(जाने माने पत्रकार, लेखक, कवि, अनुवादक और विदेश मामलों के जानकार त्रिनेत्र जोशी ने बीमारी के बावजूद ये लेख 7 रंग के लिए लिखा है। रूस, चीन, यूक्रेन समेत पुराने सोवियत संघ की राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक हालातों को गंभीरता से पढ़ने, विश्लेषण करने के अलावा इन देशों के साहित्य और संस्कृति को भी वे गहराई से समझते हैं। त्रिनेत्र जी 7 रंग के पाठकों के लिए अपनी टिप्पणियां लगातार देंगे, ये हमारे लिए सौभाग्य की बात है। इस मंच पर हम उनका स्वागत करते हैं।)
त्रिनेत्र जोशी
रूस और यूक्रेन के बीच सैनिक मुठभेड़ (युद्ध) का समापन इकतरफा तौर पर निस्संदेह रूस के पक्ष में होता नज़र आ रहा है, लेकिन इससे मास्को की विश्वव्यापी रणनीति का भी लगभग स्थाई खुलासा हो चुका है कि राष्ट्रहित के मामले में किसी किस्म का अंतरराष्ट्रीयवाद सहन नहीं किया जाएगा। कम्युनिज्म या और कोई समकालीनवाद राष्ट्र के हितों से परे ही बरता जाने को अभिशप्त है। अमरीका और नाटो संगठन ने भी एक बार फिर यह जाहिर कर दिया है कि वे विवाद को भड़काना जानते हैं, लेकिन आमने सामने के युद्ध की नौबत आने पर कठोर बयानों भर से काम चलाकर अलग छिटक जाना चाहते हैं। यूक्रेन की वर्तमान स्थिति ने यह बात एक बार फिर साफ कर दी है। पश्चिमी ताकतें अब अपने ही बनाये जाल के भीतर रेंगने को मजबूर हैं ।
ऐसा क्योंकर है कि अमरीकी महाशक्ति दूसरी महाशक्ति की कारगुजारियों से प्रत्यक्ष नहीं अप्रत्यक्ष रूप से सुलटना चाहती है। और उसके सैनिक सखा देश यानी नाटो जैसी सैनिक गुटबंदिया भी दूर-दूर से ही सामने आते दिखना चाहती हैं। यह एक रात में नहीं हुआ है। पिछले दो दशकों से यह गठजोड़-विचलन उभार पर चल रहा है। इसके दो कारण तो स्पष्ट नजर आते हैं, एक कि दुनिया की अंदरूनी ताकत अब सैन्य से अधिक आर्थिक वजन पर तौली जाने लगी है। और दूसरे सैनिक हस्तक्षेप अब भौगोलिक से अधिक आर्थिक-भौगोलिक हितों की रखवाली की ओर प्रवृत्त है। यूक्रेन-रूस विवाद में पश्चिम का यह विचलन अधिक मुखर होकर उभरा है। हाल में हमने देखा कि अफगानिस्तान में ऐसा हुआ और अब यूक्रेन भी इस प्रवृति का शिकार हुआ है।
यूक्रेनी साहित्य और अतीत को समझना जरूरी
बहरहाल, रूस और यूक्रेन के बीच सैनिक मुठभेड़ का समापन जब होगा तब होगा, इस मौजू पर यूक्रेन के अतीत पर नजर डाल लेना भी अप्रासंगिक नहीं होगा। हमारे एक पत्रकार मित्र पुष्परंजन ने इस प्रसंग में इस अतीत को यूँ रखा है –”
‘ सरगोशियों से शुरू करते हैं कुछ नाम/ साथ मिलकर‘
यूक्रेनी साहित्य में हलचल पैदा करने वाले सर्हिय हादान की किताब, ‘कैटेलॉग ऑफ शिप्स’ की शुरूआती पंक्तियों से लोगों ने महसूस कर लिया था कि कविताएं किस मिज़ाज की हैं। उसके साल भर बाद, 2021 में कवयित्री ल्यूबा याख़िमचुक की एक किताब आई, ‘एप्रीकोट ऑफ डोनबास‘। दोनों किताबों में युद्धोन्माद की चपेट में आये यूक्रेन पर लिखी कविताओं का संकलन है। ल्यूबा याख़िमचुक डोनबास में पैदा हुईं, जिसे पुतिन ने इसी हफ्ते ‘लुहांस्क पीपुल्स रिपब्लिक’ के रूप में मान्यता दी है। स्टारोबिल्स्क में जन्मे सर्हिय ज़्हादान भी ‘लुहांस्क पीपुल्स रिपब्लिक’ के हैं। तो क्या साहित्यकारों को पता था कि यूक्रेन की हदों में रहने वाला यह इलाका 2022 के दूसरे महीने ‘डीपीआर’ और ‘एलपीआर’ नामों से आज़ाद दो मुल्कों में तब्दील हो जाएगा?
