तलत महमूद : दर्द भरे दिल की ज़ुबां …                 

जाने माने पत्रकार, लेखक, कवि और फिल्म की बेहतरीन और गहरी समझ रखने वाले प्रताप सिंह ने हाल ही में अपनी ताजा पुस्तक ‘इन जैसा कोई दूसरा नहीं’ में अपने ज़माने के अद्भुत गायक तलत महमूद पर एक यादगार लेख लिखा है। 7 रंग के लिए प्रताप सिंह ने अपना यह लेख कुछ अपडेट्स के साथ भेजा है। लखनऊ में 24 फरवरी 1924 को जन्मे तलत महमूद के लिए यह साल यानी 2024 उनके जन्म का शताब्दी साल है। उनके सौवें जन्मदिन पर यह खास लेख 7 रंग के पाठकों के लिए….   

 (उनके मूल स्वर की सरहदें वहीं टिकीं हैं जहाँ उदासियों के नामालूम से मगर पक्के ठिकाने हैं!)

फ़िल्मी-नग्मे, गायक-गायिका की लरजती-मखमली-महकती आवाज में डूब जाना… ये नग्में मानो हमारी उम्र ही चुरा लेते हैं। इन न‌ग्मात की दीवानगी अपना दीवाना बना लेती है। हम उन (नग्मात) के एहसास के स्पर्श से उनकी मधुरता के सुरूर में खोये रहते हैं। ज्यादातर ऐसे नग्मे ‘सदाबहार मधुर गीत’ (Melodious Songs) ही होते हैं या फिर अपनी सरायत (असर) से व्याकुल कर देने वाले ‘करुण-गीत’ ! जिनके लिए तलत महमूद अलग से दिलों में अपनी खास पहचान बनाए हुए हैं। सबको उनकी तासीर और अन्दाजे-बयाँ ही अपनी तरफ झुका लेते हैं।

मेरी पहली पसन्द ‘करुण-गीत’ ही रहे। चाहे वो मुकेश के कंठ की देन हों, या रफ़ी साहब की जाँ-नवाज़ी (अनुकम्पा) और उपज हों। इन दोनों से जुदा शोहरत के मालिक बालानशीं (प्रतिष्ठित) तलत भी उसी कतार में खड़े हैं।  इन तीनों  आवाजों की बादो-बाराँ (हवा-बारिश) में भीगते हुए मुकेश और रफ़ी की बादे-सबा (पुरवाई) तलत से ज्यादा छूती है। लेकिन सुनने वालों को ‘बा-दिलेजारी’ (रोते-दिल) का अनमोल कोई दूसरा एहसास तो तलत-साहब ही कराते हैं। इसलिए उनके तरानों में। गमगीन-लम्हों के शिखर छूने की कला का अपना ही नफ़ीस और जादुई असर है। उनकी ‘साफ्ट-सिल्कन’ आवाज  ने औरों को भी पसीजा और दहकाया है। {इसके प्रमाण भी कम नहीं होंगे। समय-समय पर उस अजीब सी कशिश को चाहने वालों ने कहा ही है।} तलत के कम्पित-सुर जब अपनी तरफ खेंचते हैं तो एक अनदेखा सा बाब (द्वार) दिल की तरफ खुलता है- जो दूसरी तरह के न.ग्मों में आगे चलकर कड़वी तेज शराब (बादा-ए-तल्ख) की महक (बू) का सा भी अहसास करा सकता है। उनके मूल स्वर की सरहदें वहीं टिकीं हैं, जहाँ उदासियों के ना-मालूम से, मगर पक्के ठिकाने हैं।

इसी से यह भी ज्ञात होता है कि प्रेम की असफलता और उदासियों को आवाज़  की कशिश में समेटने तथा गुनगुनी-सी प्रेमिल चाहतों की एक अजीब सी…रूमानियत की लय और लर्जिश में… बुनने वाले …फनकार कुन्दन लाल सहगल के बाद भी हुए हैं। उनमें गायिकी का कद ऊँचा रखने वाला नाम ही– तलत महमूद  है। कँपकँपाती सी…पानी पर लहरते चित्र (नक्शे बर-आब) जैसी इस सम्मोहक आवाज़ के विरह (सदम-ए-फ़िराक) और दु:ख (सदम-ए-हिज़्र) के वही बेजोड़ गायक हैं। सहगल के बाद भावक उनके भी उतने ही मुरीद हैं। साज उनकी आवाज़  का निरन्तर पीछा करते हैं। यूं तो विरह, सुकून और दु:ख की तासीरों को रफ़ी-मुकेश के बाद ख़ामोशी और प्रेम के रिंदाना (मतवाले) गायक/ संगीतकार,  हेमन्त कुमार ने भी खूब समझा-समझाया है पर हृदय की कोमलता और करुणा का कोई मश्शाक (दक्ष) पारखी है, तो वह तलत महमूद ही हैं। उनका सुन्दर सनोबर कद अपनी गायिकी की दीप्ति में मुजस्सम दिखाई पड़ता है। किस आबोहवा और उस्लूब से ऐसे नगीने तैयार होते हैं, इसे किसी जादू से नहीं, इसे दुनियावी-हकीकतों और मुश्ते-गुबार से ही जाना जा सकता है। चलिये- एक मुश्ता.काना (अभिलाषापूर्ण) इब्तिदा करते हैं और तलत महमूद की ज़िन्दगी के वरके पलट कर,  उस बात को भी साबित कर लेते हैं। इसके लिए लखनऊ की सरज़मीं की तरफ़ लौटना होगा, जहाँ 24 फरवरी 1924 को एक गायक पिता के घर तलत महमूद का जन्म हुआ। पिता अपनी खनकदार सूफी-आवाज़  और कुछ उसमें समाई रूबूवीयत को अल्लाह का दिया अनमोल-कंठ कहकर उसे ही समर्पित करने की सलाह देते थे। शायद इसी वजह से केवल नाते (नात) गाया करते। बालक तलत ने भी शुरुआत में अपने पिता की तरह धार्मिक- गीत गाने और उनकी आवाज़ चुराने, उनकी नकल पेश करने की इक्का-दुक्का कोशिशें कीं। पर घर भर में इसे पसन्द नहीं किया गया। उन्हें खुद की रूह तलाश करने और अपनी लय में गाने के इशारे किए गये। तलत के घर में और भी छोटे-बड़े होनहार बच्चे थे। तलत छठी औलाद थे। उन्हें बार-बार संभलना पड़ा। एक बुआ थी घर में, जिनके वह ज्यादा लाड़ले थे। वही तलत को दाद देती और उनका हौसला कायम रखती।

तलत कुछ बड़े हुए फिर पूरे होशो-हवास में भी जिद्दी स्वभाव में बहने के कारण उन्होंने मॉरिस-कॉलेज में संगीत की शिक्षा के लिए दाखिला लिया। यह उनका पसन्दीदा मुकाम रहा। तलत अपने हुनर की पहली मंजिल जल्दी ही पा गये। कमलदास गुप्ता अपनी फिल्म के लिए नयी आवाज़ों को खोज रहे थे। आखिर उनका चयन किया गया और इस तरह एक गीत *सब दिन एक समान नहीं* को उन्हें ही गाने का सुनहरा मौका मिला। यह गीत जब प्रसारित हुआ तो उनके अपने शहर लखनऊ में बेहद लोकप्रिय हुआ। बाकी सबने भी इस नयी आवाज़  की प्रशंसा की। फिर एक घटना हुई जिसने प्रसिद्धि की राह दिखाई। उन्हीं दिनों, [साल भर के भीतर] म्यूजिक रिकार्ड में सिद्धहस्त कम्पनी एच.एम.वी. के कलकत्ता से लखनऊ आने के बाद तलत महमूद की आवाज़  में गाने रिकार्ड किए गये। ये पसन्द भी आ गये तो एच.एम.वी. की टीम ने पाया कि आवाम में भी एक नयी, तर-आवाज़  की दीवानगी,  शकर-लब (मधुर-भाषी)// Sweet Tounge // समझी जा रही है। लिहाजा इन गानों के चलन की सूरत तलत की ही आवाज़  में चार और नये गाने संगीतबद्ध किये गये। रिकार्ड किये गये। गानों में एक मायूसकुन (निराश भावों से युक्त) । गज़ल ने तो तलत की पहचान ही बदल दी। .गज़ल है- **तस्वीर तेरी, दिल मेरा बहला न सकेगी** यह तलत की सेहर-बयान (जिसके बोलने में जादू है) आवाज़ साबित हुई। आखिर इसे फिल्म में शामिल होते देर न लगी।

