बटालवी ने बताया था, मोहब्बत गुम है

जो लोग थोड़ा बहुत पंजाबी साहित्य को करीब से जानते हैं उनके लिए शिव कुमार बटालवी का नाम उतना अनजाना नहीं है.. लेकिन हिन्दी या अन्य भाषाओं के साहित्य जगत के लोगों के लिए बटालवी कुछ दिनों पहले तक बहुत नहीं जाने जाते थे.. कुछ साल पहले एक फिल्म आई उड़ता पंजाब.. और उसमें एक गीत इस्तेमाल किया गया… नए संदर्भों में…  दर्द और तड़प से भरा हुआ… इक कुड़ी जि दा नां मोहब्बत.. गुम है..गुम  है…गुम है.. ये गीत खूब चर्चित हुआ और इसके गायक दिलजीत दोसांझ को तमाम लोग जान गए.. दोसांझ वैसे भी पजाब के लोकप्रिय गायक हैं,लेकिन इस गीत ने उन्हें हिन्दी जगत में भी पहचान दी।  ये गीत लिखा था.. बटालवी साहब ने। शिवकुमार बटालवी को उनके जन्मदिन 23 जुलाई पर याद कर रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार और लेखक सुधीर राघव

‘इक कुड़ी जिहदा नां मोहब्बत

गुम है गुम है’ 

सांप्रदायिकता और महामारी के कोरोनाकाल में ‘उड़ता पंजाब’ के नेपथ्य से यह भूला-बिसरा गीत फिर बज रहा है। इस नेपथ्य से एक अंधेरी गली रोशनी की तलाश में प्रेम की चाह लिए आजीवन दर्द से गुजरती है।

मतलबी और फरेबी दुनिया में मोहब्बत का खो जाना दर्द का अमर गीत है। असल में यह सिर्फ गीत नहीं है, यह एक ऐसी रचना है जिसमें पंजाबी साहित्य की रूह के कवि शिवकुमार बटालवी ने अपना दर्द पिरोया है।

हर साल जब 23 जुलाई आता है, पंजाबी साहित्य बटालवी को बहुत कम उम्र में खो देने का  अफसोस करता है। बटालवी की विरह चातक और चकोर सी पवित्र थी, इसलिए उन्हें विरह का सुल्तान (बिरहा दा सुल्तान)  नाम मिला। जैसा कि वह गाया करते थे कि जो यौवनकाल में मरता है, वह फूल और तारा बनता है।

असां तां जोबन रुत्ते मरना

मुड़ जाना असां भरे भराए

हजर तेरे दी कर परकरमा

असां तां जोबन रुत्ते मरना

जोबन रुत्ते जो वी मरदा

फुल्ल बने जां तारा

जोबन रुत्ते आशिक मरदे

जां कोयी करमां वाला

महज 36 साल की उम्र में दुनिया को अलविदा कहने वाले शिव पंजाबी साहित्य का सबसे चमकीला तारा हैं। भाषा संबंधी दिक्कत की वजह से जिन्होंने कभी बटालवी   को नहीं पढ़ा, वे इसके लिए अफसोस कर सकते हैं कि उन्होंने पंजाबी के जॉन कीट्स को नहीं पढ़ा।

1960 में उनका पहला कविता संग्रह ‘पीड़ा दा परागा’ आया। यह एक टीस का ऐसा दरिया था जो सीधे लोगों के दिल में उतर गया। इसका आमुख गीत जिसमें कवि एक भट्ठी वाली से गुजारिश करता हैं कि वह दाने नहीं बल्कि उनकी एक मुट्ठी पीड़ा को भून दे तो वह उसे आंसुओं का मेहनताना देगा।

‘तेन्नू देआं हंझुआं भाड़ा

नी पीड़ा दा परागा भुन्न दे 

भट्ठी वालिए।

यह दर्द का ऐसा बिम्ब था, जिसमें हर दुखी इंसान की पुकार समाई है। यही बात उन्हें जॉन कीट्स से आगे ले जाता है।

 

शिवकुमार बटालवी, जिन्हें पंजाबी साहित्य में शिव बटालवी के नाम से जाना गया का जन्म 23 जुलाई 1936 अविभाजित भारत के पंजाब प्रांत के शकरगढ़ के बड़ा पिंड में हुआ था। विभाजन के बाद उनका परिवार गुरदासपुर जिले के बटाला में आ बसा। इसी कस्बे के नाम को उन्होंने अपने नाम के साथ जोड़ कर और प्रसिद्ध किया।

उन दिनों ‘सुचेत किताब घर’ के प्रकाशक मकसूद साकिब  ‘मां बोली’ नाम से पंजाबी की मासिक पत्रिका निकालते थे। इसके हर अंक में बटालवी की एक-दो कविताएं रहती थीं। शिव की प्रशंसा में पाठकों की खूब चिट्ठियां आतीं। युवा हो रहे बटालवी को उस दौर के एक प्रमुख पंजाबी साहित्यकार की बेटी से प्रेम हुआ। मगर जाति और रुतबा बीच में आ गया। विदेश में बसे युवक से शादी कर वह लड़की प्यार की डोर का सिरा तोड़ कर निकल गई। मगर बटालवी इससे दर्द से कभी उबरे नहीं। डोर के दूसरे सिरे से बंधे अपने जख्म को अपने ही शब्दों से खुरचते रहे। इस जख्म से टीस का दरिया कविता बनकर बहता रहा- ‘मैनू तेरा शबाब ले बैठा’।

भगत पूरन मल की लोककथा पर उनका महाकाव्य ‘लूणा’ पंजाबी में आधुनिक किस्सागोई की नई शैली माना जाता है। 1965 में इसके लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। इससे पहले वह ‘मैंनू विदा करो’ ‘आटे दी चिड़िया’ जैसे संकलनों से अपनी पहचान बना चुके थे। अमृता प्रीतम ने उन्हें ‘बिरहा दा सुल्तान’ कहा।

प्रेम में कई बार धोखा खाने के बाद 1967 में उन्होंने शादी की। चंडीगढ़ में बैंक में अधिकारी का पद भी मिला।  मगर ग़म भुलाने के लिए बटालवी ने जिस शराब का सहारा लिया था, वह अब उसे पी रही थी। 7 मई 1973 को महज 36 साल उम्र में पठानकोट के कीर मंग्याल में ससुर घर उन्होंने आखिरी सांस ली। डॉक्टरों ने बताया बटालवी को लिवर सिरोसिस हो गया था।

 

Posted Date:

July 22, 2020

11:54 pm Tags: , , , , , , ,
Copyright 2024 @ Vaidehi Media- All rights reserved. Managed by iPistis