यात्री जी की कहानियों के ख़ज़ाने से आपके लिए दो कहानियां महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय की वेबसाइट ‘हिन्दी समय’ से साभार ला रहे हैं। हमारी कोशिश है कि आप उन्हें पढ़ें और इन कहानियों के भीतर तक पहुंचने की कोशिश करें…
आदमी कहाँ है से.रा. यात्री |
आप निराश न हों, ऐसी बीहड़ परिस्थितियाँ जीवन में अनेक बार आती हैं। आखिर हम किस दिन के लिए हैं। आप निःसंकोच हो कर बतलाइए कि आपका काम कितने में चल सकता है। खन्ना जी ने चेहरे पर बड़प्पन का भाव लाते हुए कहा। उनकी दिलासा से वह इतना कृतज्ञ हो आया कि उसके कंधे झुक गए और चेहरे की माँसपेशियाँ आवेश में काँपने लगीं। सांत्वना और सहानुभूति से आदमी कितना दब जाता है!वह खन्ना जी के बच्चों को कई महीनों से ट्यूशन पढ़ा रहा था। खन्ना साहब को उसकी परिस्थितियों का आंशिक ज्ञान था। दो मास पहले उसके पिता की मौत शिवाले के आँगन में हुई थी। मरने से कोई महीने-भर पहले उन्होंने घर की देहरी छोड़ दी थी और अंत में पुत्र की अनुपस्थिति में ही प्राण त्याग दिए थे। गंगाजल, तुलसीदल और किसी सगे सुबंधु की अनुपस्थिति में यह संसार छोड़ने में उन्हें जितना कष्ट हुआ होगा, यह केवल वही जानता था। बाद में मित्रों की सहायता से उसने उनका क्रिया-कर्म किया था। उसका मुंड़ा सिर देख कर ही खन्ना साहब को पिता के मरने का ज्ञान हुआ था। छोटी बहन का रिश्ता पिता के सामने ही पक्का हो चुका था, लेकिन बाद में वह पक्ष कुछ ढीला नजर आने लगा था। इस स्थिति से उबारने का वादा खन्ना जी ने उसे भरसक सांत्वना दे कर किया था।शायद वह अपनी व्यथा-कथा खन्ना जी से न कहता, क्योंकि उसे उनके यहाँ से सत्तर रुपए प्रतिमास मिल ही जाते थे, और फिर उसकी कोई ऐसी साख भी नहीं थी कि कोई उसे एकमुश्त हजार-दो हजार रुपए का कर्ज दे देता। लेकिन खन्ना जी कई बार आत्मीयता से बातचीत करके उसकी घरेलू परिस्थितियाँ जान गए थे। उनकी शिक्षा-दीक्षा अमेरिका में हुई थी और विचारों में वह उदारचेता थे। शायद वह मानवता को कुंठित नहीं देखना चाहते थे। एक दिन बहुत भावुक हो कर कहा भी था, शायद आप नहीं जानते कि मुझे कितनी गंदगी और संकीर्णता से लड़ना पड़ा है। स्वयं को स्थापित करने में मुझे कितनी अपने पिता से भी टक्कर लेनी पड़ी थी। मैं बी.एस-सी. में हिंदू विश्वविद्यालय में पढ़ता था और मेरे पिता एक लखपती थे, लेकिन उन्होंने मुझे एक बार महीने का खर्च कभी नहीं दिया। कभी पचास तो कभी साठ तो कभी बीस रुपए भेज देते थे।वह खन्ना जी के पिता के आचरण को एकदम नहीं समझ पाया और हैरानी से उनका चेहरा देखता रहा। खन्ना जी ने किंचित मुस्करा कर कहा, आप ही क्या, भाई, इस कमीनेपन को तो कोई नहीं समझ सकता। शायद इसकी वजह यह थी कि एकसाथ सौ-दो सौ रुपए देते उनकी जान निकलती थी। आप जरा कल्पना कीजिए उस आदमी की जिसके पास लाखों की संपत्ति हो और वह अपने इकलौते बेटे को महीने का पूरा खर्च भी एक बार में न दे। पाँच-सात हजार रुपए माहवार तो मेरे पिता सूद से ही पीट लेते थे।अपनी बात यहीं पर रोक कर खन्ना जी ने नौकर को आवाज दी और चाय के लिए कह कर फिर अपनी रामकहानी का तार जोड़ा, तो मिश्रा जी, मुझे अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ी और पानी के जहाज पर खलासी का काम करते हुए मैं अमेरिका जा पहुँचा। वहाँ रह कर मैंने सात वर्षों में नौकरी करते ही मेकेनिकल इंजीनियरिंग की डिग्री ली। आप मुझसे कसम ले लीजिए जो इस पूरे अर्से में मैंने उनसे दमड़ी भी ली हो। उन्होंने मुझे सैकड़ों खत लिखे, पर मैंने एक का भी जवाब नहीं दिया। उनकी मौत के सालों बाद यहाँ लौटा तो अपने बल-बूते पर यह कारोबार खड़ा कर लिया और आपकी दया से आज अपने पैरों पर खड़ा हो कर रोटी खा रहा हूँ। कुछ ठहर कर खन्ना साहब ने यह भी बतला दिया था कि आखिर पिता की सारी संपत्ति भी उन्हीं को मिली थी।