निष्पक्ष पत्रकारिता और संवेदनशीलता के पर्याय थे अतुल माहेश्वरी

हिन्दी पत्रकारिता बेशक आज एक चुनौती भरे दौर से गुजर रही हो, मीडिया का स्वरूप बदल गया हो और तमाम मीडिया संस्थानों ने अपनी कार्यशैली बदल दी हो, लेकिन अमर उजाला एकमात्र ऐसा मीडिया समूह है जिसने अपने मूल्यों से कभी समझौता नहीं किया। न सियासत के बदलते रंगों और सत्ता के इर्द गिर्द खबरें बुनने और परोसने की दौड़ में यह संस्थान कभी रहा और न ही कभी संपादकीय स्वायत्तता पर यहां कोई अंकुश लगा। जाहिर है इसके पीछे अखबार को इस मुकाम तक ले आने वाले इसके मैनेजिंग डायरेक्टर और एडिटर इन चीफ रहे अतुल माहेश्वरी के योगदान को कभी भूला नहीं जा सकता।

आज बेशक अतुल जी को गए ग्यारह साल गुज़र गए हों लेकिन संस्थान को जिस ऊंचाई तक वो लेकर आए और पत्रकारिता के मानदंड स्थापित किए उसे समूह के मौजूदा चेयरमैन राजुल माहेश्वरी और माहेश्वरी परिवार की नई पीढ़ी ने बेहद संज़ीदगी से आगे बढ़ाया है।

इस संस्थान की सबसे बड़ी पूंजी है माहेश्वरी परिवार की सहृदयता और पूरे संस्थान को एक परिवार की तरह ले चलने की परंपरा। इस परंपरा की नींव रखने वाले बेहद संतुलित, संवेदनशील और धैर्यवान अमर उजाला के संस्थापक स्वर्गीय मुरारीलाल माहेश्वरी यानी अतुल जी के आदरणीय पिता जी को मैंने बगैर थके, ऊबे और लगातार मुस्करा कर काम करते हुए कई सालों तक देखा है। मेरठ संस्करण शुरु होते ही हम इस टीम से जुड़ गए थे और अतुल भाईसाहब के कामकाज के साथ साथ पिता जी की सहृदयता को भी देखने का मौका मिला था। आगरा और बरेली में अपनी जबरदस्त धमक और पहचान बनाने वाले इस समूह का मेरठ तीसरा संस्करण था। और अतुल जी ने जो टीम बनाई थी, उसने पत्रकारिता के नए मुकाम हासिल किए।

मुझे याद है 1987 के मेरठ दंगे और उस दौरान अमर उजाला की निष्पक्ष और संवेदनशील पत्रकारिता। अतुल भाईसाहब के साथ हमसब कई कई दिनों तक अपने मोहकमपुर वाले दफ्तर में रहे, करीब छह महीनों तक कर्फ्यू से सहमे शहर और दंगाइयों की हैवानियत के बीच अमर उजाला ने इंसानियत और संतुलित की जो मिसाल पेश की उसे आज भी याद किया जाता है। तमाम राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय पत्रकार मेरठ, मलियाना, हाशिमपुरा कवर करने आते तो सबसे पहले अमर उजाला आते, हमसब उनकी पूरी मदद करते, उन्हें अपने अखबार की कवरेज उपलब्ध कराते और हरेक पत्रकार से अतुल जी खुद मिलते। इस दौरान हमने अतुल जी की पत्रकारीय दृष्टि को करीब से देखा, समझा। इसके बाद तो कई ऐसे मौके आए। चाहे वो टिकैत का किसान आंदोलन हो या फिर बाद के दिनों में राम जन्मभूमि आंदोलन या फिर बाबरी मस्जिद ध्वंस के दौर की पत्रकारिता, अतुल जी ने अपनी देख रेख में पत्रकारिता के मूल्यों से कभी समझौता नहीं करने दिया और ज़मीनी हकीकत बगैर किसी डर या दबाव के पाठकों के सामने आने दिया। दिल्ली ब्यूरो में दस साल रहते हुए हमने संपादकीय आजादी और पत्रकारिता की निष्पक्षता का वह दौर देखा जब तमाम अखबारों पर एकतरफा रिपोर्टिंग करने के आरोप लगे, विज्ञापनों के लिए सत्ता के दबाव में काम करने का ठप्पा लगा और प्रेस काउंसिल ने तमाम अखबारों को कठघरे में खड़ा किया, ऐसे में अमर उजाला की निष्पक्षता के लिए इसकी तमाम मंचों पर तारीफ होती रही। यहां तक कि मुलायम सिंह और मायावती की सरकारों में भी कई बार ऐसे मौके आए जब अखबार के विज्ञापन रोक दिए गए, बहिष्कार किया गया, सरकार के अंध समर्थकों ने प्रतियां जलाईं, लेकिन अतुल जी ने कभी समझौता नहीं किया और आखिरकार ये नेतागण खुद ही आगे आकर दोस्ती का हाथ बढ़ाने लगे। अमर उजाला ने किसी नेता, मुख्यमंत्री, पार्टी या सरकार के आगे न तो कभी घुटने टेके और न ही अपनी संपादकीय टीम को कभी शर्मिंदा होने का मौका दिया। हमेशा अपने संपादकीय टीम के साथ प्रबंधन खड़ा रहा और खासकर अतुल माहेश्वरी ने इस परंपरा को अपनी आखिरी सांस तक बरकरार रखा।