वास्तव में तलत की शुरुआत बांग्ला-गीतों से तपन कुमार उर्फ स्वप्न कुमार के नाम के साथ हुई थी। उन्हें नायक-गायक भी बनना था। किंचित, इससे पहले का दौर पार्श्व-गायन का पहला दौर था। ज्यादातर,  अभिनेता खुद अपने पर फिल्माए जाने वाले गीत गाते थे। सहगल की लोकप्रियता का एक पक्ष यह भी था। तलत बेचैन थे। 1944 में तलत इस तरह की लोकप्रियता को कमाने के मकसद से और गायक अभिनेता का सहगलनुमा पद पाने की ललक-लालसा लिए कलकत्ता जा पहुँचे। कलकत्ता ही उस समय ऐसे नसीबखोरों का गढ़ था। संयोग से यही वह वक़्त था जब सहगल कलकत्ता छोड़ मुम्बई रवानगी दिखा रहे थे। लिहाजा, तलत उर्फ तपन कुमार की राह थोड़ी आसान हो गयी। तपन कुमार को सब जान चुके थे। तलत फिर भी खामोश थे। तपन कुमार के नाम से उनके सौ से ऊपर गीत रिकार्ड हुए। फिर अगला पड़ाव सामने था। ‘न्यू-थियेटर्स’  उनकी राह देख रहा था।

‘न्यू-थियेटर्स’  कम्पनी ने 1945 में उन्हें चांस दिया। फिल्म ‘राजलक्ष्मी’ में तलत महमूद न केवल गायक बल्कि इस फिल्म के नायक भी थे। संगीतकार राबिन चटर्जी  इसके निर्देशक भी थे। जैसा बाद में जाकर सत्यजीत रे और किशोर कुमार तक की फिल्मों में देखने को मिलता है। सत्यजीत रे और किशोर कुमार अपनी ही कुछ फिल्मों के निर्देशक रहे तो संगीत-निर्देशक भी। विशाल भारद्वाज नये निर्देशकों की कतार में एक ऐसा ही होनहार नाम है। बेशक, प्रयोगशील-प्रतिभाएँ और भी सामने आ रही हैं।

बहरहाल, तलत साहब के मराहिल / अगले पड़ाव की तरफ  लौटते हैं। राबिन चटर्जी ने इस नये नायक-गायक से *जागो मुसाफिर जागो* गाना भी गवाया। इस गाने को सराहना कम नहीं मिली। पर अभी तलत का बड़ा दौर आने में 10-15 साल बाकी थे जब उन्हें ख्याति के नये नशे को चखना था।

फिलहाल राबिन चटर्जी ने उन्हें एक सीढ़ी और आगे बढ़ाया। अब तलत मुम्बई में अनिल बिस्वास से मिलने की हैसियत रखते थे। लेकिन अनिल बिस्वास ने उन्हें देखते ही यह कहकर तंज कसा- “बदन पर थोड़ी चरबी चढ़ाकर आओ मियाँ!” यह उन्हें बुरा तो लगा ही होगा। पर बात सही थी- वे बम्बइया अभिनेताओं के ग्लैमर और पासंग में कुछ दुबले-छरहरे तो थे ही। यह नसीहत उन्हें फिर से कलकत्ता लौटा लायी। इसके बाद तीन-चार साल तक तलत किसी नायक या अन्य किरदार में नहीं थे। 1949 में जाकर दो फिल्में नसीब हुर्इं। ये थीं- ‘समाप्ति’  एवं ‘तुम और वो’। शायद नये दर्शक इनके नाम भी न जानते हों। तलत अपनी मन्दी के इस दौर में मुम्बई की दहलीज पर फिर से जा पहुँचे।

मुम्बई में अनिल दा पहले ही उन्हें देख-जान चुके थे। इस बार अनिल दा ने उन्हें निराश नहीं किया। तब तलत महमूद नायक तो नहीं बन पाए लेकिन सदी के नायक और उस दौर में संघर्ष कर रहे दिलीप कुमार के सम्पर्क में वह जरूर आए। उन दिनों ‘फिल्मीस्तान स्टूडियो’ [1950-51 में] ‘आरजू’  फिल्म के निर्माण में मशरूफ था। दिलीप कुमार शाहिद लतीफ़ के निर्देशन में बन रही उसी ‘आरजू’  के नायक थे और अनिल दा उसके संगीत-निर्देशक। उन्होंने तलत को ‘आरजू’  में परदे के पीछे से गाने का अवसर दिया। याद कीजिए वह गीत जो उनीदे से गमगीन- चुप्पा नायक युवा दिलीप कुमार पर इन बोलों के साथ फिल्माया गया है- ….     **ऐ दिल, मुझे ऐसी जगह ले चल….** । यह गमगीन गीत तलत के नये सुर को भी हिट करने का जरिया बना। एक मखमली सी लेकिन ‘नुफ़ूज़ और नैराश्य के स्वर’  में ही दिल में दाखिल होने वाली यही नयी आवाज़  दिलीप की अदाकारी और रूहानीयत से मेल खा गयी। ‘आरजू’  की गायिकी की मुख्लिसी पर बाकी संगीतकारों ने भी गौर किया। तलत मुम्बई में इस बार जम गये। पसन्द भी किए जाने लगे। अनिल दा के अलावा मौसिकारों में- नौशाद, शंकर-जयकिशन, सी. रामचन्द्र, मदन मोहन और इनसे भी बहुत पहले बुल्लो सी रानी,  हेमन्त-केदार, मोहम्मद शाफ़ी, बाबुल, चित्रगुप्त और वसन्त देसाई [जो उन्हें आजमा चुके थे] सभी मेहरबान होते चले गये।

‘आरजू’  में अनिल बिस्वास ने तलत को करुणा का सागर क्या दिखाया। उसके बाद तो वे उसमें गहरे डूबते चले गए। कदम-दर-कदम बढ़ते पचास के दौर में मौसिकार सी. रामचन्द्र ने 1952 में फिल्म ‘परछार्इं’  में तंज भरे नग्मा-ए-पुरदर्द के लिए तलत की सोज भरी मुब्तला-ए-। गम की चाशनी में डूबती जा रही आवाज़  को ही अवसर देना मुनासिब समझा। अलबत्ता, उस गीत को पहले उन्होंने खुद की आवाज़  में आजमाया। नूर लखनवी के रचे उस गीत के तंज को तलत की नवा आवाज़  ने और धारदार बना दिया। बैकग्राउंड स्कोर में वसंत देसाई और सी. रामचन्द्र का संग-साथ रहा। पर इस गीत की धुन के तार तो सी. रामचन्द्र के ही छेड़े हुए और बोल भी उनके ही अंदाज में क्या खूब सजे-संवरें हैं। ऐसे नाजुक गीत को तलत को सौंपने से पहले [उसे] अपने प्रिय राग / राग-वागेश्वरी में खुद गाकर बताया। उनकी तर्ज और लयकारी इसके बाद तलत की आवाज़ में नयी बुलंदियाँ छूती ही है। .गज़लनुमा इस गीत का मुखड़ा ही नहीं,  म.क्ता तक मुस्तह.क उसी  …  / Deserving / तलत की आवाज़  के रंग और फराइज से ही पहचाने जाते हैं। पहचान बनाते हैं। तलत ने हर बोल को बेक़रार- बेकराँ और बेइख्तियार होकर गाया है। इसका मत्ला है-

“मोहब्बत ही जो ना समझे, वो जालिम प्यार क्या जाने।

निकलती दिल के तारों से,  है जो– झंकार क्या जाने ।।..”