ये सारी तफसीलें बतलाते हुए खन्ना जी की आँखें आत्मविश्वास के दर्प से दीप्त हो उठी और उसके अहसास में उनकी सारी देह फैल-सी गई। आपकी दया से रोटी खा रहा हूँ, यह अंतिम वाक्य उनकी वर्तमान स्थिति से बिल्कुल विपरीत लगा था। साथ ही इतने घरेलू और आत्मीय वातावरण में एक लखपती की संघर्ष-कथा सुन कर उसने स्वयं में भारी स्फूर्ति अनुभव की थी।खन्ना जी उससे नाटकों और कविता पर भी बहस करते थे। कभी-कभी वे उसे पढ़ने को क्लासिक्स देते थे और यह कहना कभी नहीं भूलते थे कि स्वयं निर्मित व्यक्ति ही ढंग से जीता है। वे कई बार यह भी कह चुके थे, मैं अपनी जीवनी लिखने बैठूँ तो समझिए कि आपको सैकड़ों एडवेंचर और जोखिम उसमें अनायास मिल जाएँगे। सच तो यह है कि ढोल न पीट कर जीने वाले आदमी की जिंदगी में ही खरापन मिलता है। अगर आप असली आदमियत को परखना चाहते हैं तो वह मामूली कहे जाने वाले आदमियों में ही मिलेगी।ऐसे कितने ही खन्ना जी के लंबे-लंबे प्रवचन वह मुग्ध-सा पी लेता था। अपनी विपन्नता भी अब उसे इतनी बुरी नहीं लगती थी। ऐसे लोग अब उसे सरासर मूर्ख लगते थे, जो किसी को संपन्न और दुनियावी स्तर पर सफल देख कर नाक-भौं सिकोड़ने लगते हैं। उसे यह विचार भी सारहीन लगता था कि कोई भी पैसे वाला, आदमी के दुख-दर्द से नहीं जुड़ा होता।हालाँकि उसे कम से कम एक हजार रुपए की जरूरत थी, पर वह खन्ना जी की कृपा से इतना अधिक अभिभूत हो उठा कि उसने सिर्फ पाँच सौ रुपए ही माँगे। खन्ना जी ने अपने चेहरे पर दानशीलता कायम रखते हुए कहा, बस्स!पाँच सौ रुपए का चेक खन्ना जी के हाथ से लेते हुए उसका हाथ काँपा और आँखें नम हुईं। गदगद हो कर वह मन ही मन बोला, ‘दुनिया में अभी हमदर्द लोगों की कमी नहीं है। कोई लिखा-पढ़ी नहीं की कि रुपयों को कब और कैसे लौटाना है।’ उसने कृतज्ञ भाव से खन्ना जी को मन ही मन प्रणाम किया। उस समय उसका चेहरा ताजे फूल जैसा खिल उठा था।रुपए लिए हुए पूरे दो साल गुजर गए। इस दौरान वह खन्ना जी के यहाँ बराबर आता-जाता रहा। यहाँ तक कि खन्ना जी का पुत्र और पुत्री उसे भाई साहब कहने लगे। खन्ना जी की पत्नी भी उसके सामने आने लगी। वह उनकी ओर से पूर्ण आश्वस्त हो गया था। लेकिन खन्ना जी के दोनों बच्चों के इम्तिहान खत्म हो जाने के बाद ट्यूशन खत्म हो गया।उसकी परिस्थितियाँ सुधरने की बजाय और भी बिगड़ती गईं। वह बहन की शादी कर चुका था, किंतु बहनोई उसकी बहन और एक बच्चे को छोड़ कर चुपचाप कहीं भाग गया था। अब बहन और बच्चे का बोझ तो उसके सिर आ ही पड़ा था, बहनोई के भाग जाने की चिंता अलग से सिर पर सवार थी। बहन हर समय रोती-चीखती रहती थी यद्यपि वह उसके पति को खोजने का अथक प्रयास करता रहता था, अपनी नौकरी के बावजूद।कभी-कभी मिलते रहने से धीरे-धीरे इस परिस्थिति की जानकारी खन्ना जी को हुई तो उन्होंने उसे डटे रहने का उपदेश भी दिया। विशेषत: अपनी दानशीलता और निस्पृहता के किस्से सुना कर और साथ ही अपने सूदखोर दिवंगत पिता पर लानतें भेज कर खन्ना जी अपनी बातें पूरी करते।