श्याम बेनेगल के होने के अपने मायने थे.. उनके पास सिनेमाई कौशल के साथ अपने समाज के ज़रूरी सवाल भी रहे और उन सवालों पर सोचने को मजबूर कर देने की कला भी… समानांतर सिनेमा को भी उन्होंने उस लीक से हटाने की कोशिश की जिसे कई दफा बोझिल और उबाऊ करार दिया जाता रहा.. क्योंकि बेनेगल सिनेमा के व्याकरण को भी बखूबी समझते थे…आखिर श्याम बेनेगल के सफरनामें की क्या खासियतें रहीं जो उन्हें इस मुकाम तक ले आईं और विश्व सिनेमा में भारत की धमक जमाने में बेनेगल ने ऐसा योगदान दिया जो हमेशा याद किया जाएगा… उनके सिनेमा में भारत धड़कता था… महिलाओं के, किसानों के और तमाम ऐसे तबकों के सवाल अहम होते थे जिनके बारे में सोचना हमारे फिल्मकार आम तौर पर ज़रूरी नहीं समझते… फिल्म विश्लेषक और जाने माने लेखक-पत्रकार प्रताप सिंह ने इस आलेख में बेनेगल की संपूर्णता को तलाशने की कोशिश की है…7 रंग के लिए उनकी ये खास पेशकश
□□ आज करीब बारह साल हो गए…! ‘गोवा-इफ़्फी’ की उस बीत रही जगमग दोपहर में आईनॉक्स – थिएटर की छांव में और वहाँ से चंद कदम की दूरी पर फिर “मैटिनी” के एक खास ‘शो’ के इंतज़ार में वहाँ मौजूद श्याम बेनेगल की सजग-उपस्थिति की धमक सब महसूस कर रहे थे । ओमपुरी उनके साथ थे। बाकी झीनी-सी टीम भी..!!अपनी पहली फिल्म “अंकुर” के अरसे बाद वहां होने जा रहे ‘शो’ की परवाह न करते हुए वह सिने-पुरोधा पी.के. (परमेश्वरन कृष्णन) नायर की सिने-संरक्षण-कला केन्द्रित बड़ी डाक्यूमेंट्री..”सेल्यूलाइड-मैन” देखने को उतावले थे। जिसे नायर के शिष्य शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर ने ऐसे निर्देशित किया था कि वह फीचर फिल्म को भी मात दे रही थी। उनकी इस सिने-कृति की तुलना अर्जेंटीना के मशहूर फिल्मकार Edgardo Cozarinsky की “सिटीजन लेंगलाइस” से की जाती है। दरअसल ये दोनों (नायर और लेंगलाइस) के अथाह सिने-समर्पण, अनुराग और सिनेमा-संरक्षण के जज़्बे और उसके लिए अपने भीतर समेटे उनके जलजले की सम्पूर्ण कथा भी हैं। दोनों को इस नाते ‘सिनेमा का फैंटम’ भी कहा जाता है। सजग श्याम बेनेगल नायर के सिने-आर्काइव की तपस्या से खूब वाकिफ रहे हैं… पहले से ही ! नायर के प्रति अगाध श्रद्धा के भाव के साथ इस “सेल्यूलाइड मैन” के लिए उन्होंने अंत में..थिएटर से बाहर आते समय एक पारखी – शिक्षक के अंदाज में ओमपुरी से कहा~_“उन (नायर) के बिना हम पूरे समय-सिनेमा को कितना और कैसे जान पाते..! यह भी कि कैसे..