शांताराम पर फिल्माया गया यह गीत अपनी रुहदारी से आज भी जगमगाता है।

साठ का यह दौर एक दशक तक उन पर मेहरबान रहा। उसकी चर्चा कुछ देर बाद की  जानी चाहिए। जो बुल्लो सी रानी के संगीत-निर्देशन में चमकी फिल्म ‘अब्दुल्ला’  के लिए लिखे गये शेवान रिजवी के गमगीन गीत- ‘माँगने से जो मौत मिल जाती’  ..  साथ ही,  दूसरी तरफ, वही मदन मोहन के संगीत तथा राजेन्द्र कृष्ण के ही कुछ गीतों की शिगुफ्तगी या शिक्वे-शिआर वाले शायराना मिसरों की बानगी के साथ तलत की आवाज़  को परखने वाला युग भी कहलाया। मदन मोहन ने ‘जहाँआरा’  समेत हिन्दी-फिल्मों की जो धुनें दी हैं और गीतों को नयी ‘सिम्फनी’ से जो एक अलग रंगत दी है,  उसमें तलत की अपनी रियाज़  से,  अपने ढब के सुर में ढाले होने का करिश्मा भी शामिल है। फिल्म ‘बहाना’  के एक गीत का टुकड़ा ही इसे इशारतन समझा देता है। मसलन यह बोल- *तेरी निगाहों में, तेरी ही बाहों में*  जिसमें तलत का, आशा भौंसले ने क्या खूब साथ दिया है। लेकिन बात तो फिलहाल 1949 में हिट रही ‘बरसात’  की होनी चाहिए। जिसने शंकर-जयकिशन को (जिन्होंने बाद में तलत को भी गवाया) नौशाद का प्रतिद्वन्द्वी बना दिया। उस समय मुकेश शंकर-जयकिशन के खेमे के गायक थे। रफ़ी या मन्ना डे भी शंकर-जोड़ी की निगाह में उतने नहीं आए थे।

नौशाद साहब ने अचानक ‘बाबुल’  में रोशन-खयाल एक नयी पेशकश तलत से गवाने का फैसला किया। मानो वह मुकेश को टक्कर देकर शंकर-जयकिशन को कुछ जताना चाह रहे थे। वैसे नौशाद तलत को बरत चुके थे। इस बार फिल्म ‘बाबुल’  में दिलीप कुमार,  नौशाद और खुद तलत की बानगी से कुछ चमत्कार होने वाला है,  ऐसा सोचा गया। गीत भी ऐसा—**मिलते ही आँखें, दिल हुआ, दीवाना किसी का।** यह युगल-गीत शमशाद बेगम का रवाँ- रामिश प्राण-गीत// भी कहलाया। इस दो- गाने का सम्बन्ध दो रूहों की आशिकी-सा असर पैदा करने वाला साबित हुआ। यह साल तलत के लिए इनायतें और खुशियाँ लेकर आया। कई संगीतकारों ने नयी धुनों को रचा और उनसे करीबन 16 गाने गवाये।

उधर,  मुकेश अपना मुकाम बनाते ही जा रहे थे। राजकपूर की फिल्में मुकेश की तरल और मानीखेज़् …‘माजरा-ए-दिल’ [प्रेम-गाथा] बयान करने में सिद्धहस्त होती जा रही आवाज़  के दम पर भी,  अमीर होती जा रही थीं। इन मुआसिर- आवाज़ों के बीच मोहम्मद रफ़ी खुद मुकेश से नग्मासरी में अचानक आगे निकल गए। सबने देखा-जाना!! तब ‘दुलारी’, ‘शहीद’, ‘मेला’  और ‘बैजू बावरा’ के गीत और इन फिल्मों की नग्मगी ही रफ़ी और नौशाद साहब की असल पूँजी थे। इन दोनों की लोकप्रियता चार चाँद लगा रही थी। नौशाद और तलत ने कई बार तो रफ़ी का दामन भी थामा।

इस बीच, नौशाद की तरफ से तलत को और बुलावा ना आया तो उन्हें झटका लगा। सिगरेट के शौकीन तलत की यही आदत उन्हें नौशाद से जरा दूर ले गयी। नजरअन्दाज  होने लगे। पर गायिकी के बाजार में बने रहे। दूसरे संगीतकार उन्हें मौके देते रहे। यह पचास का दशक था और तलत के मझधार में होने की वजह उनके नायक बनने की अभिलाषा का बने रहना भी था। उनकी गायिकी सबके दिलों में जगह बनाने लगी थी मगर उनका दिल कहीं और अटका था। यही उनकी नकाहत (weakness) एक बड़ा गायक बनने में आड़े आ रही थी। साठ का दशक अभी दूर था, जिसने उन्हें शौहरत बख्शी।

शायद तलत खुद इसे कबूल नहीं कर पा रहे थे कि वह गायिकी के .कासिद (दूत) हैं। पर अभिनय में ख़ूबसूरत चेहरे के बावजूद कासिर ( ineffective )          हैं। इसी कारण गानों की रफ्तार, बीच-बीच में कम होती जा रही थी। अपनी शौहरत से उन्हें तसल्ली नहीं मिल रही थी। वे खुद को आईने में नायक की सीरत से देख रहे थे। ऐसी सीमाब-सिफ़त [पारे के समान चंचल/ डाँवाडोल] हालत में भी उन्हें 13 फिल्मों में नायक बनने का मौका जरूर हासिल हुआ। उनके उस दौर की बड़ी अभिनेत्रियाँ थी— सुरैया,  माला सिन्हा,  नूतन आदि। सोहराब मोदी उनकी दिली-कमजोरी से वाकिफ थे और ^^शुक्रिया प्यार तेरा^^ .गज़ल के साथ उन्हें परदे पर गाते देख रहे थे। ‘मिनर्वा-मोनीटोन’ की वारिसियत में उन्होंने एक फिल्म ‘वारिस’ नाम से प्लान की। तलत को सुरैया जैसी चोटी की अभिनेत्री के साथ नायक बनने का सुनहरा अवसर प्रदान किया। अब ए. आर. कारदार भी जोखिम उठाने को तैयार हो गये। कारदार साहब बड़े निर्देशक थे। उन्होंने चाँद उस्मानी जैसी तारिका का नायक तलत को ही चुना। फिल्म का नाम रखा- ‘दिले-नादाँ’। इसके बाद की उनकी याद रह गयी फिल्मों में शायद ‘एक गाँव की कहानी’  की चर्चा कुछ समय तक खूब होती रही। ‘डाक बाबू’  को दर्शकों ने भुला दिया। इस सारी कवायद का असर गायिकी पर पड़ा। तलत,  गायिकी से (खुद की फिल्मों के अलावा) दूर रहकर हाशिये पर आ गये। उधर रफ़ी साहब छा गये।

