सामाजिक बदलाव की उम्मीदों से भरे थे शमशेर
शमशेर बहादुर सिंह (13 जनवरी 1911 – 12 मई 1993)

12 मई 1993 को जब शमशेर बहादुर सिंह के निधन की खबर अहमदाबाद से आई थी, तब अचानक उनके साथ गुज़रे वो सारे पल हमारे दिलो दिमाग में एक सुखद अतीत की तरह उमड़ने घुमड़ने लगे थे। लखनऊ की पेपरमिल कॉलोनी में पत्रकार अजय सिंह और शोभा सिंह के घर शमशेर जी अक्सर आते और ठहरते रहे। शोभा जी को वह अपनी बेटी मानते थे और उनके बच्चों के वो नानाजी थे। हमारे पारिवारिक रिश्ते थे और अक्सर वहां घंटों आना जाना, उठना बैठना और शमशेर जी को सुनना, समझना होता रहा था। उन दिनों देश में इंदिरा निरंकुशता के खिलाफ आंदोलन तेज़ था। वामपंथी आंदोलनों का दौर था, राजनीतिक-सांस्कृतिक गतिविधियां तेज़ थीं और तमाम प्रगतिशील रचनाकार हमारी ताकत हुआ करते थे। शमशेर जी हम जैसे युवाओं की ताकत भी थे और उनसे मिलना, बात करना अपने आप में एक अनुभव तो था ही। उन्हीं दिनों गोरख पांडेय भी वहां आया करते थे और अक्सर उनकी कविताएं और गीत शमशेर जी भी सुना करते थे। उन्हीं दिनों गोरख ने एक कविता लिखी थी – ‘ये खूनी पंजा किसका है’।

शमशेर जी ने ये कविता सुनी और खूब पसंद की। बात शायद 1984 की है। इंदिरा गांधी की हत्या और उसके बाद हुए सिख विरोधी दंगे, कांग्रेसी गुंडों का कोहराम और उस दौरान गोरख की यह कविता। शमशेर गदगद थे। उन्हीं दिनों मैंने 1952 में लिखी शमशेर की लंबी कविता पढ़ी – ‘अमन का राग’। कविता पढ़कर सोचता रहा कि 1952 से अबतक ठीक वहीं तो हालात हैं। कहीं कुछ नहीं बदला औऱ कविता आज भी कितनी मौजूं है। तभी हमने उनकी मशहूर कविता ‘बात बोलेगी’ भी पढ़ी। शमशेर हमें अपने बच्चों की तरह स्नेह देते और समझाते। बेहद सरल, एकदम अपने से।

बाद में शमशेर जी उज्जैन विश्वविद्यालय में प्रेमचंद पीठ के अध्यक्ष होकर वहां चले गए। एकाध बार उसके बाद भी आए, साथ में उनपर शोध करने वाली और वहां उनका पूरा ख्याल रखने वाली उनकी बेटी जैसी रंजना अरगड़े भी होती थीं।

गुज़रते वक्त के साथ बहुत सी चीजें बदल गईं। 86 के अंत से नौकरी की जद्दोजहद में फंसकर हम लखनऊ से मेरठ और फिर कानपुर होते हुए दिल्ली पहुंच गए थे। सौभाग्य से दिल्ली के यमुना विहार में साथ वाले घर में रहते थे उसी दौर के वयोवृद्ध और बेहतरीन कवि त्रिलोचन। उनके बेटे अमित प्रकाश सिंह के साथ हम कानपुर में काम कर चुके थे, इसलिए रिश्ते घरेलू बन गए। दिल्ली आने पर अमित जी और उनकी पत्नी उषा जी ने ही अपने साथ वाला घर दिलवाया। और फिर त्रिलोचन जी के साथ रोज़ घंटों बैठकी लगने लगी। अनुभव और ज्ञान के भंडार, शब्दों के महारथी और एकदम सादगी और सरलता की मिसाल। बात चाहे शमशेर की कीजिए या केदार की, निराला की या नागार्जुन की, त्रिलोचन जी ने मानों सबको जिया, महसूस किया, अंतरंग पल बिताए और इतने दिलचस्प अनुभव कि पूछिए मत। जब शमशेर की चर्चा चलती तो उनसे जुड़े असंख्य किस्से शुरु हो जाते….