जिस समय वह खन्ना जी को अपने संसार का सबसे अधिक सही और दानशील मनुष्य स्वीकार करने जा रहा था, ठीक उसी समय उसकी मान्यताओं पर भयंकर कुठाराघात हुआ। हुआ यह कि एक दिन डाकिया उसकी देहरी पर एक लिफाफा डाल गया। उसने उसे खोल कर धड़कते दिल से पढ़ा और सन्न रह गया। यह एक टंकित इबारत थी, जिसमें खन्ना जी ने उसे दुनिया-भर का ऊँच-नीच समझाते हुए अपने पाँच सौ रुपए की याद दिलाई थी। उन्होंने शिष्ट भाषा में यह संकेत भी दिया था, रुपए तो आखिर लौटाने ही हैं, और अब यों भी ढाई साल निकल चुके हैं। रुपयों की खन्ना साहब को उतनी फिक्र नहीं थी, जितनी की इस उसूल की कि हर इज्जतदार आदमी कर्जा लौटाता है।हालाँकि खन्ना जी हिंदी बोल और लिख लेते थे लेकिन यह टंकित पत्र अंग्रेजी में था। शायद सौजन्य-भरे तकाजे के लिए खन्ना साहब को अंग्रेजी ही ज्यादा ठीक लगी। सहसा अपरिचय, सख्ती और ठंडे लहजे को इस भाषा में बखूबी निभाने की आदत थी उन्हें शायद।खन्ना जी का पत्र हाथ में ले कर वह विचारों में डूब गया। उसने सपने में भी न सोचा था कि वे किसी दिन इतने औचक ढंग से अपने रुपयों का तकाजा करेंगे। चंद दिन पहले ही तो वह खन्ना जी से मिला था, लेकिन अपने रुपयों का उन्होंने कोई संकेत नहीं किया था। तत्काल रुपए लौटाने की बात उसके मन में थी भी नहीं। वह सोचता था कि थोड़ी सुविधा होते हो ही वह इस दिशा में कोई उपाय करेगा, लेकिन इस पत्र को पढ़ कर वह गहरी चिंता में पड़ गया। वह सोचने लगा, पाँच सौ की तो क्या बात, वह फिलहाल पचास रुपए भी नहीं जुटा सकेगा। उसने कर्जा दबाने की बात कभी नहीं सोची थी, परंतु उसका दीर्घघोषित तर्क यही था कि इन रुपयों को वापस करने की अभी कोई जल्दी नहीं है। जब होंगे वह चुपचाप खन्ना जी के पैरों में रख आएगा। यहाँ तक कि उस क्षण वह एक शब्द भी नहीं बोल सकेगा। शब्दों में आखिर रखा भी क्या है, शब्द तो सारा अहसास भी नहीं ढो पाते हैं।उस रात वह ठीक से सो नहीं सका। उसने दूर-दूर तक सोचा, पर कोई रास्ता नहीं दिखा। कई दिन तक भाग-दौड़ करने पर भी जब कोई बात नहीं बनी तो उसे सिर्फ एक राह सूझी : प्राविडेंट फंड से पाँच सौ रुपए कर्ज ले लूँ। उसने तत्काल कोशिश की और दफ्तर के बाबुओं ने भी पचास झटक लिए। उसके पास नए कर्ज में से कुल जमा चार सौ पचास बचे।ज्यों-त्यों करके उसने पचास रुपए और जुटाए और खन्ना जी के घर दे आया। जान-बूझ कर ऐसा वक्त चुना था कि जब खन्ना जी घर पर नहीं थे। रुपए लिफाफे में बंद कर वह खन्ना जी की पत्नी को दे आया था। उन्होंने लिफाफा हाथ में ले कर पूछा भी, यह क्या है भाई साहब? वह हँस कर टाल गया, बस, इतना ही कह सका, एक गुप्त दस्तावेज है, आप खन्ना जी को दे दीजिएगा।पाँच सौ रुपया लौटाने के तीन माह बाद उसे पुन: एक टंकित पत्र मिला। अपने दफ्तर के पत्र-पैड पर खन्ना जी ने यह पत्र इस प्रकार लिख भेजा था, आपने रुपया पूरा नहीं भेजा है। बैंक की न्यूनतम ब्याज दर के हिसाब से ढाई वर्ष में दो सौ रुपए से ऊपर ब्याज निकलता है। कृपया इस पत्र को पाते ही शेष धन भिजवाने का कष्ट करें। यद्यपि दिसंबर का महीना था, तथापि उसके माथे पर पसीना चुहचुहा आया। ऐसी अंतर्विरोधी बातें तो उसने किताबों में भी नहीं पढ़ी थीं। बाप की कंजूसी और सूदखोरी को भला-बुरा कहने वाला कोई स्वनिर्मित संघर्षरत धनी व्यक्ति उसके जैसी परिस्थितियों में फँसे आदमी को भला सूद से भी छूट न दें!इस बेरहम तकाजे से वह हीरे की तरह सख्त हो गया। उसने खन्ना साहब के घर जाना तो दूर उस घर के रास्ते तक से निकलना छोड़ दिया।