## अंजाम अभिनय से आशिकी का ##

हाशिये पर आ गये युवा तलत के लिए अब भी ‘आईना’ अदाकारी की ख्वाहिश का लुभावना जरिया बना हुआ था। आईने की सीरत अक्सर धोखा देने वाली हुआ करती है,  इसे सपनों की शहतीर पर झूल रहे तलत महसूस नहीं कर पा रहे थे। उन्हें तो अदाकारी के जौहर से, अपनी जिद और नाजुकमिजाजी से साकि.ब (प्रकाशमान) होना,  ख़्वाबों में सन्दक दिख रहा था। अभी तक आवाज  के मुरीद निर्देशक उन्हें नायक बनाने को भी तैयार थे। पर सब जानते थे कि यह सुरेन्द्र या सुरैया साबित नहीं हो सकते। सहगल जैसा नायक-गायक बनकर टिके रहना सबके बस का कहाँ था। बेशक,  सहगल एक नज़ीर बन चुके थे। परन्तु युग करवट ले रहा था। तलब कैसी भी हो,  बिना हुनर के टिकी नहीं रह सकती। (यूँ– मदन मोहन भी हीरो बनने के इरादे से फिल्म-नगरी में आए थे।)

तलत साहब के लिए यह जमीन पर आने और आसमानी- चाहनाओं से टकराकर सबक लेने का समय था। इसकी मिसाल बनी फिल्म~ ‘सोने की चिड़िया’। नरगिस की ज़िन्दगी को प्रतीकात्मक रूप में परोसने की चाह लिए…इस्मत चुगताई ने इसकी कहानी लिखी। उनके शौहर शाहिद लतीफ़  पैसा लगा रहे थे और ‘सोने की चिड़िया’  से कमाना भी खूब चाहते थे। शाहिद लतीफ़  के निर्देशन में उनकी लाजवाब नायिका नूतन के सामने दो नायकों में से किसी एक को नायक या उपनायक बनना था। अभिनय की बारीकियों से वाकिफ बलराज साहनी की जगह तलत महमूद का नायक बनना भी नाइंसाफी हो सकती थी। पर तलत की ‘धमकी’  कहें या ‘जिद’  ही फलीभूत कई जगह हुई। ओ.पी. नैयर इसकी धुनें तैयार करते वक्त तय कर चुके थे कि – ^^प्यार पर बस तो नहीं !^^ गाना मोहम्मद रफ़ी ही गाएँगे। यहाँ भी तलत मचल गये और अपनी शमाइल (habit)      से खुद आजिज (बेबस) होते हुए उस फिल्म के संगीतकार (नैयर) और निर्देशक (शाहिद लतीफ़) दोनों को ही बेबस करने पर आमादा हो गये। इसके लिए तलत ने फिल्म बीच में ही छोड़ जाने की धमकी का सहारा लिया। ^^प्यार पर बस तो नहीं^^.. की तरह ही जनाब तलत पर भी किसी का ‘बस’ नहीं रह गया था। लिहाजा, उनकी ‘साकिए-कम-निगाही’ (साकी जैसी उपेक्षा) उनके हक में कारगर हुई। आज हम बेशक **प्यार पर बस तो नहीं**.. की तलत की आवाज़ की कारीगीरी के मुरीद हो सकते हैं,  लेकिन इस मौके की दूसरी नाकर्दा-सूरत

ने मोहम्मद रफ़ी को भी कितनी तकलीफ पहुँचाई होगी और ओ.पी. नैयर को भी दिली-चोट दी होगी। रफी इसे गाते तो इस गाने की परतें और तअसुर और जौपाश तथा शुद्ध रसिकता शायद उसकी तासीर ही बदल देते। तलत के स्वर की स्वरलिपियाँ कम खूबसूरत नहीं हैं पर एक ठहराव है जो इस खूबसूरती को लहजे में कैद किए रहता है। रफी साहब इसके मोहताज नहीं हैं। उनकी शरफयाब (सफल) कोशिशें ज्यादा वजनी हैं। वही गायिकी की अनगिनत शैलियों के सरताज और मोजिज़-बयाँ (उत्कृष्ट) हैं। बेशक, वहाँ तलत के हुनर का चमत्कार न हो। तलत हो सकता है अपने फिक्रोफन की फिक्र में यह अंजाम दे बैठे। अपनी गर्दिश में घबरा कर हाशिये पर- आने पर कोई ऐसा कर बैठे तो क्या हो सकता है। वर्ना तो तलत खुद रफी और मुकेश दोनों के खुद बड़े मुरीद समझे जाते हैं।

^^सुहानी रात ढल चुकी..” रफ़ी से बेहतर कौन गा सकता था,  शायद कोई नहीं। इस कारीगीरी की दस्तागाह (योग्यता) से तलत भी वाकिफ रहे हैं। बाद में यह एहसास उन्हें गम की अंधेरी रात में रफ़ी के साथ गाते हुए,  हुआ होगा। यूँ एक गाना तो तलत ने मन्ना डे, जोगिन्दर,  हेमन्त कुमार और मुकेश के साथ भी, संगत में गाया हुआ है। मुकेश की खातिर,  तलत कितना झुक सकते हैं और उनके गर्दिशों के दिनों में कैसे दोस्ती निभाते हैं,  यह भी उस दौर में हुआ। यह वासिता (मित्रता) कितनी गाढ़ी थी।

बात ‘मधुमती’ फिल्म के निर्माण के दिनों की है। बिमल राय ने सलिल चौधरी पर सब छोड़ा हुआ था कि- दिलीप के लिए  { किसकी आवाज़ } ‘करीबीयत’ बेहद महसूस करा सकती है?…तलत दिलीप के लिए नौशाद अली की सोहबत में ‘बाबुल’ के लिए स्वर दे चुके थे। अब सलिल चौधरी भी तलत की आवाज़ की लरज़ और शबाहम (शक्ल/ आकृति/ साम्य) के लम्स (स्पर्श) का जादू, आजमाना चाहते थे। लेकिन खुद तलत और विधि के विधान को शायद यह मंजूर न हुआ।

मुकेश उन दिनों बिना काम के ख़ामोशी में दिन काट रहे थे। तलत ने सलिल साहब को पटाया। उन पर जोर डाला और खुद जिस बेशकीमती बेल-बूटों से सजे गीत को गाना तय हुआ था- उसे खुद मुकेश की झोली में डाल दिया। सबने देखा,  ‘मधुमती’  में किस तरह मुकेश ने दिलीप कुमार के लिए आखिरी बार गाया।

तलत में गीतों की मार्मिकता को बनाए रखकर उन्हें उनकी अर्थध्वनियों के अनुकूल धुनों में ढालने-पिरोने की गजब की समझ थी। जैसे एक कवि अपनी सोच को अल्फाज़ और लयबद्धता के हवाले करते हुए नयी-नयी कल्पनाएँ करता है। तलत साहब भी उन पंक्तियों में छिपी मर्म की बात को मौसिकार की बनाई ऐसी धुनों में बुनते थे, जो केवल कोई-कोई गायक या संगीतकार बिना मुश्किल के हासिल करता है। तलत कवि की तरह ‘स्वेरकल्पना’ (फैंटेसी) से धुनें निकालने के भी माहिर थे। “गमे आशिकी से कह दो…”  गाने की धुन तलत ने ही तैयार की थी। मौसिकी में गायकों की जानकारियाँ अक्सर बहु-सीमित ही समझी जाती हैं। बन्दिशों के आलाप या अवरोह या पिरन-फिरन तक उन्हें सीमित मानते हुए मौसिकार उन पर अलग से मेहनत करते देखे गये हैं। पर तलत, मन्ना डे इसके अपवाद हैं। तलत चाहते तो आगे बढ़कर संगीतकार भी बन सकते थे। लेकिन आख़िर उन्होंने गायिकी के परिसर में ही बेहतरीन कामयाबियाँ हासिल कीं।

## जलते हैं…जिसके लिए : गीत की ऊँचाइयाँ ##

साठ के दशक में तलत ने अपने सुर-स्वर / आवाज  के रंग-अन्दाज की ऊँचाई और ढलान एक साथ महसूस की। तलत 1966 तक गायिकी के सिंहासन की बादशाहत कायम रख सके। ‘सुजाता’ का गीत, ***जलते हैं…जिसके लिए*** तलत की जादुई – आवाज़  के हुनर का,  हमेशा दिलों में रफ्ता-रफ्ता यादों की खुशबूओं का पता देने वाला अमर-गीत है। लेकिन सुर की उनकी यह- नुमाइन्दगी बेहतरीन- गीतकारों, कामिल- मौसिकारों और सहगायकों तथा सहगायिकाओं की बदौलत भी चलती रही।

1952 में ‘फुटपाथ’ फिल्म के अपने पहले ही गीत से सबके दिलों में जा बसे तलत गायिकी में .गज़ल और दर्दीले- गीतों के सरताज कहलाए। आज भी उन दिनों की तड़प / हूक का अहसास ‘फुटपाथ’ के उसी गीत की पंक्तियों में जज्ब है और हर अगली पीढ़ी उसे गुनगुनाना नहीं छोड़ती। गीत के बोल तलत की आवाज में डूबकर किसी टूटे हुए दिल की कशिश की मुकम्मिल तस्वीर पेश करते हैं:-

“शामे गम की कसम / आज गमगीन हैं हम!