जगा हमारा सिनेमा!! कितनी धाराएं हैं इसकी !” वहां मौजूद उनकी कृति ‘भारत एक खोज’ के भी नेरेटर/किरदारकार ओमपुरी और उनके संग रही टीम के चंद सदस्यों से बोलते -बतियाते हम भी ( मैं और कलकत्ता के सिने-समीक्षक कासिम) उस फिल्म [लम्बी डाक्यूमेंट्री] और उस पर श्याम बाबू की इस परख पर अभिभूत थे। हमारे सिनेमा के शेष इतिहास के अलावा शिवेंद्र डूंगरपुर ने नायर की भी आलादर्जे की आईनागीरी की थी, जिस पर बेनेगल खुद अभिभूत नजर आ रहे थे। उनकी यह पूर्व-दीप्ति जैसे हमेशा के लिए मेरे साथ चली आई। आज वह नहीं हैं तो समानांतर- सिनेमा की धारा के इस शिखर-पुरुष के संघर्ष और अवदान के दृश्य एक-एक कर सामने आते जा रहे हैं। “अंकुर” (1974) से “मुजीब” (202 3) तक के उनके सिने-यज्ञ के वृहतर-ग्राफ और उनके बीच के दूसरे मरहले जैसे उनकी सम्पूर्ण-कलाओं के साक्षी हैं। उससे भी कहीं पहले विज्ञापन- फिल्मों की कार्पोरेट दुनिया में रमने और बाद में, दूरदर्शन के लिए “भारत एक खोज” और लम्बे अंतराल के बाद राज्यसभा में संसद-सदस्य की पारी {2006-2012} में सक्रिय रहते हुए] “संविधान” का निर्माण भी बेनेगल की अकूत – मेधा और उनके निर्देशकीय-जादू से ज़रखेज़ होते रहे थिएटर के नए-पुराने सितारों के खांटी चरित्र-चित्रण का ही अद्वितीय दृष्टांत है।
हैदराबाद से बंबई : पड़ाव और नयी दिशाएं
हैदराबाद में 14 दिसम्बर 1934 को जन्मे श्याम बेनेगल का बचपन तिरुमलागिरी की कस्बाई – दुनिया की जाग से गहरा जुड़ाव रखते हुए भी अलग-संस्कृतियों और शहराती -दुनिया में बॅाइस्कोप के प्रति गहरे आकर्षण की भी कहानी से भी जुड़ा है। सिकन्दराबाद के कल के उस कस्बे से शुरू हुई इस यात्रा में अनंत सिनेमाई-सपने छुपे हुए थे। सिने-दुनिया में यह लगाव पेशेवर फोटोग्राफर पिता श्रीधर बी. बेनेगल और बड़े भाई के पढ़ाकू-शौक से भी पनपा होगा। पिता का स्टूडियो था। 16 m.m. के कैमरे से लघु फिल्में बनाने का शौक और पिता को पेंटिंग का भी जुनून था ! पिता की वे छोटी-छोटी..फिल्में पूरा परिवार देखता। उनके चचेरे भाई गुरु दत्त की गरिमा से भी वाकिफ होना घर में जिक्र में आता ही था। एक रोज यह चाव और फिल्मों का करिश्मा उन्हें सिनेमाघर ले गया। पहली फिल्म देखी वह हॉरर मूवी थी~”The Cat People”.उसके असर ने लक्ष्य तय कर दिया कि वह खुद यही काम करेंगे। यानी फिल्म बनाएंगे ! तिस पर कलकत्ता रह रहे बड़े भाई “पेंग्युइन फिल्म रिव्यू” पत्रिका उन्हें भेजने लगे थे। विश्व-सिनेमा के कंठारे वहीं उसी मेग्ज़ीन की मार्फत नजदीक आने लगे। दिलचस्पियाँ कॉलेज के दिनों में फिल्म सोसाइटी का रूप लेने लगीं। यार-दोस्तों की उस सोसाइटी की शुरुआत ही “पथेर पांचाली” से हुई , जो बाद में और भी नयी क्लासिकी की तलाश तक जा पहुँचीं।..