एक दिन उसके घर खन्ना जी का पुत्र नरेंद्र आया और कहने लगा, आप पापा को आगे से एक पैसा भी न दें। इस बात पर मेरी उनसे काफी तू-तू, मैं-मैं हो चुकी है। मम्मी और नीरा (छोटी बहन) भी इस बात पर बहुत नाराज हैं। पापा हमारे बाबा जी के लिए गाली निकालते हैं और खुद उनसे भी गए-बीते हैं, उनके लिए ‘ह्यूमन रिलेशन’ (मानवीय संबंध) सिर्फ मजाक की चीज है। अब उन्हें और एक कौड़ी भी न दें। मैं देख लूँगा, वह आपसे सूद किस तरह वसूल करते हैं।वह नरेंद्र के व्यवहार से द्रवित हो उठा और आकुल हो कर बोला, नहीं, नहीं, नरेंद्र ऐसी बात नहीं करते। तुम्हारे पिता जी नेक आदमी हैं। उन्होंने मुझे जिस आड़े वक्त पर सहायता दी थी, उसको देखते हुए ब्याज वगैरह बहुत मामूली चीज है। हम किसी का रुपया तो लौटा सकते हैं लेकिन सहायता से मिली सांत्वना की भरपाई तो नहीं कर सकते। फिर वह नरेंद्र की पीठ पर प्यार से हाथ रख कर बोला, तुम इन फिजूल की बातों में न पड़ो, तुम लोगों से मेरे जो संबंध हैं, वे मेरे खाते में एक बड़ी नियामत हैं।दिन निकलते चले गए, वह खन्ना जी को सूद की रकम नहीं भेज पाया। ‘कल देखेंगे’ वाली स्थगन प्रक्रिया में अनजाने में ही कई माह निकल गए। और एक दिन आखिर खन्ना जी उसे अपने दफ्तर में घुसते दीखे। वह अपनी कुर्सी से उठ खड़ा हुआ और उनके साथ चुपचाप दफ्तर से बाहर निकल आया। साथ-साथ चलते हुए यकायक उसे उन्हें निहारने की इच्छा हुई। उसने देखा कि पस्तकद का चुँधी-चुँधी आँखों वाला यह गंजा आदमी मानवीयता का एक नमूना है। चश्मे के भीतर से खन्ना जी की आँखें उसे बिज्जू की आँखें जैसी लगीं। उसने तैश में कुछ बातें कहनी चाहीं, लेकिन फिर वह ढीला पड़ गया। दफ्तर के बाहर एक खाली जगह पर पहुँच कर खन्ना जी बोले, मिश्रा जी, आपकी तरफ दो सौ रुपए और निकलते हैं। मैंने आपसे कोई लिखा-पढ़ी भी नहीं की थी। चूँकि यह इंसानियत का सवाल था। आज मेरी पावनादारी की मियाद खत्म हो रही है और मैंने आपसे एक रुक्का भी नहीं लिखवाया।वह इस ‘इंसानियत’ शब्द से यकायक भड़क उठा और धैर्य छोड़ कर बोला, खन्ना जी, फिलहाल उतने रुपए तो मेरे पास हैं नहीं, जब होंगे तब आप जो कहेंगे, दे दूँगा, चाहें तो आप लिखवा लें।आपकी जैसी मर्जी, कहते हुए खन्ना जी ने सड़क से गुजरते रिक्शे वाले को आवाज दी और उससे बोले, आइए, रिक्शे में आ जाइए, अभी पंद्रह मिनट में वापस चले आइएगा। वह बिना कुछ समझे-बूझे उनकी बगल में बैठ गया। रिक्शा चालक से खन्ना जी ने कहा, जरा जल्दी से कचहरी चलो।रिक्शा सड़क पर दौड़ने लगा। वह सब तरफ से बेखबर हो कर सड़क पर यत्र-तत्र छितराई भीड़ देखने में डूब गया। सारी चीजों के प्रति उसका भाव एकदम तटस्थ दर्शक जैसा हो गया। वह एकदम भूल गया कि दफ्तर से बिना किसी से कुछ कहे ही खन्ना जी के चंगुल में फँस आया है। कचहरी के गेट के सामने पहुँच कर खन्ना साहब ने रिक्शावाले को पैसे चुकाए और एक झोपड़ी की तरफ बढ़ लिए। वह भी अनजाने-सा उनके पीछे चलता रहा।खन्ना जी ने झोपड़ी में घुसने से पहले उसकी ओर मुड़ कर देखा और बोले, आ जाइए। वह भी झोपड़ी में घुस गया। वहाँ एक चौकी और दो-तीन मरी-मरी सी कुर्सियाँ पड़ी थीं। चौकी पर एक टीन का संदूक रखा था और अधेड़ उम्र का मरगिल्ला-सा व्यक्ति स्टांप पेपर पर कोई इबारत लिख रहा था। खन्ना जी को देख कर वह बोला, आइए बैठिए, एक मिनट में फारिग हो कर आपका काम करता हूँ।हाँ, हाँ, ठीक है, जरा जल्दी है, लंबा काम हो तो उसे फिर निबटा लेना। कह कर खन्ना जी ने अपने बैग से एक स्टांप पेपर निकाल मुंशी के हाथ में थमाया। मुंशी ने हाथ का काम छोड़ कर स्टांप पेपर अपने सामने संदूक पर रखा और यह लिखने लगा, ‘मैंने 250 रुपए मुबलिग जिसका आधा एक सौ पचीस रुपए आज दिनांक… को विहारीलाल खन्ना वल्द हीरालाल से कर्ज लिया, जिसका बैंक दर से सूद मय मूलधन देने की देनदारी मेरे सिर पर है। इतना लिखने के बाद उसने सिर उठा कर खन्ना साहब से व्यस्तता दिखलाते हुए पूछा, मगर वह आदमी कहाँ है, जनाब?”