आ भी जाऽ आऽऽ भी जा / आ भी जा, आज मेरे- सनम!!

दिल परेशान है / रात वीरान है…

देख, ना… किस तरह तन्हा हैं हम!!!

चैन कैसा जो पहलू में… तू ही नहीं!

मार डाले ना दर्दे – जुदाई…  कहीं!!

रात हँसी है तो क्या…

चाँदनी है तो क्या….

चाँदनी है जुरम और जुदाई कसम

शामे -.गम की  कसम / आज  गमगीन हैं  हम!!!

***

‘फुटपाथ’  फिल्म का यह गीत भी तलत की पहली बार रिकार्ड हुई आवाज़  में दिलीप कुमार पर फिल्माया गया था। नौशाद ने कभी तलत जैसे मुगन्नी को परखा था तब भी यही कहा था- तलत ने बड़े ही मकसूम (प्रारब्ध/भाग्य से जुड़े) किस्म के गाने गाये। बड़ी ही संजीदा आवाज  थी उनकी। इस आवाज  की पहरेदारी गमगीन-गीतों में ज्यादा काम आयी। अनिल बिस्वास के संगीत-निर्देशन में ‘आरजू’ का एक गीत भी कुछ ऐसे ही अमर हुआ कि देर तक अपने असर को बनाये रखने वाले गीतों की पंक्ति में जा खड़ा हुआ:-

**ऐ दिल मुझे ऐसी जगह ले चल…

जहाँ…  कोई न हो !!**

***

तलत सुख-दुख से ऊपर उठकर तमाम तक्लीफों और मुश्किलों का इजहार करने वाली शायरी से भी परे,  इच्छाओं,  सपनों,  प्रेमिल- क्षणों को भी नयी बन्दिशों में पिरोने वाले सिद्ध गायक हैं। एक गहरे विराग-अवसाद को गाने के बाद उन्हें अनुभूतियों के दूसरे  आँगन में उतरते देर नहीं लगती। कमलदास गुप्ता के संगीत निर्देशन में गाया यह गीत इस नये इजहार का सबूत है:-

“तस्वीर तेरी.. मेरा दिल…

बहला ना सकेगी।”

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ये सौगातें तलत की खनक और बुलन्दी की भी पहचान हैं। ऐसे ही कई नग्मों की लड़ियाँ दुखी आशिकों को तसल्ली देती हैं। कई नग्में तो ऐसे हैं, जिन पर हर कोई निसार है। उनमें से कुछ ‘टुकड़े’  देना मुनासिब होगा।

“मेरा जीवन- साथी .. बिछड़ गया..।”

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“तेरी आँख के आँसू.. पी जाऊँ।…

ऐसी मेरी तकदीर कहाँ..!!”

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“तूफाँ ये.. मेरे दिल से उठा है…

चाहो तो तुम.. यह अपने.. दामन में भर लो!!”

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‘पतिता’ का गीत-“हैं सबसे मधुर, वो गीत..जिन्हें..हम दर्द के सुर में…गाते हैं!!”  उसी तलत की याद दिलाते हैं जो दर्दीले-सुरों से पहले से ही मालोमाल हैं। ‘पतिता’ फिल्म का एक गीत तो बस उस माधुर्य से लबरेज होने की गवाही दे रहा है जो एक विपर्यय-अवस्था को भी संज्ञित करने वाला है और समाज के आँसुओं से खुद को सजाने वाले सिनेमा का हमसफ़र है।

क्या तलत खुद रफ़ी, मुकेश की तरह ही इस ‘मानवीय-करुणा’ और ‘आह’ या ‘रूसवाई’ की बयानगी की रूह में धँस नहीं गये हैं। इन तीनों ने .गम के नग्मों को तरजीह दी है तो अपनी मस्ती में बगोर्बार और बर्गेगुल की महकती जवाँ-दुनिया के इशारों को भी समझाया है। कम-अज-कम तीन गीत तो तलत ने भी बड़ी मासूमियत से इस हलके में भी अपने नाम दर्ज कर लिए हैं।

ये गीत हैं:-

“ये हवा, ये रात, ये चाँदनी…

तेरी इक अदा पे निसार है!!”

***

“वही चाँदनी,…. वही आसमाँ है।“

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“राही मतवाले… ऽऽऽ !!”

***

मतवाली,  हसीन- दुनिया में भी रमाये रखने की खास-अदा से सजे इन गीतों के अलावा मर्म भरी कोई बात कहकर,  फिर से दिल में उतर जाने की जादुई-कला ही उनकी आवाज़  का मर्कज़  और खासियत है। उनकी दूसरी गायिकी और उनके सुरूर (नशे) की, (सैले-अश्क) में गीतों के जरिये उदास रखने की कवायद से अलग पहचान कभी-कभी भारी पड़ती है। कहा तो यहाँ तक जाता है- सहगल को मुकेश तक ने अपनी आवाज  में ढालने की पुरजोर कोशिश शुरू में की। लेकिन तलत साहब की बाबत यह बात मशहूर हुई कि उनकी नकल नहीं हो सकती।

अलबत्ता, शुरू के दौर में संगीतकार अनिल बिस्वास ने तलत को एक तज्वीज  दी,  जो उनके जिन्दगी भर काम भी आती रही। यही कि- तुम्हारी आवाज़ की लरज यानी सुर का कम्पन ही तुम्हारी खासियत है, इसे…कभी मत छोड़ना।…कभी मत खोना !!”

## नग्में / मौसिकार और गीतकार ! ##

सुर का यह कम्पन उन्हें कुदरती हासिल हुआ था। तमाम तरह के नग्मों में यह रचा-बसा रहा। दो सौ फिल्मों में- उनके करीबन 500 फिल्मी गाने तथा 250 गैर-फिल्मी गीत दर्ज हुए। कुल 777 गाने गाये ! इतना ही नहीं, एक पाकिस्तानी फिल्म *‘चिरा.ग जलता रहा’*  के लिए भी मौसिकार निहाल मोहम्मद की खातिर, उन्होंने दो गाने गाए। उनके इस खजाने को उपजाऊ बनाए रखने में नग्मों,  उनके रचनाकारों और उस दौर के अहम संगीतकारों तथा बड़ी-गायिकाओं का बड़ा हाथ था। हालाँकि, उनकी अपनी मस्रूफ़ियत ( कान्सन्ट्रैशन ) से और मश्क (अभ्यास) से भी इस फ़न को हासिल किया गया था। उन्हें साठ के दौर में दिग्गज- फ़नकारों की सोहबत हासिल हुई। बेशक, इसकी पहल बुल्लो सी.रानी के उस गीत से समझी जाती है। जिसका जिक्र हर कोई करता है और यहाँ भी, पहले ही वह बयाँ हो चुका है। उस गीत की ग़मगीनी ने गोया तलत के गाये बाकी उदास-गीतों का प्रतिनिधित्व किया हो। गीत के बोल ही कुछ ऐसे हैं:- “माँगे से जो मौत मिल जाती।..”  इसे शायरी की जमीन छोड़ फिल्मी-दुनिया में रमे शेवान रिज़वी ने लिखा था। ऐसे गीतों की मीआद बहुत कम हुआ करती। पर उनके मुआसिर (समकालीन) भी मानो दिल से मातूब (पीड़ित) थे तभी ऐसे कलाम शायरी में भी सामने आ रहे थे। राएगाँ (बरबाद) हो चुके किरदार इन्हें फिल्मों में तलत, मुकेश, रफ़ी की जुबानी भी बयाँ कर ही रहे थे। “माँगे से जो..” मौत मिल जाती  का इस्रार शायरी में तो पहले से ही बड़े-बड़े शायरों का ‘दर्शन’ था पर फ़िरा.क तक ज़िन्दगी से मानो परेशान थे और उन दिनों कलाम में इल्तिजा कर रहे थे- “मौत का भी इलाज हो शायद / ज़िन्दगी का कोई इलाज नहीं।“