साहित्य में समकालीन राजनीति और समाज की झलक
पिछले तीन दशकों के कालखंड में यूक्रेनी साहित्य को खंगालेंगे, रूमानियत कम, युद्धोन्माद की पीड़ा उकेरती रचनाएं अधिक मिलेंगीं। वासिल होलोबोरोद्को, सर्हिय ज़ादान, मैक्स रोसोचिन्स्की, बोरिस हेमेन्युक, यूरी इज़द्रयक, अलेक्सांद्र कावानोव, अस्ताप स्लाइवंस्की, ल्यूदमाइला ख़ेरसोंका, बोरिस ख़ेरसोंस्की के अलावा नये मिज़ाज की कवियत्री हाल्यना क्रूक, कैतरीना काल्यत्को, मारिअन्ना कियानोवस्का, ल्यूबा याख़िमचुक जैसी नामचीनों को पढ़िये, यूक्रेनी साहित्य की दिशा समझ में आ जाती है। इनका लेखन इसका आइना है कि यूक्रेन की समकालीन राजनीति और समाज में क्या कुछ चल रहा है।
मास्को में बैठे अनेक लोगों का मानना है कि यह सब पश्चिमी देशों के दुष्प्रचार का हिस्सा है। वो कहते हैं, उक्रेनी पोलैंड और रूस की मिश्रित भाषा है। वास्तविकता यह है कि प्राचीन पोलैंड में स्लाविक, चेक व स्लोवाक बोलियों से मिश्रित भाषा बोली जाती थी। बाद में चलकर उसमें जर्मन भाषा का भी थोड़ा सा समावेश होता है। उक्रेनी लिपि ‘सरिलिक’ है, जो नौवीं-दसवीं शताब्दी में स्लाव भाषियों ने विकसित की थी।
रूसी भाषा और साहित्य की बुनियाद तलाशेंगे तो बात कीवियन पीरियड (988 से 1240) से शुरू करनी होगी। उस दौर में कीव साहित्य और संस्कृति का अधिकेंद्र था। ब्लादिमीर मोनोमाख द्वितीय के समय कीव में बाइजेंटाइन ईसाईयत और लातिनी सभ्यता अपने शबाब पर था। 11 वीं सदी में निर्मित कीव का सेंट सोफिया कैथेड्रल इसका साक्षात गवाह है। वहां मंगोल साम्राज्य के शासक जिन्हें तातार कहते हैं, 1240 में आये थे और कीवन गणराज्य का पतन हो गया।
यूक्रेनी साहित्य में सृजन का काम बदस्तूर जारी
सदियों तक राजनीतिक उतार-चढ़ाव के बावज़ूद यूक्रेनी साहित्य में सृजन का काम रुका नहीं। 16 वीं शताब्दी में वहां नाटकों का विकास हुआ। व्यंग्य लेखन में स्कोवोरोटा (1722-1794) प्रसिद्ध हुए। कोत्लारेवस्की (1769-1838) कवि व गद्यकार के रूप में स्थापित हुए। तरास ग्रिगोयेर्विच शेव्चेंको (1814-1864) यूके्रन के क्रांतिकारी जनकवि के रूप में जाने गये। कवि, नाटककार फ्रांको, यूके्रनी जनजीवन पर निरंतर लिख रहे थे। कवयित्री लेस्या उक्राइन्का (1871-1913), उन्हीं के समकालीन कोत्स्यूबिंस्की यूके्रनी जनता के क्रांतिकारी संघर्ष को लगतार कविताओं में उकेर रहे थे। यूक्रेनी साहित्य रचना जबतक मास्को के लाइन ऑफ एक्शन पर चलने वालों को ठीक लगी, उसे मान्यता दी गई। जिस दिन लगा कि ये हमारे विपरीत है, वो ख़ारिज़ होते चले गये।
मस्कवा का भाग्योदय हुआ है 1480 से 1598 के बीच, जिसे ‘मास्कोवाइट पीरियड’ भी कहते हैं। इसके कोई एक सदी बाद, सेंट पीटर्सबर्ग रूसी साहित्य का अधिकेंद्र बनता है, वह 1703 से 1917 का लंबा कालखंड था, जब रूसी साहित्य, जिसे ‘यूरोप का दरीचा’ बोलते हैं समृद्ध हुआ। 1703 से 1809 ‘रूसी साहित्य में क्लासिकी का स्वर्णकाल’ के रूप में याद किया जाता है। तारस श्वेेचेंको, यूक्रेन के राष्ट्रकवि थे। उनकी कृति ‘कोब्ज़ार’ की वजह से उन्हें ‘कोब्ज़ार तारस’ के रूप में ख्याति मिली थी। तारस श्वेचेंको यूक्रेनी राष्ट्रवाद के प्रतीक थे।