मगर वह आदमी कहाँ है, जनाब’ उसके सिर में इस तरह बजा जैसे किसी ने घंटे पर हथौड़े की चोट की हो। वह सहसा आगे बढ़ कर बोला, अगर आप मुझे आदमी मान सकें तो वह बदनसीब मैं ही हूँ! उसके इतना कहते ही खन्ना जी और मुंशी एकदम सकपका गए। खन्ना जी के स्वर में खासा उखड़ापन था, आदमी नहीं, मुंशी जी, आप ही हैं वह मिश्रा जी।’अच्छा, अच्छा, कहते हुए मुंशी बिलकुल सिटपिटा गया। शायद यह उसकी कल्पना में भी नहीं था कि सिर्फ ढाई सौ रुपया कर्ज ले कर स्टांप लिखने वाला आदमी ऐसा भी होता है, जिसे अमूर्त करके अनदेखा नहीं किया जा सकता। वह अपनी कई दिनों की बढ़ी हुई दाढ़ी खुजलाते हुए बोला, माफ करना बाबू साहब, आप जरा इधर दस्तखत बना दीजिए।उसने मुंशी के लगाए हुए निशान पर हस्ताक्षर कर दिए। इसके बाद मुंशी ने उसकी तरफ निगाह भी नहीं उठाई। वह खन्ना और उसे विस्मृत करके पहले वाली तहरीर में उलझ गया।असमंजस में वह एक मिनट तक गुमसुम हो कर खड़ा रहा और फिर खन्ना जी और मुंशी जी को उसी झोपड़ी में छोड़ कर कचहरी के गेट से तेजी से बाहर निकल आया।अपने दफ्तर की ओर कदम नापते हुए उसके दिलो-दिमाग की शिराओं में ‘मगर वह आदमी कहाँ है’ बार-बार तेजी से गूँज रहा था। |
दूसरी कहानी —
अभयदान से.रा. यात्री |
उसने लालटेन की लौ धीमी कर दी और रजाई ओढ़कर लेट गया। नीम अंधेरे में भी छतों के कोनों में लटकते हुए जाले साफ नजर आ रहे थे। सारी शाम जिस बुरी मनःस्थिति में गुजरी थी उसका ख्याल करके उसने सोने की कोशिश की लेकिन उसके मन पर छाई हुई उदासी और अधिक उभर आई।पड़ोस में एक आदमी बरसों से बीमार चल रहा था। आज तीसरे पहर उसकी मौत हो गई। मुश्किल से कंधा देने वाले जुट पाये थे। वह जिस मकान में रहता है वहां कॉलेज में पढ़ने वाले और भी कई विद्यार्थी रहते हैं, पर शनिवार होने की वजह से वह सब अपने गांव चले गये थे। दफ्तर से लौटने के बाद उसने पड़ोस के मकान में रोने-पीटने की आवाज सुनी तो वहां पहुंचा तो उसका मन बहुत खिन्न हो गया। कंकाल सरीखी एक औरत तीन छोटे-छोटे मरियल से बच्चों के पास हड्डियों के ढांचे एक मृतक पर सिर पटक रही थी। मुहल्ले की बहुत कम औरतें और उंगुलियों पर गिने जा सकने वाले आदमी वहां मौजूद थे। किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या किया जाया इधर-उधर भाग-दौड़ करके जैसे-तैसे कफन-काठी की व्यवस्था हो पाई और सूरज छिपने तक उस लाश को बड़ी कठिनाई से उस कोठरी से बाहर निकाला जा सका।लाश को फूंककर रात दस बजे जब वह इस बड़े मकान में घुसा तो जाड़े की रात सारे कस्बे पर पूरी तरह छा गई थी। मकान रात के अंधेरे और सन्नाटे में एकदम बदला हुआ मालूम पड़ता था। साधारण ढंग से वह मकान में आराम और सुविधा महसूस करता था लेकिन आज वह कुछ भयभीत-सा था। उसने अपने कमरे की सांकल खोली और अंदाज से माचिस तलाश करने लगा। दियासलाई और बीड़ी का बंडल अक्सर वह अपने तकिये के नीचे रखता है। माचिस आसानी से मिल गई। चारपाई के नीचे से उसने लालटेन टटोलकर निकाली और उसे जला दिया।