष सिन्हा की यादें

चितरंजन भाई को याद करना एक इतिहास याद करने के बराबर है
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चितरंजन भैया के देहावसान की खबर तो फुर्ती से सबको दे दी, मगर उसके बाद मेरे शरीर का मानो रक्त ही निचुड़ने लगा ।

स्मृतियों के जंगल मे चितरंजन भाई से मिल रहा हूँ ।

वो सन 2003 की सर्दियों की एक शाम थी जब चितरंजन भैया से लखनऊ के काफी हाउस में मिलना तय था । मैं गर्म जैकेट मफलर से पैक हो कर बाहर इंतज़ार कर रहा था। वे दिखे एक सूती कमीज में ठिठुरते हुए । मैने कहा- स्वेटर क्यों नही पहने ? इतनी सर्द हवा लगेगी तो बीमार हो जाएंगे .

जवाब मिला – अरे में तो घर से जैकेट पहन के निकला था, मगर जिस रिक्शेवाले के साथ यहां आया उसके पास स्वेटर भी नही था तो मैंने अपना जैकेट उसे दे दिया । सोचा मेरे पास तो उत्कर्ष है दूसरा खरीद देगा , उस रिक्शेवाले का क्या होगा ?

स्वभाव से फक्कड़ चितरंजन भाई दिल के बादशाह थे ।

जवानी की दहलीज पर अगर आपको चितरंजन भाई सरीखा मिल जाए तो जिंदगी किस कदर बदल सकती है ये मुझे खूब पता है । इकहरे बदन में सम्वेदना और ऊर्जा का ज्वालामुखी थे भैया । करीब 25 सालों तक लगातार संपर्क बना रहा । अगर ये कहा जाए कि भारत मे मानवाधिकार के संघर्ष का पर्यायवाची खोजो तो वो चितरंजन सिंह मिलेगा ।

ढेरो यात्राएं की उनके साथ, हमेशा एक छोटे बैग से ज्यादा कुछ नही रहा उनके साथ । मगर उसमे भी कॉपी और कलम जरूर रही। कहीं भी बैठ के अखबारों के लिए कालम लिखने के वास्ते ।
हाँ एक मजबूत मकसद हमेशा रहा उनके साथ, वंचितों और मजलूमो के हक की लड़ाई लड़ने का मकसद।

नेपाल और भूटान की 7 दिन की अविस्मरणीय यात्रा में हम दोनों के साथ आनंद स्वरूप वर्मा, वीरेन्द्र सेंगर, डॉ सुनीलम और विनोद अग्निहोत्री साथ रहे।

स्वर्गीय अग्रज धर्मेंद्र राय का कहना ठीक ही था – जवानी में जब हम लोग चितरंजन सिंह को देखते तो सोचते थे चंद्रशेखर आज़ाद ऐसे ही रहे होंगे ।

बलिया की मिट्टी ही बागी है । चितरंजन भाई इस बात के उदाहरण रहेंगे ।

जाने माने पत्रकार शेष नारायण सिंह की श्रद्धांजलि..

चितरंजन सिंह चले गए। हर सही बात के लिए तन कर खड़ा हो जाना उनकी प्रकृति का स्थाई भाव था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में जो लोग भी उनके साथ रहे, उनकी इज़्ज़त करते हुए जीवन मे आगे बढ़े, सभी जीवन मूल्यों के प्रति जागरूक लोग हैं।

अपनी ज़िंदगी को ईमानदारी से जी लेने वाले बहुत लोगों को मैंने देखा है। कॉमरेड चितरंजन सिंह की खासियत यह थी कि उनके साथ जो व्यक्ति किसी संघर्ष में शामिल हो गया , वह एक जागरूक नागरिक और ईमानदार इंसान बन जाता था।

आपको क्रांतिकारी सलाम, कॉमरेड चितरंजन सिंह जी…

Posted Date:

June 27, 2020

12:04 pm Tags: , , , , , , , , , , , , , , , ,
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