जाहिर है शमशेर जी के गुज़रने की खबर ने हम सबको एकदम सदमे में डाल दिया। अतीत जैसे जी उठा। अखबारी नौकरी और उसकी प्राथमिकताओं के बीच हमारी ये जिम्मेदारी भी थी कि हम इस महान कवि के बारे में कुछ अलग लिखें। जाहिर है मेरे पास त्रिलोचन जी थे और उनके पास शमशेर की यादों का खजाना था। त्रिलोचन जी ने तब शमशेर जी के बारे में क्या क्या कहा, कैसे उन्हें याद किया, उसकी एक झलक आपको इस बातचीत के आधार पर तैयार किए गए इस आलेख में जरूर मिल जाएगी। यह बातचीत तब अमर उजाला में भी छपी, लोकमत ने भी छापा और असम के अखबार सेंटिनल ने भी। आज अपनी पुरानी फाइलों से शमशेर जी की पुण्यतिथि के मौके पर त्रिलोचन जी से ये बातचीत आपके लिए। अतुल सिन्हा

‘वैयक्तिक निराशा और सामाजिक आशा के कवि थे शमशेर’

शमशेर बाहदुर सिंह के बारे में बातें करते हुए त्रिलोचन शास्त्री की आंखों में कई तरह के भाव आते जाते हैं। शमशेर का गुज़रना उन्हें विचलित तो करता है, लेकिन वो संयत हैं। कई बार कुछ गंभीर होते हैं, लेकिन कई दफा उन पुराने दिनों में भटकते हुए हल्के से मुस्कराने भी लगते हैं। शमशेर के व्यक्तित्व को उनके अकेलेपन को, उनकी लेखन दृष्टि को त्रिलोचन ने गहराई से महसूस किया है। बरसों वे साथ रहे हैं, मिलकर काम किया है, कई अंतरंग क्षण गुज़ारे हैं। एकदम अतीत में पहुंच कर त्रिलोचन कहते हैं – शमशेर जी से पहले पहल इलाहाबाद में मेरा परिचय हुआ। 1938 में मैं रामनेऱश त्रिपाठी के यहां किताबों के प्रूफ आदि देखने का काम करता था। खासतौर पर बच्चों की पत्रिका ‘वानर’ देखता था। वहीं नरेन्द्र शर्मा के साथ शमशेर आए तो परिचय हुआ। दो एक बार मिला, लेकिन बेहद औपचारिक परिचय ही था। उसके बाद 1940 में श्रीपति जी (श्रीपत राय) ने दोबारा मुझे उनसे मिलवाया। हम दोनों को साथ साथ ‘कहानी’ पत्रिका में संपादन का काम करना था। यहीं से हमारा परिचय अंतरंग होता गया। हमने साथ मिलकर ‘कहानी’ की रूपरेखा तय की और उसे पूरे परिवार की कहानी पत्रिका बनाने के लिए मेहनत की। तब ‘माया’ भी कहानी पत्रिका थी।

‘कहानी’ में साथ काम करने का अनुभव सुनाते हुए त्रिलोचन डूब से जाते हैं।

शमशेर ने चीन के मशहूर कहानीकार लू शुन की कहानियों का अनुवाद किया था। लू शुन को पहली बार शमशेर ने ही हिन्दी में अनुवाद किया था। मैंने पढ़ा था। बेहतरीन अनुवाद था वह। इसे ‘गल्प संसार माला’ में छापना था। शमशेर पांडुलिपि लेकर रिक्शे पर आ रहे थे। वह रिक्शे से तो उतर आए लेकिन पांडुलिपि वाला बैग उसी पर भूल आए। उसके बाद बहुत ढूंढा, लेकिन वह रिक्शा कहीं नज़र नहीं आया। शमशेर का यह महत्वपूर्ण अनुवाद गुम हो जाने का त्रिलोचन को भी कम अफसोस नहीं।