उसके संस्कार ने उसे उकसाया कि श्मशानघाट से लौटने के बाद उसे नहा डालना चाहिए लेकिन बढ़ी हुई सर्दी का ख्याल करने वह इस इरादे को टाल गया। चप्पलों में उसकी उंगलियां सुन्न हो गई थीं और उसे बेतहाशा छींकें आ रही थीं। उसके पास खाने के लिए कुछ तैयार नहीं था और भूख महसूस हो रही थी। लेकिन बाजार में खाना खाने जाने के लिए जबरदस्त इच्छाशक्ति की जरूरत थी जिसे वह किसी प्रकार नहीं जुटा पा रहा था। लालटेन हाथ में उठाकर वह किचेन में गया। कांच के गिलास की तली में उसे जरा-सा दूध दिखाई दिया। स्टोव धोककर उसने एक प्याला चाय तैयार की और प्याला लेकर बिस्तर पर आ गया। पीते हुए उसने सुकून महसूस किया। उसकी दैहिक थकान और मरियल स्थितियों से जूझते रहने का तनाव कुछ ढीला पड़ गया। हथेलियों के बीच बीड़ी का बंडल मसलकर उसने एक बीड़ी निकाली और जलाकर पीने लगा।चाय खत्म करके उसने प्याला खाट के नीचे सरका दिया और पांव सिकोड़कर रजाई में लेट गया। लेटे-लेटे उसे पड़ोस के घर का ख्याल आया जिसमें मौत हुई थी। रोना-धोना इस समय तक बंद हो चुका था या फिर यह हो सकता है कि उस घर का दरवाजा बंद होने की वजह से आवाज ही न आ रही हो। तीन छोटे-छोटे यतीम बचचे और वह बेचारी गरीब औरत शायद सभी भूखे होंगे। यह भी हो सकता है वह निढाल और बेहोश पड़ी हो और बच्चे चीख-चिल्लाकर सो गये हों।…दूर बजे तहसील के घंटे से सहसा उसकी विचारधारा भंग हो गई। उसने घंटों को गिनने की कोशिश की। सात घंटे उसे साफ सुनाई दिये लेकिन उसे समय का ठीक अनुमान नहीं हो सका। उसने सोचा ग्यारह से कम नहीं होंगे। रजाई में लिपटे रहने से उसके पांवों की सुन्न खत्म हो गई थी और बाहर पड़ने वाली ठंड का अहसास इस समय मर चुका था। सोने से पहले उसे बाथरूम जाने की आदत थी जिसे अपने शब्दों में वह ‘बहम मिटाना’ कहता था। उसने इस क्रिया से निपटना जरूरी समझा और अनमने भाव से उठकर बैठ गया। पायताने सूती कंबल पड़ा था जिसे उसने कसकर अपने बदन पर लपेटा और चप्पलें घसीटता हुआ बाथरूम की आरे चल दिया। बाहर जाते समय उसने हाथ में लालटेन नहीं उठाई। इस मकान में रहते हुए उसे इतना अर्सा हो चुका था कि वह अंधेरे में टटोलते हुए अंदाज से सही स्थान पर पहुंच सकता था।सहन में पहुंचकर उसने ठंड महसूस की और आसमान की ओर आंखें उठाकर देखा। अपने चौकोर सहन के ऊपर फैले निरभ्र आकाश में उसे असंख्य तारे टिमटिमाते दिखाई दिये। अंधेरा पास हाने के कारण चारों ओर गहरी धुंध फैली हुई थी। ओस बहुत तेजी से गिर रही थी। बाथरूम से निकलकर वह बाहर गेट तक गया। गली में इस समय कोई नहीं चल-फिर रहा था – सब तरफ सन्नाटा फैला हुआ था।लौटकर रजाई में लिपटते हुए उसे जोर की कंपकंपी लगी। उसने अपने दोनों हाथ टांगो के बीच में रखकर गर्म करने की कोशिश की। इस दफा लेटते ही न जाने क्यों उसके दिमाग में बुरे-बुरे ख्याल उभरते चले जा रहे थे। दूरागत और भयावने! मुर्दाघाट का दृश्य उसकी आंखों में घूम गया। चीमड़ मुर्दें को जब लकडियों के ढेर पर रखकर आग लगाई गई थी तो पीपल पर बैठी चील बड़े जोर से चीखी थी। मुर्दे में आग लगाकर लोग एक टीन-शेड के नीचे चले गये थे और वहां बैठकर उन्होंने मुर्दे के बजाय कड़ाके की ठंड और दिनों-दिन बढ़ती महंगाई का जिक्र किया था। चट-चट करती लकडियां और ऊपर तक जाती आग की लपटों में लोगों के चेहरे कभी-कभी विचित्र ढंग से चमक उठते थे। इन अपरिचित या अर्द्ध-परिचित चेहरों को देखकर उसे अजीब रहस्यात्मक-सी अनुभूति होती थी। मुर्दे के साथ जाने वाले लोग मृतक की ओर से अनासक्त होकर अपनी बीडियां या सिगरेटें सुलगाये हुए थे। किसी ने उसे भी बीड़ी पेश की थी जिसे उसने अनिर्णय की अवस्था में ‘धन्यवाद’ कहते हुए ले लिया था – गोकि बाद में उऐ अपना धन्यवाद उस बीहड़ माहौल में बहुत बेमौजूं लगा था।