जब सैयद हैदर रज़ा ने कहा – मैँ गांधी के भारत को छोड़ नहीं सकता था
नई दिल्ली 12 मार्च। पद्म विभूषण से सम्मानित प्रसिद्ध चित्रकार सैयद हैदर रज़ा का अपने जीवन पर गांधी जी का इतना प्रभाव पड़ा था कि विभाजन के बाद वह पाकिस्तान न जाकर भारत में ही रह गए थे जबकि उनकी पहली पत्नी पाकिस्तान में जाकर बस गयी थी। हिंदी के प्रसिद्ध कवि एवं संस्कृति कर्मी अशोक वाजपेयी ने यहां रज़ा पर अपनी पुस्तक सेलिब्रेशन एंड प्रेयर के विमोचन समारोह में यह बात कही।
उन्होंने कहा कि एक बार मैंने रज़ा साहब से पूछा था कि आप विभाजन के बाद पाकिस्तान क्यों नहीं बसे जबकि आपकी पहली पत्नी वहां चली गई तो उन्होंने कहा कि मैं भला गांधी जी के देश को कैसे छोड़ सकता हूं इसलिए मैंने भारत में ही रहने का फैसला किया। वाजपेयी ने बताया कि जब रज़ा साहब 8 वर्ष के थे तो गांधी जी एक बार मंडला आए थे और वहाँ उनकी एक सभा हुई थी जिसमें रज़ा साहब गांधी जी को देखने गए थे। रज़ा साहब को तो बाद में यह याद नहीं रहा कि गांधी जी ने तब क्या कहा था लेकिन गांधी जी का उनके जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा और यही कारण है कि जब विभाजन हुआ तो वह पाकिस्तान जाकर नहीं बसे।
पुस्तक में श्री वाजपेयी ने लिखा है कि रज़ा साहब जब भी पेरिस से भारत आते थे तो वे सबरमती ,सेवाग्राम और राजघाट जरूर जाते थे। इस किताब में इस बात का भी जिक्र किया गया है कि एक बार लंदन में जब गांधी जी की प्रतिमा लगने वाली थी तो रज़ा साहब ने उसके लिए 10 लाख रुपए भी दिए थे।
अशोक वाजपेई ने बताया कि रज़ा साहब एक आधुनिक कलाकार थे लेकिन उनकी आधुनिकता एक वैकल्पिक आधुनिकता थी। उस आधुनिकता में अकेलापन या निराशा या विस्थापन अलगाव या तनाव नहीं था बल्कि उसमें एक सद्भाव प्रेम, उल्लास और शांत जीवन था ।उनकी आधुनिकता का संबंध भारतीय परंपरा से भी था और इसलिए उनकी आधुनिकता एक तरह की वैकल्पिक आधुनिकता थी।
उन्होंने बताया कि रज़ा साहब आध्यात्मिक स्वभाव के व्यक्ति थे जबकि मैं नास्तिक व्यक्ति था। लेकिन हम दोनों के बीच अक्सर मुलाकात और बातें होती रहती थी। मैंने उनके 80 वें जन्मदिन पर एक कविता भी लिखी थी।
वाजपेयी ने कहा कि “ मैं पहली बार रज़ा साहब से मुंबई में मिला था और उसके बाद वह भोपाल भी आए थे. मैंने उन्हें अपना कविता संग्रह पहली बार भेंट किया था। वे हिंदी कविता के प्रेमी व्यक्ति थे। उन्हें मेरी कविता माँ मैं लौटूंगा तो क्या लाऊंगा बहुत पसंद थी।
उन्होंने बताया कि “जब मैं सेंट स्टीफंस कॉलेज में पढ़ता था और भारतीय प्रशासनिक सेवा की परीक्षा के लिए तीसरी बार प्रयास कर रहा था तो मेरे मन मे यह ख्याल आया कि अगर मैँ इस बार भी आईएएस नहीं बना तो अपनी मां को लौटकर क्या दूंगा। उन्होंने बताया कि जब वह आईएएस का इम्तिहान दे रहे थे तो परीक्षा हाल में ही यह कविता उनके भीतर फूट पड़ी और वे वहीं लिखने लगे थे और तब इनविजीलेटर ने मुझसे पूछा कि आप यहां परीक्षा में क्या लिख रहे हो क्योंकि उसे आश्चर्य हुआ कि मैं परीक्षा हॉल में एक कविता लिख रहा हूं। बाद में रज़ा साहब ने मेरी मां कविता को एक नया अर्थ दिया और उसमें व्यक्त माँ को भारत माता के प्रतीक के रूप में पेश किया।
इंडियन एक्सप्रेस की पत्रकार वंदना कालरा ने जब उनसे पूछा कि उन्होंने किताब का शीर्षक ऐसा क्यों रखा तो वाजपेयी ने बताया कि उन्होंने यह किताब लिखी नहीं है बल्कि यह लिख दी गयी है मतलब उन्होंने रज़ा के शो के जो कैटलॉग लिखे थे, जो लेख लिखे और पेरिस में जो इंटरव्यू लिया था सबको मिलाकर एक किताब बन गयी है। रज़ा साहब जीवन के उल्लास और इबादत के व्यक्ति थे इसलिए ऐसा नाम रखा गया। वाजपेयी ने बताया कि पेरिस से जब रज़ा साहब लौटे तो उनकी उम्र 90 से अधिक थी और उन्होंने साढ़े 5 सालों से 500 से अधिक चित्र बनाये।वे रोज़ पेंटिंग करते थे। उनकी कार्य क्षमता हैरत में डालनेवाली थी।
विमल कुमार की रिपोर्ट
Posted Date:March 12, 2025
10:46 pm Tags: अशोक वाजपेयी, रज़ा फाउंडेशन, सैयद हैदर रज़ा, Raza Foundation, Ashok Vajpayee book, Celebration & Prayer