पर अब यह मंजर बदलने वाला था और उन्हें बंबई [मुंबई] ले जाने वाला था, इसका इल्हाम नहीं था। पिता के आर्थिक हालात बिगड़े तो विवश हो , Economics में निष्णात [ M.A. ] बेनेगल घर की खातिर बंबई में एड-फिल्मों की निर्माण विधि से जुड़ गए। विज्ञापन फिल्मों की स्क्रिप्ट के अलावा उसकी अलग कैमरा – तकनीक, रिकार्डिंग / मिक्सिंग का ज्ञान- ध्यान उनके अगले पड़ाव में काम आने वाला सिद्ध हुआ। पर ऐसी करीबन हजार विज्ञापन फिल्मों के बाद भी “अंकुर” की शुरुआत करने में तेरह साल खप गए।..हाँ, उस कला की बनिस्बत इस कापीराइटर ने कार्पोरेट के बनाई एड- फिल्मों में इतनी महारत हासिल कर ली कि वे भी पुरस्कृत हुईं। फिर पहली डाक्यूमेंट्री [गुजराती में] “घर बैठा गंगा” उनका सफल प्रयोग साबित हुआ। सिनेमा में नयी लहर के इस अग्रणी को पटकथा लेखक से फिल्म निर्माता – निर्देशक बनने में देर न लगी।
□□ आजादी के पहले से देसी जमींदारी सिस्टम के शोषण और अन्याय का सांकेतिक जवाब देती पहली फीचर फिल्म “अंकुर” की कहानी कभी कॉलेज मैग्जीन के लिए थी लिखी थी ! वही 1973 में, उनकी पहली चलचित्र-कथा., अब परदे पर शबाना आजमी और साधु मेहर जैसे नए, पर कुशल – कलाकारों के बूते अपने सिद्ध होने की नयी मुनादी कर चुकी थी। यह वास्तव में, राजकपूर के सिनेमा से अवतरित मायावी दुनिया के ग्लैमर से लिपटी रही कई सिने-पारियों के बाद के समानांतर सिनेमा के आगमन की भी मुनादी थी!” नीचा नगर” और “पथेर पांचाली” के अरसे बाद दर्शक बेनेगल के खरे -आगमन पर चकित थे। बेनेगल अब पीछे मुड़कर देखने वाले नहीं थे। धीरे-धीरे उनके सिनेमा में समर्थ अभिनेताओं के साथ ही छायाकारों, संगीतकारों,पटकथा लेखकों कीएक और समांतर-सजग दुनिया भी नुमाया hoti चली गई। गोबिन्द निहलाणी, वनराज भाटिया, शमा जैदी, अतुल तिवारी चंद ऐसे ही हस्ताक्षर हैं! अभिनेताओं -अभिनेत्रियों में भी स्मिता पाटील और शबाना के अलावा नसीर ओमपुरी, कुलभूषण खरबन्दा, रघुवीर यादव, टाम आल्टर, सत्यदेव दुबे, गिरीश कर्नाड, मनोहर सिंह, अमरीश पुरी, सुरेखा सीकरी, रजित कपूर, पल्लवी जोशी, अनंत नाग और साधु मेहर उनकी ही खोज हैं !! उनके छायाकारों में गोबिन्द निहलानी और अशोक मेहता का नाम अग्रणी है। निहलानी तो बाद में टेली फिल्म “तमस” और आक्रोश, पार्टी, अर्धसत्य, हजार चौरासी की माँ, देव, द्रोहकाल जैसी समकालीन फिल्मों के कर्मठ निर्देशक के रूप में भी ख्यात हुए। श्याम बेनेगल की एक और खोज साउन्ड रिकार्डिस्ट हितेंद्र घोष भी हैं। श्याम बेनेगल इन सबके मेंटर रहे हैं। सत्तर के दशक से खुद शुरू की अपनी पारी में बेनेगल ने सृजनात्मक-सिने-कृतियों की एक लंबी कतार खड़ी की। जिनमें जटिलता, तनाव,नाटकीय-संघर्ष को लॉंग-फ्रेम में रचने की कारीगीरी उनकई पहचान बनी। राजकपूरके युग के बरक्श उन्होंने पहले के सामाजिक-रोमांटिक मोहपक्ष में बंधे हिन्दी सिनेमा को वास्तविक चरित्रों के धरातल पर उतरने का अवसर दिया। ग्रामीण-शहरी जीवन की गुथ्थियों को नया ‘टच’ दिया। उनके सिनेमा ने मूलत: भारतीय समाज में स्त्री की विभिन्न मनोदशाओं को व्याख्यायित किया। पुरुष-प्रभुत्व के मुखोटों के रुपक भी उनकी कई फिल्मों से बच नहीं सके। 1973 में ‘अंकुर’ के अंतिम सीन से परदे पर गवईं-सामंती-समाज पर चोट की एक प्रतीकात्मक हुंकार के बाद निशांत [1975] / मंथन[1976] और भूमिका[1977] में बेनेगल ग्राम-नगर दोनों की चौहदी [सीमा] में दमन की घटाटोप घटनाओं का एक्सरे या उसका नेगेटीव दर्शक के हवाले कर, उसे सचेत भी करते हैं। फिर वे मुस्लिम-महिला-त्रयी {{ मम्मो [1994], सरदारी बेगम [1996], जुबेदा [2001] }} की और मुड़ते हैं। एक और अविरल धारा उनके चित्रपट की करवटों में आजादी की दुर्धुर्ष -कथा और आजादी के बाद की ग्रीक-ट्रेजडी को रचती है। उसके प्रमाण हैं – जुनून / त्रिकाल और कलयुग !!!