हवा का हल्का-सा झोंका आया और उढ़के हुए किवाड़ को धकेल गया। ढीला किवाड़ चूं-चूं करके झूल गया। यह आवाज उसे भीतर तक उद्वेलित कर गई। हालांकि यह महज एक ढीले चौखटे की आवाज थी जिसे वह कई बार सुनने का आदि था लेकिन इस समय वह ध्वनि उसे कर्कश और डरावनी लगी। थोड़ी देर बाद उसने पाया कि वह बुरी तरह भयभीत और त्रस्त है। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसा क्यों हो रहा है। वह डाकखाने में बाबू था और बरसों से इसी मकान में रहता आया था। शनिवार की शाम को लड़के हमेशा ही अपने घरों को चले जाते थे। वह आसानी से भयभीत होने वाला जीव नहीं था लेकिन इस बार वह बुरी तरह पस्त था। कमरे में बहुत हल्का उजाला था – लालटेन ओट में थी और उसकी भुतही रोशनी केवल आधी दीवारों पर पड़ रही है – एकदम निःशब्द और रहस्यमय तरीके से। उसने रजाई अपने सिर तक खींच ली लेकिन भय की अनुभूति में कोई अंतर नहीं पड़ा। उसे उन बहुत से मरे हुए लोगों की याद आने लगी जिन्हें वह जीवित अवस्था में बहुत निकट से देखता था। वे लोग सहृदय और सदाशय थे। उसके साथ उन्होंने कभी बदसुलूक नहीं किया था लेकिन इस समय उनकी स्मृति त्रासद थी।उसने बिस्तर पर बैठकर रजाई पूरी तरह लपेट ली और दीवार का सहारा ले लिया। खालीपन से उभरने वाले हौल को दूर करने के लिए उसने एक बीड़ी और जला ली। माचिस को बजाकर देखा, कहीं उसमें तीलियां तो नहीं चुक गई। कुछ पल बाद अपने भीतर घुमड़ती नीरवता से घबराकर वह उठकर खड़ा हो गया। इतने बड़े मकान में किसी अन्य जीवित प्राणी की कमी उसे बुरी तरह मथने लगी – सब लौंडे मर गये – ससुरा छुट्टी में एक भी नहीं टिकता। इतनी बड़ी उमर के आदमी को अकेलापन कभी इतना भयभीत नहीं करता लेकिन जब यह हावी होने लगे तो मौत की तरह लगता है।रात उसे बहुत भयानक और लंबी होती लगी। रजाई लपेटे-लपेटे वह बाहर सहन में निकल आया। गर्मियों के मौसम में बाहर सहन के कोनों में चिड़ियां रात को बैठी रहती हैं, पर जाड़ों के दिनों में उनका भी पता नहीं चलता। अकस्मात उसे उन चिड़ियों की याद आने लगी जो मार्च शुरू होते ही उसकी अलमारी में घोंसले बनाने लगती थी। उनकी बेहूदगी पर बिफरते हुए वह उनके घोंसले रोज उठाकर बाहर सड़क पर फेंका करता था। अपना वह कार्य इस समय उसे बहुत निन्द्य लगा – पता नहीं, अब वे कहां होंगी? दूसरे किसी घर में शायद वे अब भी बसेरा लिये हों। ‘एक चिड़िया तक नहीं’ मुहावरा उसने न जाने कितनी बार पढ़ा था लेकिन इस क्षण के पूर्व उसे इसका अहसास कभी नहीं हुआ था।वह बाहर दरवाजे पर आकर खड़ा हो गया। गली के नुक्कड़ तक उसकी नजर गई – कहीं कोई नहीं था। अपना मन संयत करने के इरादे से वह मकान की पटिया से उतरकर गली में आ गया और इधर-उधर चहलकदमी करने लगा। गली में घूमते हुए उकी इच्छा हुई कि थोड़ा आगे बढ़ा जाय लेकिन मकान को असुरक्षित छोड़कर आगे जाना भी उसे वाजिब नहीं लगा। पहले उसका इरादा ताला लगाने का हुआ लेकिन आगे दूर तक जाने का विचार भी बहुत दृढ़ नहीं था। उसने बाहर का दरवाजा बंद करके सख्ती से बंद होने वाले कुंदे को मजबूती से खींचा। खिंचड़-खिचड़ की ध्वनि से रात को सूनापन कुछ पल के लिए खंडित हो गया।