पुतिन ने लिखा था, ये लेनिन का यूक्रेन है
मार्च 2014 में पुतिन ने क्रीमिया के राज्य हरण के समय भाषण देते समय कहा था कि रूसी और क्रीमियाई एक ही मूल के लोग हैं, और कीव रूसी शहरों का मातृ स्थल है। जुलाई 2021 में पुतिन ने पांच हज़ार शब्दों का एक लेख, ‘ऑन द हिस्टोरिकल यूनिटी ऑफ रशियंस एंड यूक्रेनियंस’ लिखा, जिसमें बताया कि यह ब्लादिमीर लेनिन का यूक्रेन है, और जिस यूक्रेन को हम जानते हैं, वह बोल्शेविक का उक्राइना रहा था।
यह बात ध्यान में रखने की है कि 7 नवंबर 1917 को अक्टूबर क्रांति के बाद, ‘ रशियन सोवियत गणराज्य’ बना। 1918 से 1936 तक रूसी सोवियत संघात्मक समाजवादी गणराज्य (रशियन एसएफएसआर) और 1936 से 8 दिसंबर 1991 तक सोवियत रूस या सोवियत संघ अस्तित्व में था। मगर, बात यह है कि अतीत के हवाले से यूक्रेन पर एकाधिकार का मंसूबा बांध लेना कौन से अंतरराष्ट्रीय क़ानून के अंतर्गत आता है? पश्चिमी यूक्रेन का भू-भाग दो द्वितीय विश्वयुद्धों के दरम्यान जर्मनी, पोलैंड, रोमानिया, चेकोस्लोवाकिया के अधीन भी रहा था, तो कल को ये देश भी दावा ठोक दें। यूक्रेन में रूसी, बेलारूसियन, माल्दोवियन, क्रीमियाई तातार मूल के वासी रह रहे हैं।
किसी ज़माने में यूक्रेन के द्नीपर नदी के तटीय इलाक़ों में पोलैंड और यहूदी मूल के लोग बड़ी संख्या में बसते थे। 22 जून 1941 को नाजियों ने यूक्रेन पर कब्ज़ा किया। 1944 तक नाज़ियों ने यहूदी और पोलैंड के डेढ़ लाख लोगों को मार डाला था। बेबी यार से आठ लाख लोग उजड़ चुके थे। अक्टूबर 1944 में यूक्रेन दोबारा से सोवियत संघ के नियंत्रण में आया, तब स्तालिन सत्ता में थे। रोमानिया का कुछ हिस्सा जिसे नार्दन बुकोविना कहते हैं, 1947 में पैरिस शांति समझौते के बाद यूक्रेन में मिलाया गया। पोलैंड भी बोलिनिया और गेलिशिया वाले हिस्से को यूक्रेन को देने को विवश हुआ।
इतिहास फिर दोहराया जा रहा है
आज इतिहास फिर से दोहराया जा रहा है। गुरूवार सुबह से रूसी कार्रवाई के बाद से यूक्रेन से लोगों के पलायन की ख़बरें बेचैनी का सबब बन चुकी है। हमारे लिए बेचैनी का कारण वहां फंसे पन्द्रह से 20 हज़ार भारतीय हैं, जिनमें से अधिकतर छात्र हैं। उन्हें समय रहते वहां से नहीं निकाला जा सका, यह दुर्भाग्यपूर्ण है। सरकार जगी भी तो देर से. दूतावास ने ट्वीटर के ज़रिये यूक्रेन के राष्ट्रपति कार्यालय से आग्रह किया है कि हमारे 15 हज़ार छात्रों की सुरक्षा, उनके खाने-पीने की व्यवस्था सुनिश्चित करें, तो बड़ी मेहरबानी होगी। दुआ कीजिये कि भारतीय छात्र यूक्रेन सीमा पार कर सुरक्षित भारत लौट आएं.