तलत इस निराशावाद को अभिव्यक्त करने वाली सर्वोत्तम आवाज  मान ली गयी थी। उन्होंने अपनी इस छवि में तो कोई सुधार नहीं किया क्योंकि सहगल ने इस धुन्ध को छँटने का मौका ही नहीं दिया और ऐसे गीतों का भी अपना एक बाजार था। लेकिन तलत जब सलिल चौधरी,  हुस्न लाल भगत राम,  चित्रगुप्त, मोहम्मद शफ़ी,  शिवराम,  वसन्त देसाई,  बाबुल, शंकर-जयकिशन,  नौशाद, सी. रामचन्द्र,  दिलीप ढोलकिया,  राम गांगुली,  हरबंस,  सुशान्त बनर्जी,  रोबिन बनर्जी, रवि जिम्मी, रामचन्दर पॉल,  जयदेव,  सज्जाद हुसैन, मदन मोहन, कल्याणजी-आनन्दजी,  एन. दत्ता, खय्याम, लच्छीराम, सी. अर्जुन, एस.एन. त्रिपाठी, रॉय, फ्रेंक, भारत मेहता,  हेमन्त कुमार,  धनीराम और बी. एन. बाली  जैसे नयी धुनों के रंगफ़िशाँ-संगीतकारों की पाठशालाओं में तजुर्बे हासिल कर रहे थे। उन्हें आवाज़ के एक से बढ़कर एक नये मंजर भी तब हासिल हुए। यहाँ उनकी कलाओं और संगत की कुछ तो नुमाइश वाजिब होगी। ‘अदम’ भी उस निराशावाद और ‘अध्यात्म’ की राह से तंग आकर बहुत पहले कह चुके हैं…** कुछ शराफ़त से काम ले वाइज़, वाज  को छोड़, भाग कर मय ला!

सिनेमा इसी तरफ ज्यादा झुका रहा और फिर मय (शराब) की मस्ती ने जो नायक-नायिकाओं को तलत की आवाज  में भी ऐसे तराने गाने का सुनहरा मौक़ा दे ही दिया–**आँखों में मस्ती शराब की, काली जुल्फ़ों में रातें शबाब की!!**  सुनील दत्त,  आशा पारेख की जोड़ी पर यह गाना फिल्माया गया था। सलिल चौधरी ऐसी धुनों के भी आला-मास्टर थे। ये धुनें तलत जैसे गायकों की लयकारी पर फबती थीं। ‘छाया’  फिल्म का यह गाना तो हिट था ही। पर इसी फिल्म का जो ‘दो-गाना’  बेहद मशहूर हुआ उसमें ‘अनुस्वार’ के रहते सेहर-बयान तलत की आवाज़ और ज्यादा खिली-खिली और खुली-खुली थी। लता के संग गाये गये इस गाने के बोल भी राजेन्द्र कृष्ण की कलम को चूमने की सलाह देते हैं। बोल हैं:-

**इतना ना मुझसे प्यार बढ़ा…  कि… मैं एक बादल… आवाराऽऽऽ !!

जन्म-जन्म से हूँ साथ तेरे

है .. नाम मेरा… जल की धाराऽऽऽ  !!!

मुझे एक जगह आराम नहीं… ! रुक जाना मेरा काम नहीं…!!

मेरा साथ कहाँ तक दोगी तुम…

मैं जन्म–जन्म का बंजाराऽऽऽ  !!!**

*-*-*

मदन मोहन की तरह सलिल चौधरी ने भी इस आवाज़  को कई मुखड़ों में तराशा था। डूबकर लिखे गये गीतों के जौहरी (संगीतकार) कभी तलत की आवाज़ को नये पंख दे देते थे तो कभी लम्बी बहर के गानों में भी सुरों की रेज़  (बिखरने के क्षण) में, उसी पल थाम लेते थे। सलिल चौधरी ने ‘प्रेम-पत्र’ (1962)  फिल्म में–गुलजार (सावन की रातों में) और राजेन्द्र कृष्ण (ये मेरे अँधेरे उजाले ना होते) के नग्मों की सूरत भी तलत को आजमाया। –‘सावन की रातों  में’– गाना उन्होंने फिर लता के संग गाया।

मदन मोहन के जोड़ीदार केवल तलत जैसे गायक या आशा भौंसले,  लता ही नहीं- *हकीकत* जैसी फिल्म में तो रफ़ी, मन्ना डे, भूपिन्दर सिंह भी रहे। लेकिन कुछ कमाल इन सभी गायकों के लिए राजेन्द्र कृष्ण और क़ैफी आज़मी की कलम के जादू से भी बरपा था। 1960 के दौर की ‘बहाना’  में मदन मोहन की धुनों ने तलत की, एक गाने (< बेरहम आसमाँ.. मेरी मंजिल बता है कहाँ ? >)  में दोहरी आजमाइश की। तो पता चला कि तलत ‘गमगीनियत’  को  ख़ूब निभा सकते हैं। सो 1964 की दो फिल्मों ‘जहाँआरा’ और ‘हकीकत’  में इस ‘गमगीनियत’ और ‘जुदाई’ के गानों की झड़ी लगा दी। साथ ही ‘सनम’ और ‘सुरूर’ की भी चाहतों की बरसात करवा दी। फिल्म ‘जहाँआरा’  के,  राजेन्द्र कृष्ण के लिखे ‘तनहाई’ और ‘गम’ से लबरेज  गाने तलत ने तसल्ली से और दूर तक सन्नाटा चीरती,  पर फिर भी,  खामोशी के लम्हों से गुजारती आवाज़  में पेश किए हैं।