□□”अंकुर” के बाद 26 और फिल्में, चालीस वृत-चित्र और कितनी ही टीवीफिल्म बना चुके बेनेगल समांतर सिनेमा के मुखिया के सिंहासन पर आसीन हुए । उनकी फिल्मों ने नये और जरूरी सामाजिक सवाल उठाए तथा साथ ही आंचलिक और महानगरीय हिन्दुस्तान के मसलों / रियासतों तक के स्वरूप और जिस्मानी–पतन तक के खुले आचरण तथा पुख्ता व्यापार से जोड़कर परखा। मंडी, सूरज का सातवां घोड़ा / आरोहण / वेलकम टू सज्जनपुर / वेलडन अब्बा / हरी -भरी / समर जैसे विभिन्न प्रयोग हमें कितने और जगतिक – सपनों से गाफिल रखने वाली जीती-जागती कामदियाँ और तेजी से बदल रहे लोक की फैंटेसियाँ हैं।
“भारत एक खोज” से “संविधान” तक
□□जीवन और समाज को परिभाषित करती उनकी फिल्मों की तरह ही नेहरुयुगीन दृष्टि और आजादी के बाद की तहरीर तथा रूपकों को साकार करते समय के दो शिलालेख भी उनके नाम हमेशा दर्ज रहेंगे। वे हैं –“भारत एक खोज” एवं “संविधान” ! इनका असर जनमानस पर गहराया और अगली पीढ़ियों के ज्ञानचक्षु खुले। नेहरू की इतिहास – दृष्टि से गंभीर रचाव पा सकी –Discovery Of India पर आधारित “भारत एक खोज” से इतिहास, परम्परागत-वितान और अपनी ही संस्कारित -संस्कृतियों में झांकने और उन्हें उसी रचाव के स्तर पर [बनाये गए 53 खंडों में] खोज लेने का यह स्वर्णिम-सिने- दस्तावेजीकरण जैसे बेनेगल द्वारा ही संभव था। इसे हर बार परिवेशगत तथा पीरियड के अनुकूल अंजाम देने के मकसद से 15 इतिहासकारों की भी मदद ली गई। इसके लिए गहन शोध में शमा जैदी और अतुल तिवारी की सधी पटकथा ने कमाल कर दिखाया। {उन्हीं अतुल जी ने अब श्याम बेनेगल की जीवट-मार्मिक जीवन-कथा और जीवन्त-कलाओं में पगे सिने-शिल्प का अपनी कृति में रूपायन किया है।}
□□ दस कड़ियों वाले “संविधान” में भी उनका सहृदय-सहयोग पहले जैसा ही सिद्ध हुआ है। इस सीरियल में संविधान-सभा तो है पर आर्थिक – बहस को जटिलतओं के कारण उसे छोड़ा गया लगता है। संवेधानिक-पक्ष को लेते हुए, उसे भ्रमित-व्याख्याओं से दूर रखने में बेनेगल सफल रहे हैं। यहाँ 150 की टीम के साथ अभिनय-पक्ष को भी उन्होंने खूब संभाला है। गांधी(युवा अभिनेता नीरज कवि) / नेहरू (दिलीप ताहिल) / राष्ट्रपति राजेंद्र बाबू (राजेंद्र गुप्ता) / मौलाना आजाद (टॅाम आल्टर) / राजकुमारी अमृतकौर (राजेश्वरी सचदेव) / पूर्णिमा बनर्जी (दिव्या दत्ता) / के.एम.मुंशी (के.के.रैना) / एक.के.स्वामी अय्यर (,रजित कपूर) / हंसा मेहता (इला अरुण) /जिन्ना (एन.एन. झा) /पटेल (उत्कर्ष मजूमदार) तथा बाबासाहब आंबेडकर की भूमिका में सचिन खेडेकर का काम इतना खरा है कि “भारत एक खोज” की ही भाँति यहां भी कोई नायक / पात्र कमतर नजर नहीं आता। बेनेगल इस माध्यम के भी गुरू हैं। इस सबसे पहले वे “यात्रा” और ‘कथासागर” [1986] की आजमाइश में भी भारतीयता की खोज आरंभ कर चुके थे।
