कोरोना काल के दो साल रंगकर्मियों के लिए एक दु:स्वप्न की तरह बीते लेकिन 2022 की शुरुआत से लेकर अंत तक जितने नाटक हुए, इतने नाट्य समारोह हुए और रंगकर्मियों ने खुलकर काम करने की कोशिश की, वह काफी हद तक याद रहने वाला है। सबसे बड़ी बात कि कोरोना ने जो शिथिलता और संकट पैदा किया, रंगकर्मियों के प्रति सरकारी संवेदनहीनता का जो रूप दिखा और गंभीर आर्थिक संकट और अनिश्चितता के दौर से गुर रहे रंग जगत के समर्पित लोगों ने जिस तरह अपना विरोध दर्ज़ कराया, वह उल्लेखनीय है। रंगकर्म और विचारधारा को लेकर बहसें तेज़ हुईं, रंगकर्म ऑनलाइन से उतर कर फिर से ज़मीन पर आया और तमाम सरकारी नाट्य संस्थानों में विचारधारात्मक खोखलापन नज़र आया, वह भी बीते साल चर्चा का विषय रहा। कैसा रहा रंगमंच के लिए 2022, कौन कौन से अहम सवाल सतह पर आए और रंगकर्म में नया क्या हुआ, ये सब बता रहे हैं जाने माने नाटककार और संस्कृतिकर्मी राजेश कुमार।
राजेश कुमार, रंगकर्मी और नाटककार
किसी भी साल की जब शुरुआत होती है तो उसका अंत भी होता है । नाटक का जब पर्दा उठता है तो खत्म होने के बाद गिरता भी है । हॉल में बैठे लोग तालियाँ बजाते हैं । हॉल से निकल कर जब घर की तरफ़ लौटते हैं, तो दिलोदिमाग़ में यही चलता रहता है कि हमने क्या देखा ? कथ्य और रूप के स्तर पर नाटक ने कितना झकझोरा ? संवेदनात्मक रूप पर दिल को कितना स्पर्श किया ? ऐसा तो नहीं कि वह न दिल में ठहरा, न दिमाग़ के तारों को झंकृत किया ?
साल भर न जाने कितने नाटक हुए, गोष्ठियाँ हुई और रंगमंच की दुनिया में लहरें आयी और गयी । हर वर्ष अंत आते – आते साहित्य, सिनेमा , खेल , राजनीति की तरह नाटक के मूल्यांकन की परम्परा है । अच्छा – बुरा – औसत जैसा भी हो , एक बार कसौटी पर कसा ज़रूर जाता है ।आलोचना की तराज़ू पर तौला जाता है । इसमें कुछ छूट भी जाता है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता है । नाटक की दुनिया के सन 2022 की किताब के पन्ने को पलटे तो इसकी शुरुआत ही बहुत ही नाटकीय धमाके से हुई । साहित्य अकादमी द्वारा वर्ष 2021 का ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ नाटक ‘ सम्राट अशोक ‘ की घोषणा के बाद नाटककार दया प्रकाश सिन्हा ने 31 दिसम्बर 21 को दिल्ली के एक अखबार में इंटरव्यू देते हुए कहा कि,’ मैं राष्ट्रवादी साहित्यकार हूँ । पहली बार साहित्य अकादमी ने किसी राष्ट्रवादी साहित्यकार को पुरस्कृत किया है । साहित्य अकादमी में यह नवाचार है कि बिना किसी विचारधारा का ध्यान रखते हुए एक साहित्यकार को सम्मानित किया गया है। ‘ उनके इस बयान ने रंगमंच की दुनिया को दो भागों में बाँट दिया । एक बड़ा वर्ग जो सत्ता और सरकारी संस्थानों के क़रीब था, अगर उनके साथ था तो उनके प्रतिपक्ष में ऐसे रंगकर्मियों की भी कम संख्या नहीं थी जो इस पुरस्कार और नाटक से उभरे सवालों पर स्पष्ट एतराज जता रहे थे । दया प्रकाश सिन्हा की इस स्वीकारोक्ति पर कि ’मैं सनातनी विचारधारा को मानता हूं, संघ का स्वयंसेवक हूँ, लेकिन मेरे लेखन से इसका कोई संबंध नहीं है । विचारधारा और रचनात्मकता दो अलग चीजें हैं।