भारतीय छात्रों को निकालने में पीछे कैसे रह गए
यह विचित्र किंतु सत्य है कि यूक्रेन के राष्ट्रपति बोलोदोमिर ज़ेलेन्स्की पीएम मोदी से बात करना चाहते थे, दिल्ली स्थित यूक्रेनी राजदूत द्वारा पत्र लिखने के बाद भी चुप्पी साध ली गई। मोदी पुतिन से बात कर सकते हैं, मगर ज़ेलेन्स्की से बात करने में संकोच है। अजब-गज़ब स्थिति है। सवाल यह है कि कीव स्थित भारतीय दूतावास के मिल्ट्री अताशी और दिल्ली में बैठे हमारे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार इंटेलीजेंस शेयरिंग में पीछे कैसे रह गये? वहां फंसे भारतीयों को कैसे निकालना है, उस रणनीति पर काम करने में क्या हम काबुल जैसा ही विफल हुए हैं?
यूक्रेन और उसके आसपास…
सात देशों से घिरे, चार करोड़ 34 लाख की आबादी वाले यूक्रेन के पश्चिम में हैं पोलैंड, स्लोवाकिया और हंगरी। उत्तर में बेलारूस, दक्षिण-पश्चिम में माल्दोवा व रोमानिया, और पूर्वी सीमा पर है रूस। यूक्रेन के इन सात पड़ोसी देशों में से चार को नाटो की सदस्यता मिल चुकी है। हंगरी, पोलैंड को 1999 में, स्लोवाकिया, रोमानिया को 2004 में नाटो ने जब सदस्यता दी, रूस ने किसी तरह की सैनिक कार्रवाई इन पड़ोसी देशों के विरूद्ध नहीं की। चीन जब यह कहता है कि रूस के पड़ोस में नाटो नहीं होना चाहिए, तब वह पूर्वी यूरोप की भू-सामरिक स्थिति को भूल जाता है।
यूक्रेन को नाटो में शामिल न करने के पीछे क्या
इससे भी मज़ेदार यह है, कि उत्तर अटलांटिक संघि संगठन ( नाटो ) चौदह वर्षों में तय नहीं कर पाया कि यूक्रेन को सदस्य बनायें, अथवा नहीं। 1991 में यूक्रेन, नाटो की अनुषंगी संस्था, ‘नार्थ अटलांटिक कॉपरेशन कौंसिल’ का सदस्य बना। 2008 में नाटो मेंबरशिप एक्शन प्लान के तहत यूक्रेन ने आवेदन भी किया था। नाटो, यूक्रेन को सैन्य प्रशिक्षण देगा, चोरी-छिपे मिसाइलें व मिल्ट्री हार्डवेयर की सप्लाई करेगा, मगर सदस्यता नहीं देगा। इस पहेली को नाटो के रणनीतिकार ही बेहतर समझते होंगे।
जो सबसे अधिक चिंता का विषय है, वो है विस्थापन। शरणार्थियों का बड़ा हिस्सा पोलैंड, रोमानिया, बेलारूस और हंगरी की तरफ़ जा रहा है। प्रज़ेम्सिल, पोलैंड का सीमांत शहर है, शरणार्थियों का सर्वाधिक दबाव इसी तरफ़ है। वहां के बुजुर्ग नागरिक 1943-44 में वोल्हानिया नरसंहार के ज़ख्मों को भी उधाड़ रहे हैं। यूक्रेन पर रूस लगातार हमले कर रहा है। कीव और खारकीव पर कब्जे की जंग जारी है। खारकीव तबाह हो चुका है। युद्ध की विभीषिका यहां देखी जा सकती है। तबाही का मंजर है औऱ महिलाओं और बच्चों का पलायन है।
