जेपी का सपना: नज़रिया अपना अपना…

11 अक्तूबर को कई जानी मानी हस्तियों के जन्मदिन के लिए याद किया जाता है। मीडिया के ज्यादातर प्लेटफॉर्म बॉलीवुड और महानायक के दायरे से बाहर नहीं निकलते और उनकी कहानियों और सफ़रनामे के दिलचस्प पहलुओं को अपने अपने अंदाज़ में दिखाते हैं। नानाजी देशमुख को सरकारी तंत्र याद कर रहा है। इसी दौरान मंच पर एक कोने में जयप्रकाश नारायण की भी तस्वीर है और मोदी जी अपने भाषण में जेपी का भी ज़िक्र करके उन्हें याद कर लेते हैं। आम तौर पर जन्मदिन, जन्मशती या जयंती जैसे आयोजन कुछ कुछ ऐसे ही होते हैं। फेसबुक और सोशल मीडिया के तमाम मंचों पर भी सब अपने अपने तरीके से इन शख्सियतों को याद कर रहे हैं। 7 रंग के पाठकों के लिए हम ऐसा कोई विशेष आयोजन नहीं करने जा रहे, लेकिन इन तीनों ही शख्सियतों के बारे में कुछ नया बताने की कोशिश ज़रूर कर रहे हैं। बिहार के एक प्रमुख अखबार प्रभात ख़बर ने जेपी पर एक बेहतरीन पेज छापा है तो जेपी के करीब रहे और उनके संपूर्ण क्रांति के सपनों के साथ कई सामाजिक कामों में लगे जेपी आंदोलन के कई किरदार भी किसी न किसी रूप में उन्हें याद कर रहे हैं।

सबसे पहले फेसबुक पर लिखे कुमार कलानंद मणि के कुछ पोस्ट साझा करते हैं। कुमार कलानंद मणि जेपी आंदोलन के दौरान बिहार में बेहद सक्रिय रहे थे, छात्र-युवा संघर्ष वाहिनी के नेता थे और अपना पूरा जीवन उन्होंने जेपी के दर्शन के साथ काम करने में लगा दिया। फिलहाल वो गोवा में पीसफुल सोसाइटी नाम का स्वयंसेवी संगठन चलाते हैं। उनके दो पोस्ट पढ़िए… शीर्षक हमने बदल दिया है 

एक संवेदनशील और मज़बूत व्यक्तित्व के धनी थे जेपी

आज जे.पी. का जन्मदिन है। आज के ही दिन सिताबदियारा नामक गांव में उनका जन्म हुआ था। अपने जीवनकाल में वे सामाजिक व राजनीतिक क्षेत्र के शीर्ष पर पहुँचे। सत्ता का शीर्ष स्थान तो कई बार उन तक चल कर पहुंचा लेकिन कभी भी वे इसके प्रति आकर्षित नहीं हुए। उनकी राजनीति खुद सत्ता में बैठने की नहीं थी बल्कि जनता की शक्ति से सत्ता को नियंत्रित रखने की थी। लोकतांत्रिक मूल्यों को अजेय रखने की उनकी राजनीति में विश्वास न तो उनके एक समय के अभिन्न सहकारी लोहिया जी में थी और न हीं उनके 1977 के अनुयायियों में थी। इसमें समाजवादी, सर्वोदयी और वाहिनी भी शामिल है। उनके जीवन में एक वह समय भी आया जब पूरा भारत उनकी सुनता था। सत्ता का शीर्ष स्थान उनके सामने नतमस्तक होता था। लेकिन अपने मूल राजनीतिक आस्था से जयप्रकाश कभी अडिग नहीं हुए। वह यह कि लोकतंत्र में  सत्ता नहीं जनता सर्वोपरी है।