“भूमिका” और दमित स्त्री-समाज का कड़ा प्रतिपक्ष
□□ देविका रानी से व्ही शांताराम तक की औरत की बदलती तस्वीरों में दमन और विद्रोह के तिक्त-रंग नयी जमीनी सच्चाइयों की सूरत श्याम बेनेगल और उत्तरोत्तर सिनेमा में सर्वाधिक कड़े प्रतिवाद ,सशक्त रूप में दिखलाई पड़ते हैं। *भूमिका* उस तीखी सच्चाई का दरकता आईना है। बेनेगल “भूमिका” में परदे की अभिनेत्री के दमन- चक्र को पूरी ईमानदारी से रचते हैं। उनकी स्त्री-प्रधान फिल्मों में यह एकमात्र फिल्म है जो सर्वाधिक सराही गई मार्मिक सिने-अभिव्यक्ति भी मानी गई। एक अभिनेत्री के खंडित जीवन, मन की खुशी की तलाश और दिल को तोड़ने वाले पुरुषों की लालसा तथा तिरस्कार से उपजी आत्मीयता पीड़ा का यह जीवन्त दस्तावेज भी है। समर्थ अभिनेत्री स्मिता पाटील ने इसे इस तरह जीकर दिखाया कि पुरुष-संसार के दुरूह-चरित्र, उनके छल,वासना-प्यार व धोखे के कुटिल मेटाफर/ ..चेहरे..एक-एक कर सामने आते गये। स्मिता पाटील ने अपने सधे अभिनय से और श्याम बेनेगल ने नायिका प्रधान अपनी चंद फिल्मों तथा अपनी गहन शोध-वृति से अर्जित अनुभवों के दम पर मराठी अभिनेत्री हंसा वाडकर की बेरहम नियति को भी उजागर करने में कामयाबी पाई। “भूमिका” की नायिका उषा को पति और दूसरे मर्दों के रहते इस पेशे की डोर टूटने से पहले क्या-क्या नहीं सहना पड़ा है। देवदासी परिवार की सन्तान उषा के बचपन से यौवन की दहलीज चढ़ने तक तो अभिनेत्री का देहिक रूप और सज-धज चुंबकीय प्रभाव छोड़ता है। फिर शुरू होता है एक अभिनेत्री का सिनेमा के कारोबार से जुड़े खिलंदड़ी, आशिक मिजाजऔर गिद्ध चेहरों से सीधे साक्षात्कार ! सरोकार !! इनसे वास्ते की रंगीन छवियाँ ! फिल्म के भड़कीले-सेट, पति के बिस्तर , बिलंगनी, उसकी बेअसर बाबुई ड्रेस टोपी-शर्ट!! खुद वह अभिनेत्री मिडल क्लास हरे ब्लाउज और वैसी ही साड़ियों में तब्दील होती रहती है। देह-शोषण के बाद abortion की स्टेज तक पहुँचने तक कैमरा फिर उसे अस्पताल के स्ट्रेचर से होटल के कमरे तक ले आया है। जितनी बार वह पुरुष बदलने को विवश है तब तक बेमेल , कायर पति केशव के झूठ को पैसा कमाने की मशीन बनकर भोगती है। पर बेटी के विवाह की खुशी उसे आत्महत्या से बच लेती है। “भूमिका” के और भी कठिन प्रसंग, स्नावरी,भोग-मीमांसा,विचलन-बिखराव, नफ़ासत का नाटक महंगे जेवरात और फिर दुत्कार तक .. सिलसिलेवार उसे अवसान में ही धकेलते हैं। उसकी अपनी सुबह दो -तीन देहरी छोड़ते हुए मुक्त होने की आत्मन – अंतिम लालसा में छिपी हुई है। कुमार शहानी की “तरंग” का, दो अधुनातन- स्त्रियों का अंतिम सफर तो एक उज्ज्वल राह की ओर अचानक मुड़ गया है। क्या मॅाड महिलाएं इतनी निर्मुक्त हो चली हैं..।? बेनेगल के आशावादी नजरिये की खातिर “भूमिका” का अंत भी बदल गया है !!
