दो-तीन साल पहले जब फिरोज अहमद खान ने बॉलीवुड की बेहद चर्चित फिल्म मुगले आजम’ को रंगमच पर पेश किया तो न सिर्फ फिल्म प्रेमियों को के. आसिफ की उस बहुचर्चित फिल्म की याद फिर से आई बल्कि नाटक की दुनिया में भी उसे एक नए प्रयोग के रूप मे देखा गया। शायद उसी से प्रेरणा लेकर राजीव गोस्वामी ने पिछले हफ्ते जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम के विशाल ऑडिटोरियम में
उमराव जान अदा’ को मंच पर पेश किया जिसमें संगीत सलीम और सुलेमान मर्चेंट का था। उमराव जान अदा’ नाटक मिर्जा हादी
रूस्वा’ के उस संस्मरणात्मक उपन्यास पर आधारित है जो उन्नीसवीं सदी के अंत में लिखा गया था।
उमराव जान’ पर दो फिल्मे बन चुकी हैं। पहली तो 1981 मुजफ्पऱ अली ने बनाई थीं जिसमें मुख्य किरदार रेखा थीं। इसमें कई गाने थे लेकिन
इन आंखों की मस्ती के मस्ताने हजारों हैं’ इतना लोकप्रिय हुआ था कि आज भी लोगों के लबों पर अनायास ही आ जाता है। दूसरी फिल्म 2006 में बनाई थी जेपी दत्ता ने जिसमें उमराव जान की भूमिका में ऐश्वर्या राय थी। इन दोनों फिल्मों की वजह से भी और मूल कथा में नाटकीयता के कारण भी उमराव जान के चरित्र का जादू बरकरार रहा। और जब नाटक के रूप में भी उमराव जान मंच पर आ चुका है तो ये सवाल
भी उठेगा कि क्या रंगमंच पर भी वही जादू आ पाया जो फिल्मों में था। खासकर मुजफ्फर अली वाली फिल्म में।
जवाब है- नहीं। नाटक में भव्यता थी, संगीत भी बहुत अच्छा था लेकिन जादू गायब था। अच्छे संगीत की वजह से इसमें एक कर्णप्रियता थी। पर प्रभावशाली नाटकीयता नहीं थी। वो जो मंच पर दर्शकों को बांधती है। हालांकि निर्देशक ने अपनी तरफ से पूरी तैयारी की थी। सेट डिजाइन से लेकर वस्त्र सज्जा में कल्पनाशीलता थी।
कोरियोग्राफी भी बेहतर थी जिसके कारण नृत्य भी अच्छा था। पर वो क्या था जिसकी वजह से जादू गायब हो गया? एक तो इसका कारण शायद ये था कि मुगले आजम’ की कहानी में वो जबरदस्त नाटकीयता है जिसकी और आम आदमी आज भी खींचा चला आता है। उमराव जान की कहानी में भी नाटकीयता है लेकिन मुगले आजम जैसी नही। और उमराव जान पर जो दोनों फिल्मे बनीं उसमें संगीतवाला पक्ष की ज्यादा उभरा और दूसरे नाटकीय पक्ष कुछ हद तक नेपथ्य में रहे। उसका असर इन नाट्य प्रस्तुति पर भी रहा। दूसरा कारण ये है कि जिस बड़े ऑडिटोरियम में
उमराव जान अदा’ खेला गया उसमें दर्शक अभिनेताओं और अभिनेत्रियों का चेहरा नहीं देख पाते।
पश्चिम में भी इस तरह के नाटक होते है पर वहां दर्शकों के लिए खास तरह का दूरबीन होता है जिसमें अभिनेता के चेहरे पर आनेवाली बारीक बदलाव हॉल मे बैठे को दिखाई पडते हैं। ये समस्या मुगले आजम’ की प्रस्तुति के समय भी महसूस की गई थी। लेकिन उस फिल्म का मिथक दर्शकों पर इतना हावी है कि इस पहलू की तरफ ज्यादा लोगों का ध्यान नहीं गया।
उमराव जान’ नाम की फिल्में उस तरह से लोगों के दिलो दिमाग पर हावी नहीं रहीं, इसलिए ये समस्या अधिक अखरी।
दूसरे मुगले आजम’ में डॉयलाग काफी प्रभावशाली रहे हैं। लेकिन
उमराव जान’ के डायलाग लोगों की जुबां पर नहीं है। दर्शक कई बार वे संवाद बार बार सुनना चाहते हैं जिनके वे दीवाने रह चुके हैं या जिनके बारे में उन्होंने कभी अपने बाप-दादाओं से सुना था। ऐसे में अगर आप उमराव जान पर नाटक कर रहे हैं तो इन पहलुओं पर ध्यान जाना चाहिए। अगर यही नाटक कमानी सभागार या किसी और ऑडिटोरियम में होता तो दर्शक इससे ज्यादा जुड़ाव महसूस करते। भव्यता का भी अपना व्याकरण होता है। जरूरी नहीं कि अगर बाहुबली’ चल जाए तो
‘ठग्स ऑफ हिंदुस्तान’ भी धूम मचा दे।
August 13, 2019
4:07 pm Tags: Umrao Jaan Musical, Salim Marchant, Suleman Marchant, Salim Suleman, Umrao Jaan in Delhi