जयप्रकाश के शब्दकोष में लोभ, मत्सर, अहंकार, और दुश्मन शब्द बिल्कुल नहीं थे। नम्रता, वात्सल्य, सहजता, सुसभ्यता, सादगी, साथीपना, अध्ययनशीलता, विचारशीलता और दृढ़ता- यही उनकी संपत्ति थी। लोहिया जी ने राजनीतिक कारणों से उनकी घोर आलोचना की। इसके बावजूद मैंने उन्हें लोहिया जी की याद में रोते/ बिलखते देखा। इंदिरा जी के साथ का उनका संघर्ष सर्वश्रुत है। लेकिन अपनी भतीजी जैसी इंदिरा के प्रति उनका स्नेह भाव अंत तक कायम रहा। सार्वजनिक रूप से उन्होनें हमेशा “इंदिराजी” के रूप में ही उन्हें संबोधित किया। 1977 के चुनाव में कांग्रेस की जबरदस्त हार के बावजूद अपनी सहानुभूति प्रकट करने इंदिरा जी के घर पर जाने में उन्होंने कोई देरी नहीं की। बेलछी हत्याकांड के बाद इंदिरा जी पटना आकर जयप्रकाश जी से मिली थीं। तब जयप्रकाश जी ने इस बात का भरपूर ध्यान रखा कि महिला चर्खा समिति के अहाते में उन्हें पूरा सम्मान मिले और कोई परिंदा भी उनके विरूद्ध कोई नारा नहीं लगाए । 1974 के आंदोलन के समय उनमें और विनोबा जी के बीच वैचारिक दूरी बढ़ी। लेकिन बाबा विनोबा के प्रति आदर का भाव उनमें अक्षुण्ण रहा। अपमान या अहंकार से उनका दूर दूर का रिश्ता नहीं था। एक बार वाहिनी के कुछ साथियों ने उन्हें एक कार्यक्रम में जाने से रोक दिया। वे हत्प्रभ व व्यथित हुए। इस दुस्साहस के लिए वाहिनी को दंडित करने के बजाय वाहिनी के मित्रों के साथ संवाद कर एक दूसरे की भूमिका समझने व समझाने में वे तत्पर रहे।

अपने सहकर्मियों/कार्यकर्ताओं के प्रति उनकी संवेदनशीलता बेमिसाल थी। इसकी इतनी कहानियां हैं कि लिखने में दिनों बीत जाएंगे। किसी कार्यकर्ता की परेशानी के बारे में अपनी जुबान खोलने से पहले मदद स्वरूप उनका हाथ पहले बढ़ता था। उनका हृदय एक तरफ इतना नाजुक था कि उनको कई बार बिलखते हुए देखा, जबकि उनकी चट्टानी दृढ़ता भी अतुलनीय थी ।

वे नास्तिक थे। लेकिन अपनी आस्था के लिए कभी किसी को हतोत्साहित नहीं किया और न ही उसकी अवहेलना की । 1977 में पुट्टपार्थी साईंबाबा ने खुद मुंबई जाकर एक अंगूठी पहनाई ताकि जयप्रकाश जी स्वस्थ रहें। कुछ नजदीकीयों ने उनकी इस सदाशयता पर सवाल भी किए। प्रभावती जी के निधन के बाद हरिनाम जप के शेष बचे दिनों को उन्होंने पूरा किया। इस पर जब उनके अभिन्न साथी एस.एम.जोशी जी ने आश्चर्य प्रकट किया तो उन्होने कहा कि मैं प्रभावती के अधूरे व्रत को पूरा कर रहा हूं ।

संपूर्ण क्रांति जयप्रकाश जी का सबसे बड़ा व्रत था। चलिए, हम सब उनके इस अधूरे व्रत को पूरा करने का फिर संकल्प करें, यही इस महामानव के प्रति ईमानदार श्रद्धांजलि होगी ।