अगले सिनेमा पर असर
“भूमिका” के अलावा “सुबह” में इस रस- सिद्ध अभिनेत्री ने तिरस्कृत स्त्री के अधिकारों की वंचना और उसके विद्रोह का इतिहास ही यथार्थ में रच दिया है। “सुबह” स्त्री-पुरुष के समान अधिकार की बनिस्वत उसकी आजादी का भी घोषणापत्र है। पर “भूमिका” में सन् 40 के मराठी सिनेमा की उस स्वतंत्र -चेता चर्चित अभिनेत्री के लिए भी इsक गुँजाइश नहीं थी। ऐसी फिल्मों का असहाय कर देने वाला जादू समकाल तक कायम है। उत्तरोत्तर समय में मिर्च-मसाला [केतन मेहता] और दामुल [प्रकाश झा] भी इसी पथ पर अग्रसर हुई.. दबंग – निशानियां हैं। यह परम्परा मदर इंडिया की राधा के दमन के प्रतिकार तथा विरोध की पहली लकीर खींचती है। तो सू-ब-सू उससे पहले भी या आगे बढ़कर आरती मजूमदार (महानगर), सोनबाई (मिर्चमसाला), दामिनी की नायिका (दामिनी), गरम हवा की आम्ना, बंदिनी की कल्याणी, मृत्युदंड की केतकी, कहानी की विद्या बागची और घटश्राद्ध की यमुनक्का ऐसी ही उज्ज्वल कोशिशे हैं। श्याम बेनेगल ने तो “डेढ़ इश्किया” तक की तारीफ की है। जटिल सामाजिक-संरचना और खुले जिस्मानी रिश्तों तक में यह बदलाव तूफान की तरह आया है। जिनकी पहली- सी पुकार कभी ” कुंकू” (दुनिया न माने) या “सुजाता” तक में भी आंदोलित करने की कड़ियों में आन बसी थी। मोहभंग के बाद नयी सामन्ती जमातों में औरत ने और भी स्वायत्ता की चाहत के साथ अपने वजूद को संभाला और विपरीत हालातों का सामना किया। यहां बेनेगल अपनी ज्यादातर फिल्मों में दमन और उसके प्रति स्त्री-विद्रोह की बुलन्द आवाज के प्रवक्ता बनकर, नये और अगले सिनेमा का भी जैसे व्याकरण ही बदलते रहने का न्यौता दे गये हैं। उनकी फिल्में [खासकर भूमिका, जुबेदा, मंथन, मंडी और निशांत] पुरुष-प्रभुत्व के परकोटे में चिनगारी का काम करतीं हैं !
अंतिम अध्याय अधूरा रहा ..भरा-पूरा होता !
□□ श्याम बेनेगल सिनेमाई- आकाश में सत्यजित राय की परम्परा के आधुनिक सिने-आचार्य का रुतबा रखने वाले अनमोल फिल्मकार थे। उन्होंने कभी पहले-पहल अपनी फिल्म सोसाइटी के लिए *पथेर-पांचाली* के प्रदर्शन के खातिर सत्यजित राय से पत्रों के माध्यम से सम्पर्क किया और इसमें उन्हें उनका सहयोग मिला। 1956 में पहली बार “पथेर पांचाली” देखी थी। 1965 में राय से कलकत्ता में पहली मुलाकात तीन घंटे की थी। उन्हें बेनेगल ने अपने दो लघुचित्र भी दिखाए। इनमें घर से भागे बच्चों की दुनिया का खाका थी ~Childen of a street~ और बस्तर के आदिवासियों की ज़िन्दगी का जायजा देती दूसरी लघुचित्र फिल्म थी–Close to nature. राय को बेनेगल का यह काम पसन्द आया। फिर तो आना-जाना, मिलना सहज-संभव था। सत्यजित राय की सिने-कला और व्यक्तित्व को संजोने वाले वृत्त-चलचित्र को साकार करने का मौका उन्हें 1981 में मिला। पहले 1960-1980 में उन पर दो लघुचित्र फिल्में नुमाया हो चुकी थीं ।