संपूर्ण यूक्रेन को निरस्त्र करने के इस महाभियान में कितने और लोग मारे जाएंगे, 30 सदस्यीय नाटो ने जवाबी कार्रवाई की, तो किस तरह की तबाही होगी? अभी उसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल है।
नाटो एकदम से चुप लगा जायेगा, ऐसा भी नहीं लगता. शुक्रवार सुबह से कीव के पूर्वी इलाक़े में कई इमारतों के तबाह होने के विजुअल्स भी दिखाये जा रहे हैं। जो बाइडन और यूरोपीय संघ के नेता रूस पर प्रतिबंध लगाकर खानापूर्ति जैसा ही कर रहे हैं। मगर, प्रतिबंधों से पुतिन कमज़ोर हो जाएंगे क्या? इंस्टीट्यूट ऑफ इंटरनेशनल फाइनांस की वरिष्ठ अर्थशास्त्री एलीना रिवाकोवा कहती हैं, ‘रूस के पास 600 अरब डॉलर की करेंसी रिज़र्व है। कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ता प्रतिबंधों से।’
यूक्रेनी सांस्कृतिक परंपरा ही युद्ध में उसके टिकने का संबल
सोलहवीं शताब्दी से अठारहवीं शताब्दी के बीच यूक्रेनी साहित्य स्वतंत्र रूप से विकसित और समृद्ध होता रहा। उस पर रूसी साहित्य की छाया नहीं, बल्कि इसके उलट था। फिर भी परवर्ती कालों में रूसी प्रभुत्व के चलते यूक्रेनी साहित्य में विद्रोही प्रवृत्तियो का दखल ज्यादा है। यानी साहित्यिक और सांस्कृतिक परिसर में रूसी और यूक्रेनी अदावत भी परंपरा है, जो वर्तमान मुठभेड़ में भी उजागर है।
यही सांस्कृतिक परंपरा यूक्रेन को युद्ध-मैदान पर टिकाये हुए है। सभी जानते हैं कि यूक्रेन शस्त्रास्त्र के मामले में रूस की बराबरी नहीं कर सकता। यूक्रेन भी यह बात अच्छी तरह जानता है। लेकिन उसका सांस्कृतिक असलहा उसके श्वासतंत्र में है, जिसकी थाह शायद रूस की सैन्य वरीयता भी नहीं ले सकती। यही वजह है कि आसन्न हार की संभावनाओ के बावजूद यूक्रेन इस बडी ताकत का सामना कर रहा है।
परंतु तथ्य यह कह रहे हैं कि इस आत्मबल को सैन्य-वरीयता के सामने अपने को अस्थाई तौर पर ही सही समेटना पडेगा। यह प्रक्रिया आजकल में शायद पूरी हो जाए, लेकिन गुब्बार तो बरसों तक उठा रहेगा।।
दोनों देश अब वार्ता की मेज पर आमने-सामने बैठने को तैयार भी हैं। बात हो भी रही है। लेकिन अभी शांति के कोई आसार नहीं दिख रहे। बहुत संभव है कि दो-एक दिन में कुछ सकारात्मक रास्ता निकल आए, मगर रूस जहां तक पहुंच गया है, वहां से शायद ही पीछे हटे। यूक्रेन की त्रासदी फिर कहीं न दोहराई जाय, यही कामना की जा सकती है। इतिहास की अपनी रफ्तार होती है। उसके फैसले का तो केवल इन्तज़ार ही किया जा सकता है।
Posted Date:March 2, 2022
2:17 pm Tags: रूस और यूक्रेन, यूक्रेनी साहित्य में युद्ध, पुष्परंजन, Ukraine, पुतिन, Russia, लेनिन और यूक्रेन, Ukraine Literature, डोनबास, Culture of Ukraine, Literature of Ukraine, Trinetra Joshi, त्रिनेत्र जोशी, यूक्रेनी साहित्य