‘ बहुत दिनों तक ऑनलाइन डिस्कशन का मुख्य विषय बना रहा । इसका कारण शायद यह भी था कि वो कोरोना काल था । ग़त वर्ष की तरह सन 22 के प्रारम्भिक काल में भी नाटक जीवंत माध्यम नहीं बन पाया था । ऐसे में लाइव थिएटर होने के बजाए सरकारी, ग़ैर सरकारी संस्थाओं द्वारा देश भर के शहरों में अधिकतर सोशल मीडिया पर नाटक से जुड़े विभिन्न विषयों पर बातचीत , बहस , परिचर्चा की गतिविधियां ज्यादतर संचालित होती रहीं । सुप्रसिद्ध नाट्य निर्देशक प्रसन्ना, एम के रैना , रामगोपाल बजाज , सूर्यमोहन कुलश्रेष्ठ, संजय उपाध्याय , अरविंद गौड़ से लेकर आलोक चटर्जी , सुरेंद्र शर्मा , अनिल रंजन भौमिक , पुंज प्रकाश तक किसी न किसी मंच के द्वारा ऑनलाइन पर सक्रिय रहे । अस्मिता थिएटर ग्रुप ने तो लगातार इस माध्यम के द्वारा पूर्व में अपने किए गए नाटकों के मंचन को ऑनलाइन दिखाते रहे । कोरोना की दूसरी लहर के बाद जन जीवन सामान्य होने के बाद उत्तर प्रदेश , बिहार और हिंदी प्रदेश के दूसरे राज्यों में जहां धीरे – धीरे सरकारी गाइड लाइन का अनुसरण करते हुए जनवरी महीना खत्म होते होते नाटकों के मंचन प्रेक्षागृहों में होने लगे थे , देश की राजधानी दिल्ली में सरकार ने कोई ढील नहीं दी । कहने में कोई शक नहीं कि किसी की भी सरकार हो , कोरोना काल में सर्वाधिक उपेक्षा का शिकार रंगकर्मी वर्ग ही रहा । जो रंगकर्मी अपनी जीविका के लिए केवल रंगकर्म पर आश्रित थे , वे सबसे ज़्यादा प्रभावित रहे । बीमार रंगकर्मियों को न इलाज मिल रहा था , न जीविकोपार्जन के लिए कोई भत्ता । जब संयम का बांध टूट गया तो दिल्ली के रंगकर्मियों का एक बड़ा समूह 25 फ़रवरी को मंडी हाउस के श्रीराम सेंटर के बाहर जुटा और सरकार की संवेदनहीनता को लेकर अपनी नाराज़गी जताई । विरोध स्वरूप मंडी हाउस से जवाहर लाल स्टेडियम तक रंगकर्मियों ने पैदल यात्रा की । दिल्ली की सरकार का दोहरा चेहरा लोगों के सामने लाने की कोशिश की की गई। दिल्ली सरकार एक तरफ़ तो दूसरे प्रांत में होने वाले चुनावों को ध्यान में रखते हुए एजेंडा के तहत करोड़ों खर्च कर अम्बेडकर के जीवन पर केंद्रित ‘बाबा साहेब ‘ नाटक करवा रही थी , दूसरी तरफ़ दिल्ली के रंगकर्मियों को कोरोना का भय दिखा कर नाटक करने की इजाज़त नहीं दे रही थी । लेकिन यह सरकारी प्रतिबंध ज़्यादा दिनों तक नहीं चल पाया । विवश होकर कुछ निर्धारित गाइड लाइन जारी करने के साथ आख़िरकार हॉल खोल दिया गया । यह उन रंगकर्मियों के लिए बहुत बड़ी राहत और सुकून देने वाली खबर थी जिनकी जीविका ही रंगकर्म से है । इसके बाद अचानक जैसे नाटकों की बाढ़ आ गयी हो । कोरोना की बांध ने इतने दिनों तक जो नाटक को रोक रखा था , आवेग के साथ देश भर में फैल गया । पटना , लखनऊ , भोपाल जैसे शहरों में तो ये स्थिति थी कि मार्च तक छोटे – बड़े सारे हॉल बुक थे । कोई ख़ाली नहीं था । फ़ुल होने का एक कारण ये भी था कि जिन संस्थाओं को नाटक करने के लिए सरकारी अनुदान दिए गये थे, उन्हें मार्च महीने तक खर्च करना था । सरकारी और ग़ैर सरकारी , दोनों संस्थानों के सामने यही संकट था । विशेष कर महानगरों में नाटकों के उफान का एक कारण यह भी था , जिससे इनकार नहीं किया जा सकता है ।
