कस्तूरबा को देखती, महसूस करती एक रहस्यमयी डायरी

कई रहस्यों से परदा उठाती है नीलिमा डालमिया आधार की नई किताब

मशहूर टीवी पत्रकार विनोद दुआ ने जब नीलिमा डालमिया आधार की नई किताब ‘द सीक्रेट डायरी ऑफ कस्तूरबा’ के हिन्दी संस्करण ‘कस्तूरबा की रहस्यमयी डायरी’ के कुछ हिस्से पढ़े और लेखिका के अनुभवों के साथ इन्हें जोड़ा गया तो लगा मानो हम एक बार फिर उस दौर में जा पहुंचे हों। नीलिमा ने बताया कि कैसे उन्होंने इस किताब को लिखते वक्त और इसके बारे में ऐतिहासिक तथ्यों की पड़ताल करते वक्त कस्तूरबा की जगह खुद को पाया। उन्होंने हर एक पल और लम्हे को कुछ इस तरह महसूस किया मानो जो कुछ कस्तूर के साथ हुआ था, वो उनके साथ हो रहा है। कैसे कस्तूरबा ने गांधी जी को एक महात्मा और राष्ट्रपिता बनने तक के सफ़र में उनका साथ दिया और कैसे खुद तमाम कठिनाइयों के बाद भी पूरी तरह एक समर्पित पत्नी की तरह रहीं।

किताब बहुत से ऐसे तथ्य और नज़रिये को सामने लाती है जो आम तौर पर कोई सोच भी नहीं सकतागा। कैसे कस्तूर नन्हीं सी उमर में ही तमाम बंदिशों में आ गईं और अपने बचपन के साथियों के साथ अल्हड़ता के साथ उनका खेलना-कूदना, हंसना-बोलना बंद करवा दिया गया। मोहनदास के साथ वो कैसे पांच बरस की उमर तक निश्छलता के साथ खेलती रहीं और बाद में उनकी मां ने उनपर वो सारी बंदिशें लगा दीं जो उस ज़माने में एक बड़ी होती हुई बच्ची पर लगाई जाती थीं।

नीलिमा बताती हैं कि शोध के दौरान उन्होंने पाया कि कैसे कस्तूरबा ने मोहनदास को दक्षिण अफ्रीका की घटनाओं के बाद उनके भीतर के बदलाव को महसूस किया, कैसे हिन्दुस्तान लौटने के बाद मोहनदास की हर गतिविधि की वह गवाह रहीं और एक आदर्श पत्नी की तरह उन्हें अपना सबकुछ मानकर हर कदम पर उनका साथ देती रहीं। जाहिर है गांधी जी के पुरुषवादी चरित्र का भी ज़िक्र इसमें ज़रूर किया गया है लेकिन इतने स्वाभाविक तरीके से कि किसी भी गांधीवादी को ठेस न लगे। यानी गांधी के चरित्र पर कोई सवाल न उठाते हुए उनके महात्मा वाली छवि बरकरार रखते हुए इसे कस्तूरबा की नज़र से देखने की यह बेहतरीन कोशिश है।

कार्यक्रम के दौरान कई सवाल आए, अनुभव भी साझा किए गए और नीलिमा ने बताया कि कस्तूरबा की अपनी कोई राजनीतिक विचारधारा नहीं थी, वह पूरी तरह गांधी जी के सिद्धांतों को, विचारों को मानती थीं और आप कल्पना नहीं कर सकते कि कैसे गांधी जी की हत्या करने वाले नाथूराम गोडसे को भी उन्होंने कुछ नहीं कहा, बल्कि अंत तक यही कहती रहीं कि गोडसे इसमें तुम्हारा कोई कसूर नहीं, तुम तो खुद किसी के भेजे हुए हो।

इस किताब की रिलीज़ के लिए 9 अगस्त का दिन चुना गया यानी भारत छोड़ो आंदोलन के 75 साल पूरे होने के मौके पर। जगह चुनी गई दिल्ली के कनाट प्लेस में ऑक्सफोर्ड बुक स्टोर। ऑक्सफोर्ड ने ही यह किताब छापी है और इसका हिन्दी अनुवाद किया है शुचिता मीतल ने।

Posted Date:

August 10, 2017

7:53 pm Tags: , , , , ,
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