ब्रह्मचर्य के सबसे बड़े प्रतीक थे जेपी

यह सर्वविदित है कि जयप्रकाश जी की शादी अग्रणी स्वातंत्र्य सैनिक, वरिष्ठ अधिवक्ता तथा चंपारण सत्याग्रह के समय से गांधीजी के साथी ब्रजकिशोर बाबू की पुत्री प्रभावती जी से हुई थी । शादी के तुरंत बाद जयप्रकाश उच्च पढ़ाई करने अमरीका चले गए, और प्रभावती बा तथा बापू की बेटी बनकर उनके साथ रहने लगीं । कुछ साल बाद जयप्रकाश जब भारत लौटे तो उनपर मार्क्सवादी विचारों का प्रभाव हो चुका था । इस बीच बा और बापू के विचारों से प्रभावित होकर ” बिना पति की सम्मति ” के प्रभावती जी ने आजीवन ब्रम्हचर्य का पालन करने का निश्चय कर लिया था। जयप्रकाश प्रभावती जी से मिलने गांधीजी के पास उनके आश्रम में गए। जयप्रकाश आश्रम पहुंचने तक अपनी पत्नी के निर्णय से बेखबर थे। पहले वे बापू से मिलते हैं। बापू उनसे उनकी शिक्षा, अमरीकी जीवन, मार्क्सवाद आदि पर प्रदीर्घ चर्चा कर बहुत प्रभावित होते हैं। अंत में बापू ही जयप्रकाश को थोड़ी दबी आवाज में बताते हैं कि “प्रभावती ने आजीवन ब्रम्हचर्य पालन करने का निर्णय लिया है। तुम्हें दूसरी शादी कर लेनी चाहिए।” यह सुनकर जयप्रकाश भावुक हो गये। उन्होंने दृढ़ आवाज में कहा कि “बापू मैं मार्क्सवादी हूँ, लेकिन अधर्मी नहीं। मैं प्रभावती के निर्णय का सम्मान करता हूँ। आज तक पत्नी पति के लिए व्रत करती रहीं हैं, लेकिन आज से मैं मेरी पत्नी के व्रत में शामिल हूँ।” जे.पी. दूसरी शादी करने के बजाय आजीवन प्रभावती जी के साथ एक आदर्श साथी के रूप में रहे।

जब प्रभावती जी मुंबई के अस्पताल में मृत्यु शैय्या पर थीं तब विमलाताई ठकार उनसे मिलने गयीं थीं। दीदी ने उन्हें बताया कि “ब्रम्हचर्य का व्रत तो मेरा था लेकिन निभाया जे.पी. ने। उन्होंने कभी भी आंखों के इशारे से भी यह एहसास तक नहीं होने दिया कि मैने एकतरफा निर्णय कर उन पर कोई ज्यादती की”।

भारत के धार्मिक जीवन के इतिहास में इतने उच्च कोटि के ब्रम्हचर्य का या एक पति के महानतम नारीवादिता का शायद ही कोई दूसरा उदाहरण है। इसका सबल प्रमाण 1975 में चंडीगढ़ जेल से लिखी जे.पी. की कविता भी देती है ।

और अब आपके लिए दो साल पहले एनडीटीवी इंडिया की वेबसाइट पर लिखा गया एक लेख जो जेपी पर होने वाली सियासत  को सामने लाता है

सिर्फ सियासी फायदे के लिए याद आते हैं जेपी

नई दिल्‍ली: आपातकाल की बरसी के आस पास जयप्रकाश नारायण अनिवार्य हो जाते हैं। उसके बाद वैकल्पिक हो जाते हैं और फिर धीरे-धीरे गौण। चुनाव आता है तो भ्रष्टाचार के प्रतीक बन जाते हैं और चुनाव चला जाता है कि तो उन्हें छोड़ सब भ्रष्टाचार के मामलों में बचाव करने में जुट जाते हैं।


जयप्रकाश नारायण हमारी राजनीति में वक्त बेवक्त काम आते रहते हैं। सार्वजनिक रूप से इतिहास को ऐसे ही देखा जाने लगा है। केंद्र सरकार ने फैसला किया है कि जय प्रकाश नारायण के गांव में एक मेमोरियल बनेगा और उनके नाम से गया ज़िले में एक इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट भी बनेगा।
जेपी का गांव सिताब दियारा अपने आप में अनोखा है। इस गांव के हिस्से में दो नदियां आती हैं। गंगा और घाघरा। इस गांव का कुछ हिस्सा यूपी में और कुछ बिहार में आता है। इस गांव का अलग-अलग हिस्सा तीन ज़िलों में आता है। 32 टोलों के इस गांव की आबादी करीब 40,000 हज़ार बताई जाती है।
जय प्रकाश नारायण का जन्म सिताब दियारा के 32 टोलों में से एक लालापुरा टोला में हुआ था लेकिन बाढ़ के बाद वे उत्तर प्रदेश के हिस्से वाले सिताब दियारा में आ गए और वहीं रहे। इस हिस्से में उनके नाम से पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने एक जेपी ट्रस्ट बनाया था। इस ट्रस्ट की इमारत काफी ठीकठाक है। इसमें जेपी की किताबें, तस्वीरें, कुर्सी, बिस्तर वगैरह कई निजी चीज़ें रखी हुई हैं। जब तक चंद्रशेखर ज़िंदा थे तब तक यहां 11 अक्तूबर को हर साल मेला जैसा लगता रहा जिसमें कई बड़े नेता जमा होते रहे। अब इस ट्रस्ट पर उन्हीं के परिवार के रविशंकर सिंह पप्पू का कब्ज़ा है जो इस वक्त बहुजन समाज पार्टी से विधान पार्षद है।

