‘…पिछले लगभग दो साल हिंदी और भारतीय रंगमंच `न होने’ का काल है। यानी नाटक नहीं हुए, रिहर्सल नहीं हए और रंगकर्मी कुछ न करने के लिए अभिशप्त हुए। अब जाकर कुछ नाटक हो रहे हैं पर रंगमंच की दुनिया अभी भी उजाड़ है। ऐसे में बरेली में `जिंदगी जरा सी है’ का मंचन एक ताजा हवा की तरह भी है और अभी के दौर को समझने की कोशिश भी।…’
♦ रवीन्द्र त्रिपाठी
कोरोना काल ने कई चीजों के अलावा जीने के मायने बदल दिए। ये भी अहसास कराया कि जिंदगी बहुत छोटी है और इसकी अनुभूति के लिए जो तयशुदा औजार मनुष्य ने अब तक विकसित किए हैं वो नाकाफी हैं। सामाजिक दूरी बनाए रखने के लिए जो सरकारी और गैर सरकारी दिशा निर्देश जारी किए और जिनका पालन बहुतों ने किया और कइयों ने नहीं भी किया- उसने जीवन के प्रति हमारी समझ भी बदल दी। इस दौरान जो त्रासदियां हुईं उसका आकलन लंबे समय तक होता रहेगा। पिछले दिनों बरेली में इसी कोरोना प्रसंग पर केंद्रित नाटक `जिंदगी जरा सी है’ एक ऐसा प्रयास रहा जिसने इस दौरान हमारे भीतर घटे मनोवैज्ञानिक बदलावों को रेखांकित करने की कोशिश की। इसे लिखा है डॉ बृजेश्वर सिंह ने, जो खुद पेशे से ड़ॉक्टर हैं और साथ साथ अंग्रेजी के कवि भी। डॉ सिंह उन लोगों में हैं जो रंगमंच को लेकर गहराई के साथ और सामाजिक मकसद से सक्रिय हैं। उन्होंने अपने खर्च पर बरेली में एक सुस्सजित रंगशाला बनाई है और वे हर साल (कोरोना काल को छोड़ दिया जाए तो) एक नाटक समारोह करते हैं। कई जगहों की रंग मंडलियां उनके प्रयास से वहां जाती हैं और इस समारोह मे शिरकत करती हैं। यह बरेली शहर के अलावा उत्तर प्रदेश का एक महत्वपूर्ण रंगमंचीय आयोजन होता है। उन्होंने साहित किया है कि एक व्यक्ति भी शहर की संस्कृति को निर्मित कर सकता है।
इस बार समारोह तो नहीं हुआ लेकिन बृजेश्वर सिंह का लिखा नाटक ‘ज़िंदगी ज़रा सी है’ जरूर मंचित हुआ। इसका निर्देशन किया युवा रंगकर्मी देवेंद्र अहिरवार ने। सिर्फ पांच पात्रों के इस नाटक के किरदारों को बखूबी निभाया अनामिका तिवारी, दीक्षा तिवारी, दानिश अहमद खान, राजू चौहान और सायन सरकार ने। इस नाटक में कोई केंद्रीय कहानी नहीं है। बल्कि शायद ये कहना उचित होगा कि इसमें कई कहानियां विभिन्न अनुभूतियों के रूप में एक दूसरे से गुंथी हुई है और ये काव्यात्मक संवादों के ढांचे में हमारे सामने आती हैं। एक ही अभिनेता विभिन्न पात्रों के माध्यम से कई तरह के अनुभवों को हमारे सामने लाता है। ये अनुभव कोरोना के तो हैं ही साथ ही उन मानसिक उलझनों और घटनाओं से भी जुड़े हैं जो हादसे की तरह आते हैं औऱ मनुष्य के मन औऱ आत्मा को चोटिल कर जाते हैं और उनसे उबरना मुश्किल हो जाता है। पूरा नाटक महामारी के बीच फंसे मानव जीवन की त्रासदियों औऱ विसंगतियों को पकड़ने की कोशिश करता है और उसमें सफल भी रहता है।
वैश्विक स्तर पर भी और भारत में भी रंगमंच कोरोना काल में सर्वाधिक क्षतिग्रस्त कला है। पिछले लगभग दो साल हिंदी और भारतीय रंगमंच `न होने’ का काल है। यानी नाटक नहीं हुए, रिहर्सल नहीं हए और रंगकर्मी कुछ न करने के लिए अभिशप्त हुए। अब जाकर कुछ नाटक हो रहे हैं पर रंगमंच की दुनिया अभी भी उजाड़ है। ऐसे में बरेली में `जिंदगी जरा सी है’ का मंचन एक ताजा हवा की तरह भी है और अभी के दौर को समझने की कोशिश भी। उस दौर को जिसने रोजमर्रा के जीवन को लगभग तहस नहस कर दिया और मनुष्य को नगण्यता का भी एहसास कराया। ऐसे समय में साहित्य, संगीत- नृत्य, रूपंकर कलाएं और रंगमंच ही मनुष्य को नगण्यता के बोध से बाहर निकालती रही हैं। जो रोशनियां बुझ चुकी होती हैं उनको फिर से प्रज्वलित करती हैं। निराशा के दौर में भी आशा को जगाए रखती हैं। महामारियां विश्व सभ्यता का कटु इतिहास रही हैं। पर मानव मन और उसके भीतर निहित कल्पनाशीलता महामारियां जनित विनाश की भूमि पर फिर से सृजन की दूर्वा को प्रकट करती हैं और जरा-सी जिंदगी को भी सार्थकता का बोध कराती हैं।
Posted Date:March 22, 2022
3:55 pm Tags: theatre, sanskritplay, Ravindra Tripathy, Hindi Play Zindagi Zara Si Hai, Devendra Ahirwar, Dr Brajeshwar Singh