एक गाना लता जी के साथ “ए सनम आज ये कसम खायें“  उनसे पहले गवाया। इस फिल्म का हासिल गाना (जो फिल्म में पहले परदे पर रोशन हुआ) **फिर वही शाम, वही तन्हाई है** और **तेरी आँख के आँसू पी जाऊँ..**आज भी उसी मुकाम पर हैं। ‘जहाँआरा’  फिल्म में ही एक गाना मोमिन की शायरी की छाया से लबरेज है। पर इसका गीतकार कइयों की तरह इस आदत से बाज नहीं आया है। अलबत्ता,  वह अपने दौर का प्रतिष्ठित और मक्बूल नाम है। इसी कारण, ^^मैं तेरी नजर का सुरूर हूँ, तुझे याद हो कि ना याद हो,^^  मोमिन की ग़ज़ल (कभी हममें तुममें भी प्यार था, तुम्हें याद हो कि ना याद हो) की जमीन पर रखे जाने पर भी उन्हें ख्यात करता है। इसके अलावा फिल्म ‘चाँदी की दीवार’  के गीत- **-लागे तोसे नैन-** (आशा जी के संग गाया गाना) से एक खूबसूरत माशुकाना पड़ाव तलत को हासिल हुआ लगता है। ‘हकीकत’  फिल्म में .कैफी आज़मी की शायरी का अपना रंग है। इस फिल्म के दृश्य-बिम्बों के अनुकूल तीन-चार आपस में घुल-मिल जाने वाली आवाजों (तलत, रफी, मन्ना डे और भूपिन्दर सिंह) के पेचोखम से लहराती . कैफ़ी की नज्म में खुद की कहन (कथा-काव्य) की ताकत भी दिखाई पड़ती है। तिस पर मदन मोहन की रेशमी- धुनों की लड़ियों ने भी उन्हें क्या खूब  फिल्म में तलत की आवाज  के शिखर छूती हैं। इस गाने में शायद तलत की आवाज़ का कम्पन भी महसूस नहीं होता। फिल्म ‘सुहागन’ में बेशक मदन मोहन और हसरत जयपुरी कमजोर हैं। एन. दत्ता की **लागे तोसे नैन**  या **अश्कों ने जो पाया है** जैसी जुदाख़याली यहाँ संभव नहीं हो सकी। पर ‘सुहागन’  के गीत की टकसाली- पंक्तियाँ (-तुम्हीं तो मेरी पूजा हो-) कारगर साबित हुर्इं। नौशाद भी तलत की ताब के पासवान रहे हैं। ऐसे इलाही के इर्फ़ान /Wisdom / विवेक से तलत की गायिकी पुख़्ता हुई थी। पर साठ के दौर में नौशाद और शंकर-जयकिशन की आवारा-सुरों को साधने वाली ‘वर्कशाप’  में तलत कुछ देर से पहुंचे थे। जनाब सरवर को शायरी से लदी –‘प्यार की दास्तान’–जैसी फिल्म 1961 में किसी [दूसरे] ‘नौशाद’ के फेर में ही कुछ पहले तलत के हिस्से में आयी। वास्तव में इसके संगीतकार जनाब ‘नाशाद’ थे। सुमन कल्याणपुर के साथ *सुन ले मेरी जान*  गाकर निकले, तो यह रहस्य खुला। नौशाद साहब ने उन्हें ‘बाबुल’ में एक बड़ा गाना… ***दीवाना किसी का*** गवा कर परख लिया था। 1968 में “आँधी” बनी तो वहाँ शकील बदायूँनी मौजूद थे और रफी साहब और तलत तब तक एक-दूसरे के मुरीद बन चुके थे। रफी ने इस फिल्म में तलत का पूरा साथ दिया है। गाना है- ** कैसी हसीन आज बहारों..!”** नौशाद ने यहां दोनों को साथ-साथ शिखर छूते देखना चाहा।

साहिर और शकील तक के गीत पूरे मन से गाने वाले तलत शैलेन्द्र के जादू से भी वाकिफ  थे। उन्हें इस जादू के राज में अपनी आवाज  के जरिये प्रवेश करना था। शंकर-जयकिशन ने “एक फूल, चार काँटे” में उन्हें इसका पहला मौका दिया। हालाँकि, तुकबन्दी थी पर तलत _दिल एक दिल, बहारों से मिल_ गीत की मार्फत उसे सादगी से निभा ले गये। अगले साल ‘रूप की रानी, चोरों का राजा’ (1961)  के लिए भी शैलेन्द्र का एक गीत _तुम तो दिल के तार…” और हसरत जयपुरी का सुरुरभरा कलाम- **सुनो भाई! हमने पी ली है** थोड़ी सी गवाकर शंकर-जयकिशन ने नौशाद स्कूल के इस गायक को मनचाहा मौका दिया। पर मुकेश को ही अव्वल रखा। उसी साल संगीतकार बाबुल को राजा मेहन्दी अली खान का लिखा फिल्म ‘रेशमी रूमाल’ का एक हिट गीत तलत की आवाज  में अपना असर छोड़ने वाला, परदे पर धूम मचाने वाला हासिल हुआ। उस गीत का मुखड़ा (–जब छाये कभी सावन की घटा–) शंकर-जयकिशन ने भी सुना होगा जो तलत को दोयम मानकर चल रहे थे। ‘सावन’  को ही केन्द्र में रखकर भरत व्यास ने वसन्त देसाई की खातिर, ‘प्यार की प्यास’ (1961)  फिल्म के लिए एक गीत रचा- -*सावन के झूले पड़े।*- तलत ने इसे लता जी के संग गाकर नयी सरगम जैसी उपज पायी। इससे पहले,  इसी साल तलत की राहबरी में संगीत के राजे हयात खोल चुके उस दौर के मौसिकार हुस्नलाल-भगतराम ने मौसमी-गीतों से एक सनसनी पैदा की। फिल्म ‘अप्सरा’  में भी कमर जलालाबादी को हसरत के साथ भरपूर मौका दिया और तलत और आशा भौंसले को भी !! तलत और आशा के दो-गाने:- _है जिन्दगी कितनी हसीन,_ और _तू मेरे साथ, मैं तेरे साथ_ खूब हिट रहे।

अलबत्ता, यह साल तलत का रहा और सलिल चौधरी का भी!! जिन्होंने -‘उसने कहा था’- फिल्म के लिए शैलेन्द्र,  तलत और लता से एक मखमली ऋतु-गीत हासिल किया और उसकी महक से सबको तर कर दिया। गीत के बोल हैं:- ~~~अहा! रिमझिम के प्यारे-प्यारे गीत लिए।~~~ कुछ गाने और तलत को अमर कर गये जिनके फनकार संगीत-गीत और सुरों के भुला दिए गये हस्ताक्षर हैं। “…खोये-खोये हम, चाँद मेरा बादलों में खो गया,..देख ली तेरी खुदाई,..मिल के भी हम मिल ना सके,.. इतने करीब आ के भी,…  ये किस मंजिल पे ले आयी,..जरा कह दो फ़िजाओं से,”..और~~ .गम की अँधेरी रात में…”  चन्द ऐसी ही अमर रचनाएँ हैं,  जिनकी रोशनाई लासानी है और रहेगी। ‘आशियाना’  के दो गाने भी तलत की आवाज की मिसाल रहे हैं।

एक अरमान भरे दिल की ये सौगातें तलत से बा.जौ.क – दुनिया ने लूट लीं और तलत बदलते दौर में अपनी गायिकी की बादरफ़्तार को छोड़ कर खुद तन्हा हालत में अपने फराज (शिखर/ऊँचाई) से नीचे आने को विवश हो गये। उन्होंने अभी तक पीछे मुड़कर नहीं देखा था। हरदिल – अजीज तलत ने कभी तपन कुमार के नाम से फिल्मी, गैर-फिल्मी गीतों से बड़ा कद हासिल किया था। पर इसका उन्हें कोई गुमान न था। बांग्ला-गीतों से मुड़कर फिर उन्होंने फिल्मी गीत-मालाओं के दर्दीले-जजीरे तलाश किए थे।