           (चंद्रशेखर के साथ जेपी)

चंद्रशेखर के बेटे नीरज शेखर समाजवादी पार्टी से राज्य सभा के सांसद हैं। गांव बलिया ज़िले में आता है जिसके सांसद बीजेपी के भरत सिंह हैं। गांव के लोग कहते हैं कि ट्रस्ट पर दबंगों का कब्ज़ा हो गया है। अब यह जनता के लिए नहीं खुलता, तभी खुलता है जब एमएलसी रविशंकर सिंह आते हैं या चाहते हैं। इसमें एक गेस्ट हाउस भी है। गांव के लोगों का कहना है कि मोदी सरकार के मेमोरियल बनाने का प्रस्ताव का हाल जेपी ट्रस्ट जैसा न हो जाए।  सिताब दियारा के यूपी वाले हिस्से में स्कूल और अस्पताल तो है मगर वहां शिक्षकों की संख्या कम है और गांव के लोगों ने कहा कि अस्पताल में एक डॉक्टर है जो कभी कभार ही आते हैं। बाढ़ इस गांव की नियति है। इस वक्त राज्य सरकार बांधों की मरम्मत का कार्य करा रही है।
यूपी वाले सिताब दियारा से ठीक 2 किमी की दूरी पर वो जगह है जहां जेपी का जन्म हुआ था। लालापुरा टोला। जहां मोदी सरकार मेमोरियल बनाएगी। यह हिस्सा बिहार के छपरा ज़िले में आता है जिसके सांसद हैं केंद्रीय मंत्री राजीव प्रताप रूडी। जयप्रभा फाउंडेशन के अध्यक्ष वीरेंद्र सिंह मस्त प्रधानमंत्री मोदी के साथ चले गए हैं। वे अब यूपी के भदोई से सांसद हैं। बताया जा रहा है कि मेमोरियल में लोकतंत्र पर अध्ययन और शोध होगा। हो सकता है कि प्रधानमंत्री मोदी उद्घाटन करेंगे। यूपी वाले सिताब दियारा में जेपी के नाम पर ट्रस्ट है तो बिहार वाले सिताब दियारा में उनकी पत्नी जयप्रभा के नाम पर। एक जेपी को दो हिस्सा नहीं हो सकता था तो यूपी के हिस्से में पति आ गए और बिहार के हिस्से में पत्नी।