कोरोना काल में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय जो निष्क्रिय रही , वहाँ सबसे ज़्यादा गतिविधियाँ दिखी । रंग मंडल भी पीछे नहीं था । स्कूल और रंगमंडल दोनों होड़ में लगे हुए थे । रंगमंडल अगर ‘अभिज्ञान शकुन्तलम ‘, ‘ खूब लड़ी मर्दानी ‘ ,’ ताजमहल का टेंडर ‘, ‘बायेन’, ‘ कारगिल ‘ जैसे नाटकों के द्वारा अपनी सक्रियता ज़ाहिर करना चाहता था , स्कूल अपने अंतिम वर्ष के छात्रों की प्रस्तुति ,’ अ डाल्ज़ हाउस ‘, ‘सीगल’, ‘दो दूनी चार ‘, ‘नर – नारी ‘ , ‘सावंत आंटी की लड़कियाँ ‘ जैसे बड़े , महँगे और चमकीले प्रोडक्शन से दर्शकों को शायद यह जताना चाहती थी कि नाटक की परिभाषा अब समय के साथ बदलना ज़रूरी है । लेकिन एनएसडी अध्यक्ष परेश रावल की टिप्पणी उनके बिल्कुल प्रतिकूल है । उन्होंने वहाँ के रंगकर्म को अय्याशी बताकर , उनके नाटकों के बजट में कटौती करने का निर्देश दिया । परेश रावल का यह वक्तव्य राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की पूरी अवधारणा पर कहीं न कहीं आलोचनात्मक नज़रिया रखता है । और प्रसन्ना ने इसी महीने बनारस में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय पर जो प्रहार किया है वो अत्यंत गम्भीर और विचारणीय है । उनका कहना है कि राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की स्थापना जिस उद्देश्य से की गयी थी , उस रास्ते से भटक चुकी है । एनएसडी को अपने नए लक्ष्य तय करने होंगे । वर्तमान में वहाँ से पढ़ कर निकलने वाले शत प्रतिशत विद्यार्थी फ़िल्मों की ओर रुख़ कर रहे हैं । उन्हें रोक कर अपने राज्यों में भेजने और नाटक करने के लिए प्रेरित करने की कोई एनएसडी के पास नहीं है । बल्कि सालों से एनएसडी और भारतेन्दु नाट्य अकादमी (बीएनए) के पास कोई स्थायी निदेशक न होने के कारण न केवल इस संस्थान बल्कि सरकार पर भी कई सवालिया निशान खड़ा करता है । सरकार का यह रवैया संस्कृति के प्रति सकारात्मक नहीं है । बल्कि लोगों के बीच यह संदेश जाता है कि सरकार के पास कोई स्पष्ट सांस्कृतिक नीति नहीं है , इसका उपयोग समाजिकता के लिए कम ,राजनीतिक हित में ज़्यादा करने की मंशा है ।
नाटक में कई लकीरें साथ और समानांतर चलती हैं । भले सत्ता पोषित लकीरें गहरी और मोटी होने के कारण दूर से ही लोगों को दिख जाती हैं , लेकिन उसके विरोध में कई लकीरें दूर तक जाती हुई दिखती हैं । उनमें पहला नाम अस्मिता थिएटर का है । वो कोरोना के दिनों में तो सक्रिय थी ही , उसके हटने के बाद भी भी लगातार नुक्कड़ों और मंच पर सक्रिय दिखी ।अस्मिता के 30 गौरवमयी वर्ष के उपलक्ष्य पर उसके निर्देशक अरविंद गौड़ लगातार अपने उन नाटकों को जनता के बीच ला रहे हैं । उनके सारे नाटक समसामयिक और जनता के सवालों को उठाने वाले होते हैं , इस कारण वे लगातार प्रतिरोध का स्वर किसी न किसी रूप में सामने लाते रहते हैं । ऐसे नाटकों में ‘ कोर्टमार्शल ‘, ‘ तारा ‘ , रामकली ‘ , ‘पार्टीशन’ , ‘ अम्बेडकर और गांधी ‘, ‘ अमृतसर आ गया ‘ और ‘ जिन लाहौर न वेख्या वो जन्मया ही नहीं ‘ प्रमुख हैं । एनएसडी स्नातक साजिदा साजी और ज़ोय के किए गए नाटकों में ‘ओथेलो’, ‘ अंधायुग ‘ , विरासत ‘, ‘युग ‘ ने दर्शकों का ध्यान खींचा । विशेष कर तहमीना दुरानी के उपन्यास का रूपांतरण ‘ कुफ़्र’ ने तो उन बहुसंख्यक कट्टर वादियों का मुँह बंद का दिया जो अमूमन जनपक्षीय रंगमंच करने वालों पर खड़ा करते हैं कि बहुसंख्यक सम्प्रदाय पर धार्मिक तंज करना तो आसान है ,अल्पसंख्यक समाज पर कोई टिप्पणी – नाटक कर के तो दिखाए । साज़िदा साजी की यह प्रस्तुति उन प्रश्नों का माकूल जवाब था ।
