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साठ से अस्सी के दशक को फिल्म संगीत का सुनहरा दौर कहा जाता था और तब के मधुर गाने आज भी लोगों की ज़ुबान पर हैं। इस दौर को इतना मधुर और यादगार जिन आवाज़ों ने बनाया उनमें मोहम्मद रफी, मुकेश, किशोर कुमार, मन्ना डे, महेन्द्र कपूर, हेमंत कुमार, तलत महमूद, लता मंगेशकर, आशा भोंसले, शमशाद बेगम जैसे नाम हैं जिनकी आवाज़ दिल के भीतर तक उतर जाती थी। हम इन महान गायकों को उनके जन्मदिन या पुण्यतिथि पर याद करते हैं और आज भी इनके गीतों को रेडियो या टीवी पर सुना देखा जाता है। अब तो इंटरनेट के ज़माने में आपको ये ख़जाना आसानी से मिल जाता है और आप उन आवाज़ों में उनकी मधुरता और गहराइयों में खो जाते हैं। इन्हीं में से एक आवाज़ है मोहम्मद रफ़ी साहब की। 31 जुलाई को रफ़ी साहब को गुज़रे 40 साल हो गए। लेकिन वो जो विरासत छोड़ गए हैं वह अनमोल है और भारतीय फिल्म संगीत के लिए एक धरोहर है। आज भी जब रफ़ी साहब का जब कोई गीत बजता है तो हमें एक नई दुनिया में ले जाता है।
पंजाब के कोटला सुलतान सिंह गांव में 24 दिसंबर 1924 को इनका जन्म हुआ था। गली में फ़कीर को गाते सुनकर रफ़ी साहब ने गाना शुरू किया था। मोहम्मद रफ़ी ने अपनी जिंदगी में करीब 26 हज़ार गाने लगभग हर भाषा में गाए। 1946 में फिल्म ‘अनमोल घड़ी ’ में ‘तेरा खिलौना टूटा’ से हिंदी सिनेमा में कदम रखने वाले रफ़ी साहब के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने अपने वक्त के हर ज़रूरतमंद की हर संभव मदद की और संगीत को कभी रुपयों से नहीं तौला। ऐसी भी कई मिसालें हैं कि उन्होंने मेहनताने के तौर पर महज़ एक रुपया लेकर रस्मअदायगी कर ली और बेहतरीन गीत गाये।
1948 में गांधी जी की हत्या के बाद मोहम्मद रफी ने रात ही रात में राजेंद्र कृष्ण के साथ मिलकर एक गाना तैयार किया ‘सुनो सुनो ए दुनिया वालों….बापू की ये अमर कहानी’। पंडित जवाहरलाल नेहरू को यह गाना इतना पसंद आया कि उन्होंने स्वतंत्रता दिवस पर रफी को रजत पदक से सम्मानित किया।
हर गीत को रफी साहब इस कदर डूब कर गाते थे कि उन्हें अपनी परवाह नहीं रहती थी। ऐसी ही एक मिसाल फिल्म ‘बैजू बावरा’ के गीतों की रिकॉर्डिंग की दी जाती है जब ‘ओ दुनिया के रखवाले’ की तान लेते वक्त रफ़ी साहब के गले से खून निकल आया था।
फिल्म ‘नील कमल’ के गाने ‘बाबुल की दुआएं लेती जा’ के लिए रफी साहब को नेशनल अवार्ड भी मिला था। इस गीत को गाते समय कई बार उनकी आंखें नम हुईं क्योंकि इस गीत को रिकॉर्ड करने से एक दिन पहले ही उनकी बेटी की सगाई हुई थी और कुछ ही दिन बाद शादी थी। रफ़ी साहब को पतंग उड़ाने का भी शौक था। रिकॉर्डिंग करने के बाद वे पतंग उड़ाया करते थे।
रफी साहब ने हर तरह के गीत गाए, हर कलाकार के लिए गाए, शास्त्रीय से लेकर उप शास्त्रीय तक और रोमांटिक से लेकर गम से भरे गीतों तक। उनकी आवाज़ में जो बात थी, वो अब कहीं नहीं मिल सकती। बेशक उनकी नकल बहुत से गायकों ने करने की कोशिश की, लेकिन रफ़ी साहब तो रफ़ी साहब थे। आज भी उनके तमाम दीवाने हैं, और हर साल तमाम शहरों में उनके गीतों के समारोह होते हैं, प्रतियोगिताएं होती हैं और आज के दौर के गायक उन गीतों को गाकर अपनी पहचान बनाने की कोशिश करते हैं।
मोहम्मद रफी ने किशोर कुमार की फिल्मों के लिए भी कई गीत गाए। मोहम्मद रफ़ी का निधन रमज़ान के महीने में हुआ था। निधन से 2 दिन पहले रफी साहब ने आखिरी गाना गाया था। उनका आखरी गीत फिल्म ‘आस-पास’ के लिए था जो उन्होंने लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के लिए रिकॉर्ड किया था और गीत के बोल थे ‘शाम फिर क्यों उदास है दोस्त’…..।
‘7 रंग’ परिवार की तरफ से रफ़ी साहब को नमन।
(प्रेरणा मिश्रा युवा पत्रकार हैं, जागरण के मीडिया इंस्टीट्यूट से पत्रकारिता की पढ़ाई कर रही हैं और साथ ही 7 रंग के लिए इंटर्नशिप भी कर रही हैं)
Posted Date:July 31, 2020
10:53 am Tags: मोहम्मद रफ़ी, रफी साहब के गाने, रफी साहब की यादें, प्रेरणा मिश्राComments are closed.
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