आज जब हम उन्हें याद करते हैं तो उनकी वो तमाम बातें, जीवटता और संस्थान के हर कर्मचारी के परिवार के साथ पूरी संवेदनशीलता के साथ खड़े होना याद आता है। उनके लिए संस्थान का हर कर्मचारी परिवार के सदस्य सरीखा रहा, चाहे आर्थिक मदद हो या फिर सुख दुख का कोई भी मौका, अतुल जी और अब राजुल जी के साथ तन्मय और वरुण माहेश्वरी भी इस परंपरा को बरकरार रखते हुए इस संस्थान को लगातार ऊंचाइयों पर ले जा रहे हैं। ये अतुल जी का ही करिश्मा था कि उनमें पत्रकारीय दृष्टि के साथ साथ साहित्य औऱ संस्कृति की भी उतनी ही समझ थी और हर किसी की बात को गौर से सुनने, समझने का हुनर था, अपने हर कर्मचारी को अच्छे बुरे की पहचान कराते हुए उसे समझाने और अपने साथ जोड़े रखने की आत्मीयता थी। वह हर किसी के आत्मसम्मान की कद्र करते थे और काम करने की पूरी आज़ादी देते थे।

बेशक जब अतुल जी गए तो संस्थान तमाम उपलब्धियों के बावजूद कई तरह के संकटों में था, अतुल जी बेशक ऊपर से कुछ जाहिर न होने देते थे लेकिन उनके भीतर का तनाव उन्हें परेशान करता रहता था। मैं जब आजतक और इंडिया टीवी के बाद ज़ी न्यूज़ में रहा तब भी लगातार उनसे बात होती थी, कई बार मिलता भी रहता था। वो लगातार कहते अब तो बहुत दिन टीवी की दुनिया देख ली, चाहो तो लौट आओ। उन्हें यह हमेशा याद रहता जब हमने शायद 1993-94 में अमर उजाला टीवी का एक प्रोजेक्ट बनाया था और इसपर उन्होंने आगे काम करने को भी कहा था, लेकिन किसी वजह से वह पूरा नहीं हो सका। जब मिलते तो कहते, अब तो तुम पूरी तरह टीवी सीख चुके हो, यहीं फिर से कुछ करते हैं। जब मैं पहली बार 1997 में टीवीआई (बिजनेस इंडिया टीवी) जा रहा था, तब भी उन्होंने कहा जाओ, थोड़ा सीख आओ, जब मन न लगे वापस आ जाना। और वहां की अंदरूनी हालात देखकर मैं चार ही महीने में लौट आया था। 1989 में जब मैं मेरठ छोड़कर दिल्ली जाने की जिद करने लगा, तब भी उन्होंने कहा, अच्छा जाओ, लेकिन जब चाहो लौट आना। दिल्ली चौथी दुनिया के बाद जब स्वतंत्र भारत कानपुर शुरु करने हम गए और वहां एक साल रहने के बाद मैंने इस्तीफा दे दिया, तब भी अतुल जी ने तुरंत फोन किया और फौरन वापस आने को कहा। मेरी दिल्ली ब्यूरो में रिपोर्टिंग करने की इच्छा वो जानते थे और आखिरकार उन्होंने मुझे दिल्ली भेजा और खुलकर काम करने का मौका दिया। चाहे फीचर डेस्क हो, संपादकीय पन्ना हो, पहला पेज हो, प्रादेशिक डेस्क हो या फिर खेल-कारोबार का पेज, हर जगह उन्होंने पूरी आजादी के साथ काम करने को कहा और हमने उस दौरान कई यादगार पेज भी निकाले। अतुल जी पूरे संपादकीय टीम के साथ उन पेजों की तारीफ करते और पूरे भरोसे के साथ कई अहम ज़िम्मेदारियां देते। जाहिर है, अमर उजाला ने एक रंगकर्मी और संस्कृतिकर्मी को अपनी संस्कृति और परिवार का ऐसा हिस्सा बना लिया कि मेरे लिए किसी और अखबार में जाने का कभी ख्याल तक नहीं आया। टीवी के लिए ज़रूर मैंने करीब 17 साल अलग अलग चैनलों में काम किया और बहुत कुछ सीखा, लेकिन जो अतुल भाईसाहब ने सिखाया, वह हमेशा के लिए हमारे लिए एक पूंजी की तरह है। वह लगातार याद रहते हैं, हमारे भीतर कहीं धड़कते हैं एकदम अपने बड़े भाई की तरह। उन्हें सादर नमन।

—   अतुल सिन्हा

Posted Date:

January 3, 2023

3:19 pm Tags: , , ,
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