2010 में नीतीश कुमार ने जयप्रभा फाउंडेशन बनाकर उनके पुराने और खंडहर से दिख रहे इस घर में लाइब्रेरी बना दी। यहां भी जेपी की पुरानी किताबें तस्वीरें हैं। गांव के लोग कहते हैं कि लाइब्रेरी कब खुलती है किसी को पता नहीं। 11 अक्टूबर को जब नेता आते हैं या कोई बड़ा नेता आता है तो यहां हलचल होती है, उसके बाद लाइब्रेरी बंद हो जाती है। लाइब्रेरी के आगे एक मूर्ति बनी है।
नीतीश कुमार जेपी सेना बनाकर आपातकाल के दौरान जेल गए पांच हज़ार लोगों को पेंशन भी देने लगे। 2011 में अन्ना आंदोलन के समय जब आडवाणी ने यहां से कालाधन के ख़िलाफ़ अपनी रथ यात्रा शुरू की तब नीतीश कुमार भी उनके साथ थे। इस रथ यात्रा के कारण गांव में बिजली भी पहुंच गई जो अब सात आठ घंटे आती है। लेकिन चार साल के भीतर नीतीश कुमार को बीजेपी से अलग होना पड़ा और जयप्रभा फाउंडेशन के प्रमुख गजेंद्र सिंह मस्त बीजेपी के टिकट पर चुनाव लड़ने चले गए। मेमोरियल हमारी चुनावी राजनीति का एक हिस्सा रहा है। जेपी की उस राजनीति का क्या हश्र हुआ उसका कोई ईमानदार विश्लेषण होगा इसकी तो उम्मीद मत ही रखिये। लोकतंत्र, पंचायत और गांधी पर शोध के लिए संस्थानों की कमी नहीं है लेकिन 11 अक्टूबर को नेताओं के अलावा सिताब दियारा कोई आता जाता नहीं, वहां म्यूज़ियम मेमोरियल बनाना चुनावी नहीं तो और क्या है।

(नानाजी देशमुख के जन्मशती समारोह में प्रधानमंत्री मोदी। उसी पोस्टर में जेपी की भी तस्वीर है। मोदी ने इसी समारोह में जेपी को भी याद कर लिया)

धीरे-धीरे लोग लिखने लगेंगे कि इस फैसले के ज़रिये लालू और नीतीश के पाले से जेपी की विरासत को हड़पा जाएगा लेकिन ग़ौर से आप देखेंगे कि जेपी के जो भी सिंद्धांत थे उन पर कोई नहीं चल रहा है। गांधी और पटेल के रास्ते भी कोई नहीं चल रहा है केवल इनके नाम पर मेमोरियल बन रहे हैं।
ऐसा नहीं है कि इस देश ने जयप्रकाश नारायण को भुला दिया हो।
– जय प्रकाश नारायण इंटरनेशनल एयरपोर्ट पटना
– लोकनायक जयप्रकाश हास्पिटल आर्थो, पटना
– जयप्रकाश युनिवर्सिटी, छपरा, बिहार
– लोकनायक जयप्रकाश नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ क्रिमिनॉलजी एंड फोरेंसिक साइंस, दिल्ली
– लोकनायक जयप्रकाश अस्पताल, दिल्ली
– जयप्रकाश नारायण ट्रॉमा सेंटर, एम्स
– लोकनायक भवन जिसमें राष्ट्रीय अनुसूचित आयोग का दफ्तर है
– लोकनायक जयप्रकाश पार्क, बहादुर शाह ज़फर मार्ग, दिल्ली
– लोकनायक जयप्रकाश अस्पताल, कुष्ठ निवारण ट्रस्ट, मुंबई
– जयप्रकाश नारायण कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग, महबूबनगर, आंध्र प्रदेश
– जय प्रकाश नारायण बायो डायवर्सिटी पार्क, कर्नाटक
– जय प्रकाश नारायण पीयू कॉलेज, शिमोगा, कर्नाटक
इसके अलावा देश के तमाम शहरों में आपको जेपी नगर मिल जायेगा। मेमोरियल और ट्रस्ट की कमी नहीं है। हो सकता कि बिहार की राजनीति के कारण जेपी की भी हज़ारों फुट ऊंची प्रतिमा का ऐलान हो जाए लेकिन क्या कभी हम खुलकर बात कर पायेंगे कि उस आंदोलन में सबकुछ महान या आदर्श नहीं था। अगर हमने अतीत के गुणगान को ही राजनीतिक नियति मान लिया है तो क्या किया जा सकता है। उत्तर से लेकर दक्षिण तक कई नेताओं के नाम पर संस्थान मेमोरियल और पार्क बने हैं। इससे राजनीति को क्या फायदा पहुंचा और वहां हुए अध्ययनों से लोकतंत्र को क्या लाभ हुआ इसका भी अध्ययन करने के लिए एक अलग से मेमोरियल या संस्थान बनना चाहिए।

(एनडीटीवी इंडिया से साभार)

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Posted Date:

October 11, 2017

3:38 pm Tags: , , , , , , , ,
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