‘कहानी’ में शमशेर और त्रिलोचन करीब एक साल रहे। इसके बाद फिर सड़कों पर। त्रिलोचन कुछ डूबकर बताते हैं – मुझसे शमशेर बात करते थे संस्कृति पर, साहित्य पर। इस बातचीत में शिवदान सिंह चौहान भी होते थे। ये दोनों ही अंग्रेजी साहित्य बहुत गहराई से जानते थे। शिवदान ज्यादातर आलोचना पढ़ते थे जबकि शमशेर की दिलचस्पी रचनात्मक लेखन में ज्यादा थी। तो कविताओं आदि पर हमारे बीच खूब बातें होती थीं। लेकिन आपस में ही। अगर कोई बीच में आ जाए तो उनसे बड़ा चुप्पा कोई दूसरा नहीं लगता था। शमशेर के इस स्वभाव के बारे में बताते हुए त्रिलोचन जोर का ठहाका लगाते हैं। फिर अचानक गंभीर होकर कहते हैं, शमशेर जब लिखने लगते थे तो पूरी तरह एकाग्र होकर, उसबीच अगर कोई कुछ पूछ बैठे तो वो एकदम चौंक उठते। उसके बाद उनका लिखना काफी समय तक रुक जाता था।

‘कहानी’ में काम करते हुए उन्होंने ही ये नियम बनाया कि दफ्तर में कोई बात नहीं करेगा और जरूरत पड़ने पर वह खुद लिखकर कुछ पूछताछ करते थे। शमशेर ज्यादातर रचनात्मक लेखन के बारे में सोचा करते थे, समीक्षा पर कम। रचनात्मक लेखन की बड़ी गहरी पकड़ और समझ शमशेर में थी। वे केवल रचना के स्तर पर अपने को उठाते थे, न कि रचना से कोई भाव, विचार या ‘आइडिया’ लेते थे। शमशेर उर्दू, हिन्दी और अंग्रेजी का साहित्य बहुत गहराई से पढ़ते थे। वो जिससे मिलते थे एकसार हो जाते थे। उनके विषय में कविताएं भी लिखते थे। अपने साथियों पर उन्होंने कई कविताएं लिखी हैं। किसी भी लेखक के लेखन की आलोचना मैंने उनसे नहीं सुनी। वे सिर्फ अच्छाइयां पकड़ते थे। शमशेर जैसा बढ़िया आदमी मैंने तो देखा नहीं।

‘भाई साहब (ये त्रिलोचन की बातचीत एक अंदाज है), जिन दिनों वे बेरोज़गार थे, उन दिनों भी मैंने उनके यहां आकर लोगों को महीनों टिकते देखा। वे उसके खाने पीने की व्यवस्था करते थे और किसी को बगैर खिलाए आने नहीं देते थे। यह उनमें नारियों का सा स्वभाव था। दूसरों को खिलाकर उन्हें काफी तृप्ति मिलती थी।‘

उनकी पत्नी की मौत के बारे में बताते हुए त्रिलोचन भी भावुक हो उठते हैं। 1929 में उनकी शादी हुई थी और कुछ ही दिनों में उनकी पत्नी को टीबी हो गई। उनके इलाज के लिए वो बहुत भटके लेकिन 1935 में वो चल बसीं। इसके बाद वो एकदम अकेले हो गए। ‘अकेलेपन का तो ये समझिए कि वो खुली आंखों से दिन में घंटों बैठते सोचते रहते और किसी की आवाज़ सुनकर चौंक जाते। उनकी कविताओं में जो स्त्री बार बार आती है वो उनकी पत्नी ही तो है। ‘टूटी हुई बिखरी हुई’ उनकी बेहतरीन प्रेम कविता है।‘  

शमशेर के पिता एक अफसर थे। उनका निधन 1939 में हुआ। शमशेर का गांव से नाता रिश्ता टूट गया था। दो भाई थे – दूसरे भाई डॉ तेज बहादुर चौधरी प्रतिभाशाली कहानीकार हैं और मध्यप्रदेश के दुर्ग के प्रतिष्ठित डॉक्टर। और कोई था नहीं उनका। इतना सबकुछ बताते हुए त्रिलोचन अचानक कहते हैं – ‘शमशेर का जीवन एक संत सा था, साहित्यकारों में संत। किसी के प्रति उन्होंने कभी कोई दुर्भावना नहीं पाली।‘