फिल्म डिवीजन ने उनसे अलग बीस मिनट की फिल्म की इजाजत दी। बेनेगल ने जो प्रोजेक्ट तैयार किया उस हिसाब से ही 1982 में वृत्तचित्र बनना शुरू हुआ। इस बीच सत्यजित राय से इंटरव्यूज का सिलसिलेवार काम होता रहा। 132 मिनट की अवधि के इस (लघु)_चित्र के लिए बेनेगल ने फिल्म डिवीजन के साथ युक्ति से काम लिया। उन्होंने अनुबंधित राशि के अतिरिक्त की मांग नहीं की। इतनी लम्बी और बेहतर फिल्म को दिखाने की फिल्म-डिवीजन व्यवस्था उस समय नहीं कर पाया। जबकि चैनल-4(लंदन) के बाद इटली, जर्मनी, फ्रांस और अमेरिका में यह दिखाई गई और सराही गई थी। बेनेगल ने दो बड़े बॉयोपिक सुभाषचंद्र बोस और मुजीब-उर-रहमान को लेकर अपने जीवनकाल में 2005 और 2022-23 में बड़े परदे पर रचे। उनमें जी-जान उनके प्रमुख किरदारों को निभा रहे सचिन खेडेकर और बांग्लादेश के अभिनेता आरिफिन शुवो ने भी महसूस कराई। पर उनको माफिक बाजार शायद ही मिला हो। अब 90 साल की उम्र में भी तीन प्रोजेक्ट [फीचर फिल्मों] की रास वह अकेले थामे {डायलिसिस पर} चल रहे थे। इसका खुलासा उनके 14 दिसम्बर को पूरी उत्सवधर्मिता के साथ मनाये गये जन्मदिन पर प्रेस (के लोगों ) को भी हुआ। इसे पहले तक अपने आफिस में भी जन्मदिन की औपचारिकता से अमूमन बचते आ रहे थे ।
श्याम बेनेगल इस 14 दिसम्बर की शाम अपनी शानदार फिल्मों और *भारत एक खोज* के लिए खोजे गये नगीनों में..कुलभूषण खरबंदा,नसीरुद्दीन शाह, शबाना आजमी, दिव्या दत्ता, रजित कपूर, अतुल तिवारी, कुणाल कपूर से घिरे तमाम जिस्मानी कमजोरियों के प्रफुल्लित और सहज दिखने का प्रयास कर रहे थे। काश! उनकी ये आखिरी फिल्में भी पहले की तरह कभी भरी-पूरी ही पूरी हों! उनकी सिनेमा को देन वैसे तो कम नहीं। *सिनेमाया* पत्रिका हो या *सबरंग* सबने उनकी कालजयी फिल्मों के भरपूर अंक निकाले हैं। उनकी उन जैसी ही सिद्ध शिखर अभिनेत्री स्मिता पाटील की स्मृति में *रविवार* और अक्षर-पर्व के विशेषांक भी मार्के के हैं। ऐसे श्याम बेनेगल की अपनी ये उपलब्धियां कम नहीं। पद्म विभूषण(1991) और दादा फाल्के (जो प्राण साहब से पहले मिलने की बेवजह फांस भी रही) के बाद भी उनकी सिने-सक्रियता चौंकाती रही है। जबकि वह खुद अपनी सर्वश्रेष्ठ सिने-कृतियों को लेकर रोमांचित और गफलत में एकसाथ थे। उन्होंने इस आशय को खुदबयानी में सामने भी रखा–“^_*जो मैं बना सकता हूँ, उस फिल्म को लेकर रोमांचित रहता हूँ! लेकिन जब फिल्म पूरी हो जाती है तो मैं निराश हो जाता हूँ”!*_ यह हर प्रतिबद्ध कलाकार/ फिल्मकार की उस फिल्म के प्रति अगाध आस्था के कारण भी हो सकता है। समकाल में मृणाल सेन, असित सेन के बाद अडूर, गिरीश कासरवल्ली, गौतम घोष और उतने ही समर्थ दूसरे फिल्मकारों की नवल-परम्परा के आधुनिक चितेरों की भी यही विडम्बना हो सकती है जो स्त्री-प्रधान सिनेमा के भी पहरुए और श्याम बेनेगल की राह के हमराह रहे हों! श्याम बेनेगल की समर्पित समांतर -धारा से उत्कर्षित और व्याख्यायित तमाम चलचित्रों को सलाम !.. और उन्हें स्मृति नमन!
*संदर्भित पुस्तकें / पत्रिकाएं : सिनेमा का जादुई सफ़र, सपनों के आर-पार, दो आसमान, इन जैसा कोई दूसरा नहीं।
समयांतर और इफ़्फी-गोवा बुलेटिन में प्रताप सिंह के लेख ।
Posted Date:
December 25, 2024
10:56 pm Tags: प्रताप सिंह, श्याम बेनेगल, फिल्म अंकुर, फिल्म भूमिका, खिल्म निशांत, भारत एक खोज