1945 में ‘राजलक्ष्मी’ से नायक और गायक बने तलत अब अपना आखिरी सिरा बी.एन. बाली के संगीत-निर्देशन में बनी फिल्म ‘साखी लुटेरा’ (1969)  के हस्बेहाल और उससे दो साल पहले बनी — ‘हमारे गम से मत खेलो’ — के एक गीत– **आँसू छुपाए आँख में–** के प्रतिबिम्बित बोल में देख रहे थे। यह गीत जयदेव के संगीत-निर्देशन की उनकी कलाओं के जगमगाने की मानो आखिरी मिसाल साबित होने वाला था। 1966 में बनी ‘जहाँआरा’  के मौसिकार मदन मोहन न जाने कहाँ मशरूफ थे। और भी कई सुर-साधक उनका और मदन मोहन का सत्संग और करीबीयत महसूस करते आ रहे थे। पर कोई तलत पर बड़ा भरोसा करते हुए और उनकी गायिकी के नगीने सँभाल कर रखते हुए भी काम नहीं दे रहा था। मदन मोहन तक नहीं!! खुद मदन मोहन बाद में तलत जैसे ही मुकाम पर जाने को मजबूर हुए। संगीतकार रोशन  गुजरे तो राजिन्दर सिंह बेदी ने कभी ‘दस्तक’  का संगीत-निर्देशन (एस.डी. बर्मन को खारिज करते हुए) जरूर मदन मोहन को सौंपा था। उनकी सुर-लहरियाँ ‘दस्तक’ और ‘मजरूह’  की शायरी की आत्मा हैं। पहलवानी-जिस्म वाले इस सुर-साधक को मजरूह ही वहाँ तक लाए थे और .गज़ल का मत्ला (‘मताए-कूचा’)  तक बदलने की इजाजत नहीं दी थी। तिस पर तलत तो बहुत पहले (ही) अपना हश्र महसूस करने के तकाजों से नावाकिफ थे। गायिकी के कद्रदाँ बदलते जमाने के तकाजों को भी भाँपने लगे थे। दरअसल संगीत का रूप-स्वरूप बदलने लगा था। बदलाव की इस चाहत में तलत जैसी आवाज़  के लिए अब बहुत कम ‘स्पेस’ बचा था।

कहीं कोई गुंजाइश थी तो गैर-फिल्मी गायन की,  जो कलकत्ता के मोरपंखी-दिनों में उनके बहुत काम आया था। गैर-फिल्मी होते न होते अलबम तो अब-तब सामने आ ही रहे थे। कुछ पिछले पड़ावों में रची-बसी .ग.जल-गायिकी की राह बची हुई थी, जो कुदरतन उनकी आख़िरी पूँजी थी। .गज़ल-गायिकी के वह पर्याय बन चुके थे। फिल्मी-ग़ज़ल के एक युग की शुरुआत करने वाले तलत महमूद जब तक अपने गायन के शिखरों पर रहे, सुर के बादल बरसाते रहे। कभी . .गमगीन और कभी-कभी खुशियों से लबरेज़!!

उनकी गायिकी की पहचान फिर भी दुख भरे न.ग्मों और मायूसियों में रोजोशब (दिन-रात) डूबे रहने वाले किरदारों के प्रतिनिधि के तौर पर कहीं ज्यादा हुई। कितनी ही फिल्मों के ऐसे गानों और उनकी गायिकी का ऐसा बोलता चेहरा ग़मगीनियत के गुबारों से लबालब हमारी स्मृतियों में रचा-बसा है। ‘टैक्सी-ड्राइवर’ के लिए साहिर ने जो लिखा, वही तलत की आवाज को दिल की जुबाँ में बयान करने वाला अमर गीत कहलाया। इस गीत के बोल –एन. दत्ता के संगीत- निर्देशन से सजी उनकी आखिरी फिल्म ‘पत्थर के ख़्वाब’ (1969)  के *–यादों का सहारा ना होता,–* गीत में मानो फिर से ढल गये थे। पर जो खामोशियाँ ‘टैक्सी-ड्राइवर’  के गीत में साहिर लुधियानवी ने बड़े ही नीमकश लहजे  में नाउम्मीदी के नस्बुल-ऐन (उद्देश्य से/ मकसद से) बुनी हैं, बेजोड़ हैं! नौ -पंक्तियों के इस गीत पर, तलत के सुर में जज्ब हुए कहन पर भी उदासियों का,  नाकामियों और बेबसी का कितना पहरा लगा है, यह इसे सुनते हुए हर घड़ी महसूस होता है। गौर फरमाएँ~~   :-

== जायें…  तो जायें..  कहाँ ऽ ऽ

समझेगा / कौन यहाँ ?

दर्द भरे दिल की ज़ुबाँ!

***

मायूसियों का मजमा है….

जी में / क्या रह गया है,  इस ज़िन्दगी में… ?

रूह में गम,  दिल में धुआँ…!

***

उनका भी गम है,  अपना भी गम है…

अब इस दिल के बचने की उम्मीद कम है!!

इक कश्ती, सौ तूफाँ !!

जायें तो जायें कहाँ !! ==

***

यह गीत तलत के गाये तमाम गीतों की कहकशाँ {आकाशगंगा} और कारे-नुमायाँ की नुमाइन्दगी करता (आ) रहा है।

अपने नाकाम-दिनों में खुद तलत इस गीत के रु-ब-रू और ज्यादा बेचैन हो जाते होंगे। अपने नाकाम-दिनों में ना-आश्ना (अपरिचित) होते चले जाने की घड़ी में…अच्छे दिनों की स्मृतियाँ भी उनके लिए एक बड़ी पूँजी थी। उन्हें अपने पिछले सफल आयोजन याद आ रहे थे। पहला पड़ाव 1956 के सुनहले-साल की याद दिला रहा था।

  • में दक्षिण-अफ्रीका में, गीतों भरे एक मंचीय कार्यक्रम के लिए जानेवाले वह पहले फिल्मी कलाकार थे। वहाँ वे इतने सफल और चर्चित हुए कि अनेक शहरों में अकेले उनके ही 22 कार्यक्रम आयोजित हुए। फिर कुछ और सिलसिले चल निकले। लेकिन जब अपनी ख्याति के शिखर छू लेने के बाद.. ढलान के दिनों में फिल्मी-दुनिया के हुनरमन्दों ने उन्हें भूलाना-भूल जाना शुरू किया तो देश-विदेश में आयोजित “तलत-महमूद-नाइट”  से एक और नयी राह खुली। आर्थिक-परेशानियाँ कम हुर्इं। पर फिल्मों से नाता टूटने का मलाल था। फिर शारीरिक-तकलीफों ने दस्तक देनी शुरू की। पक्षाघात ने आ घेरा। अब वह कहीं भी गाने और जाने में असमर्थ होते चले गये। अन्तत: फिल्मी-गीतों के इस सुर-साधक के सफ़र में आखिरी विराम का समय भी आ गया। जब अलमस्त-अलोने तलत महमूद ने खुदा की राह ली। 9 मई 1998 को वह इस अनासिर (पंचमहाभूत) में समा गये। निर्माता-निर्देशक बी.आर. चोपड़ा ने उनके इन्तकाल पर यह सच ही कहा था कि-  “..  जैसी खूबसूरत आवाज़, वैसे ही खूबसूरत आप थे। वो चले गये पर तसल्ली होती है कि उनकी आवाज़ जिन्दा है और हमेशा रहेगी।”

     

(प्रताप सिंह ने अपनी किताब – इन जैसा कोई दूसरी नहीं… को सात अध्याय में बांटा है। पहले अध्याय में दो सदाबहार नायक देव आनंद और राजेश खन्ना  हैं, दूसरे अध्याय प्रतिनायक में ओम पुरी और इरफ़ान को पढ़ा जा सकता है। तीसरे अध्याय में दो अहम गायक किशोर कुमार और तलत महमूद हैं, चौथे अध्याय में दो गीतकार हैं शैलेन्द्र और प्रदीप जबकि पांचवा अध्याय दो निर्देशकों पर है – कुंदन शाह और सागर सरहदी। छठे अध्याय को मां और मौसी के किरदारों के लिए जानी जाने वाली लीला मिश्रा औऱ नादिरा हैं जबकि सातवें अध्याय का नाम दिया गया है स्वयंसिद्धा जिसमें मृणाल सेन और परमेश्वरन कृष्णन नायर हैं।)

 

Posted Date:

February 26, 2024

9:53 pm Tags: , , , , , ,

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