इसमें संदेह नहीं कि नवीनता की दृष्टि से आप विचार करें तो उस पूरे जमाने को लेते हुए तीन ही व्यक्ति नजर आएंगे – अज्ञेय, शमशेर और मुक्तिबोध – टावरिंग पर्सनालिटी। लेकिन 1980 तक लोगों ने शमशेर का मज़ाक बनाया। यहां तक कि 1983 की एक सभा में उनकी कविताओं की इतनी कटतम आलोचना हुई कि शमशेर की आंखों में आंसू आ गए। हालांकि शमशेर कहा करते थे कि मैं अपनी कड़ी से कड़ी आलोचना सुनकर बर्दाश्त कर सकता हूं। लेकिन मैंने उस दिन उनकी आंखों में आंसू देखे।

वे प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे लेकिन प्रगतिशीलों की बहुत सी बातों से उन्हें मतभेद तब भी था। एक बार उन्होंने कहा कि प्रगतिशील जो होता है, उसमें व्यक्तित्व तो होता नहीं। जैसे ईंट सांचे से निकलती है, वैसे ही तो होते हैं प्रगतिशील। यहां व्यक्तित्व नहीं बनता, यहां तो पूरा का पूरा मार्क्सवाद मंजूर कर लो, फिर लिखो। तब यहां आपका व्यक्तित्व कहां बचा।

इसपर शिवदान सिंह चौहान उनपर बहुत बिगड़े। कहने लगे – ‘आप तो बहुत खतरनाक विचार व्यक्त करते हैं। आपके अंदर एक मध्यवर्गीय प्रवृत्ति है। इसे बदलिए। मेरा बस चले तो आपसे फावड़ा चलवाऊं।‘

‘ऐसी ऐसी तो बातें होती थीं।‘ त्रिलोचन आत्ममुग्ध हंसी हंसते हैं।

जब सागर और उज्जैन विश्वविद्यालयों में क्रमश: मुक्तिबोध और प्रेमचंद पीठ की स्थापना हुई और शमशेर को उज्जैन और त्रिलोचन को सागर जाने को कहा गया, तो शमशेर तैयार नहीं हुए। बाद में नागार्जुन ने शमशेर को अपने ‘संतो की भाषा’ में डांट लगाई और उन्हें ठेल ठालकर उज्जैन भेजा गया। उन्हें विष्णुचंद्र शर्मा वहां ले गए और प्रारंभिक व्यवस्था की। यहीं रंचना अरगड़े से शमशेर का परिचय हुआ जो उनपर शोध कर रही थीं।

रंजना की तारीफ में त्रिलोचन कहते हैं ‘उसने जितना शमशेर के लिए किया है उतना कोई बेटी भी नहीं करती। उनकी देखरेख, वक्त पर दवाई देना, उनकी रचनाओं को सहेजना और उन्हें प्रकाशित करवाने तक का काम रंजना ने किया। उनका शोध अब प्रकाशित हो चुका है और शमशेर पर वह सर्वश्रेष्ठ पुस्तक है‘

शमशेर की तुलना ब्रिटिश कवि पी बी शेली से करते हुए त्रिलोचन कहते हैं ‘शमशेर की शैली एकदम वैयक्तिक है। उनके अंदर निराशा व्यक्तिगत है, लेकिन सामाजिक रूप से वे बेहद आशावादी हैं। ये चीज सिर्फ शेली में मिलती है – उसमें व्यक्तिगत निराशा है, दुख की व्यंजना है, लेकिन सामाजिक रूप से वह जागरूक हैं। शेली की ये छाप शमशेर की व्यक्तित्व की रचना में मिलती है। उनके जैसा व्यक्तित्व सदियों में ढूंढ पाना मुश्किल है।‘

त्रिलोचन कहते हैं – ‘शमशेर हिन्दी और उर्दू के बीच एक सेतु की तरह थे। उनकी कविताओं को उर्दू कविताओं से अलग नहीं कर सकते। लेकिन उन्होंने इसी पर अपनी कविता – ‘प्रेम की पाती वसंता के नाम’ में कहा है मैं तो ना जानूं हिन्दी या उर्दू। उनकी कविताओं में राजनीतिक चेतना भी है और सामाजिक जागरूकता भी। शमशेर रंगों पर बहुत ध्यान देते थे और बादलों के बदलते रंग को बेहद कौतूहल से देखते थे और अक्सर पूछते थे – इसे क्या कहें।’

Posted Date:

May 12, 2020

6:37 pm Tags: , , ,
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