अप्रैल में डॉक्टर विनय कुमार की लम्बी कविता ‘यक्षिणी’ का संजय उपाध्याय के निर्देशन में पटना और दिल्ली में भी मंचन हुआ । इसी धारा का दिलीप गुप्ता का श्रीकांत वर्मा का बहुचर्चित कविता संग्रह ‘मगध ‘ का मंचन वर्तमान राजनीति से जुड़ कर एक बहुत बड़े दर्शक वर्ग को अपनी तरफ़ खींच पाने में सफल साबित हुआ । पंचानन पाठक की स्मृति में लगभग एक महीने तक एलटीजी सभागार में हास्य नाटकों के मंचन हुए ।
दिल्ली में कई संस्थाएँ हैं जो साल भर वर्कशॉप करती हैं , कलाकारों को प्रशिक्षण देती है और उनके साथ मिलकर बेहतरीन प्रस्तुतियाँ देती हैं । उनमें ब्लैक पर्ल आर्ट्स की ‘सुखिया मर गया भूख से ‘, ‘ खबसूरत बहू’ ‘चैनपुर की दास्तान ‘ अपनी गुणवत्ता को लेकर चर्चा में रही । विकास बाहरी के अनेकों नाटक साल भर में देश भर में हुए । नया नाटक ‘पतझड़‘ और ‘खिड़की ‘, ‘दरारें ‘, ‘चिड़ियाँ और चाँद ‘ की कई प्रस्तुतियाँ नाट्य महोत्सवों में हुई ।
एनएसडी ने एकबार फिर से ‘श्रुति ‘ कार्यक्रम की शुरुआत कर दी है। नाट्यकर्मियों के लिए यह एक सुखद समाचार है । नवंबर में इस कार्यक्रम के तहत डॉक्टर राधा वल्लभ त्रिपाठी को ‘आज का समय और नाटक ‘ पर सुनना ऐतिहासिक था ।
राजधानी से बाहर पटना , लखनऊ और भोपाल जैसी जगहों पर भी कई संस्थाओं द्वारा उल्लेखनीय कार्य देखने को मिला । इप्टा, पटना ने तनवीर अख़्तर के निर्देशन में राजेश कुमार के नाटक ‘ काया धूल हो जासी’ का मंचन प्रेमचंद रंगशाला में किया जो मृत्यु के कर्मकांड पर चोट करने वाला था । नट मंडप द्वारा मंचित नाटक ‘बापू’, ‘अर्थ दोष ‘ और ‘ साला मैं तो साहब बन गया ‘ अपनी भव्यता और विचारोत्तेजकता को लेकर हिंदी क्षेत्र में आकर्षण का केंद्र बना रहा।
रंग पत्रिका ‘रंग प्रसंग ‘ की अनियमतता हिंदी नाट्य प्रेमियों को सालती रही । लेकिन साल के जाते – जाते श्रीराम सेंटर द्वारा आयोजित ‘पन्ना भरतराम नाथ समारोह ‘ में हुए कुछ नाटकों की प्रस्तुतियों ने नाटक के भविष्य के प्रति सुखद संकेत दिए हैं । आशीष पाठक का लिखा नाटक ‘अगरबत्ती ‘ एक उम्दा नाटक है और इसे हर जागरुक दर्शक देखना चाहता है ।
असगर वजाहत के नाटक महाबली का एक दृश्य (निर्देशक – एम के रैना)
के के बिरला फ़ाउंडेशन से पुरस्कृत असग़र वजाहत का ताज़ा नाटक ‘ महाबली ‘ का एम के रैना के निर्देशन में इस समारोह में मंचन हुआ । कह सकते हैं कि यह प्रस्तुति इस वर्ष की महत्वपूर्ण उपलब्धि है। इस नाटक में राम सबसे अधिक देखभाल करने वाले, निडर , परोपकारी और दयालु दिखाई देते हैं। राम जो पवित्र होते हुए भी मानवीय हैं जिनके संदेश को उच्च संकीर्ण दृष्टियों में नहीं बांधा जा सकता।
किसी भी वर्ष में अगर कुछ भी सकारात्मक और प्रेरणदायक दिख जाए तो उसे एक महत्वपूर्ण उपलब्धि माना जाना चाहिए। खास कर रंगमंच की दुनिया में और बेशक 2022 इस मामले में काफी हद तक यादगार रहेगा।
Posted Date:January 6, 2023
11:01 pm