चलते-चलते वह गली से बाहर चौड़ी सड़क पर आ निकला। दुकानें न जाने कब की बंद हो चुकी थीं। दूर-दूर तक उसे कोई आदमी दिखाई नहीं पड़ा। किसी आदमी की शक्ल देखने के इरादे से वह कुछ और बढ़ गया। सड़क के दोनों ओर हलवाइयों की दूकानें थीं लेकिन उनकी भट्टियां इस वक्त ठंडी हो चुकी थीं। इस तरह रजाई लपेटकर आगे बढ़ने में उसे असुविधा हो रही थी और थोड़ी झिझक भी। कोई परिचित यकायक मिल गया तो? लेकिन कुछ क्षणों बाद उसे लगा कि झिझक और असुविधा से वह इतना त्रस्त नहीं है जितना कि अकेलेपन से घबराया हुआ है। चलते-चलते वह सहसा रुका और दुकानों के चबूतरे पर उकड़ूं बैठ गया। ऊपर टीन-शेड से ओस की बूंदें टप-टप करके गिर रही थीं। बैठे-बैठे ही सरकते हुए वह भट्टी के करीब पहुंच गया। ठंड से ठिठुरते हाथों को उसने भट्टी के ऊपर किया लेकिन कोई गरम लपट ऊपर तक नहीं आई। शायद भट्टी बुझे हुए वह कई घंटे बीत चुके थे। अपने पंजे उसने भट्टी के भीतर तक डाल दिये, संभवतः भट्टी की दीवारें अभी तक गरम हों। भट्टी की तलहटी में हाथ लगाते ही उसे एक लिजलिजाहट का स्पर्श हुआ। शायद कोई नरम और गर्म चीज भट्टी की तली में पड़ी थी। उसने डरते-डरते उसे दोबारा हल्के से टटोला तो बहुत मरियल आवाज में एक कें-कें हुई। अनुभव से वह जान गया कि यह एक पिल्ला है जो जीवन-रक्षा की सहज प्रवृत्ति से इस भट्टी में आकर छिप गया है। उसके हाथों का स्पर्श पाकर उसे छोटे-से जीवन ने कई बार कूं-कूं की ध्वनि उच्चरित की। पिल्ले को अंततः उसने भट्टी के बाहर खींच लिया। बुझे हुए कोयलों की राख में वह गरीब पूरी तरह लिथड़ा हुआ था और उसके भूरे बालों पर राख की मोटी पर्त जमी थी। मुंह, आंख ओर सिर का ऊपरी भाग भी मैल और गर्द से अंटा पड़ा था। उसने पिल्ले को गर्दन से पकड़कर हवा में लटका दिया और दूसरे हाथ से उसकी पीठ पर थप-थप करके धूल झाड़ने लगा। पिल्ले की कूं-कूं चीख में तब्दील हो गई। झाड़-पोंछ के बाद उसने पिल्ले को अधूरे ढंग से रजाई में कर लिया।वह भट्टी के पास से उठकर खड़ा हो गया। उसने पांव ठंड से जकड़ गये थे। पिल्ला अब उसकी बगल में था और बिल्कुल शांत था। वह घर की ओर लौट पड़ा। उसके पांव अब उतने शिथिल नहीं थे।घर में घुसकर उसने सांकल चढ़ाई और पिल्ले को बगल से निकालकर फर्श पर रख दिया। लालटेन की लौ उकसा कर उसने पिल्ले की हरकत देखी। पिल्ला अपनी छोटी-छोटी कातर आंखों से उसे देखने लगा। पिल्ले ने अपने कान फटफटाये और कूं-कूं करने लगा – संभवतः उसे फर्श ठंडा लग रहा था। अपनी मिचमिचाती आंखें उठाकर उसने इधर-उधर कुछ देखा और फर्श सूंघने लगा। उसकी इच्छा हुई कि इस समय खाने-पीने की कोई चीच होती तो वह पिल्ले को देता।दूर तहसील में दो घंटे बजे और उसकी आंखों में नींद बुरी तरह घिर आई। जमुहाई लेते हुए उसने दीवार पर नजर दौड़ाई, फटी हुई एक कमीज महीनों से खूंटी पर टंगी हुई थी। उसने खूंटी से कमीज खींच ली और उसमें पिल्ले को लपेटने लगा। उसने पिल्ले को एक गठरी के आकार में कर दिया और उसका मुंह खुला रहने दिया। इस गठरी को उसने अपने पैरों के पास रखकर रजाई ओढ़ ली। पिल्ला हिल-हिलकर बिस्तर में अपने लिये आराम की जगह बनाने लगा और बहुत धीरे-धीरे गले से गर्र-गर्र की आवाज निकालने लगा।उसने फर्श की ओर झुककर लालटेन की लौ कम कर दी और सोने लगा। कुछेक मिनट बाद वह नींद में पूरी तरह डूब गया। इस बार उसे किसी भयावह आकृति या दृश्य की याद नहीं आई। वह नींद में डूबा हुआ और बेफिक्र और पूर्णतया सुरिक्षित आदमी थी। |
यात्री जी के बारे में वैसे तो आपको इंटरनेट पर बहुत सारी जानकारियां मिल सकती हैं। फिर भी वहीं से कुछ जानकारी हमने भी आपके लिए जुटाई है।
जन्म-10 जुलाई 1932, मुज्ज़फ्फर नगर, उत्तर प्रदेश
शिक्षा- एम.ए.-हिंदी-1955, राजनीती शास्त्र-1957, (आगरा विश्वविद्यालय)
कामकाज–
अध्यापन एवं लेखन, एन.आर.सी.खुर्जा बुलंदशहर, नरसिंहपुर, मध्यप्रदेश, गाजियाबाद में।
कहानी-संग्रह-
दूसरे चेहरे, अलग-अलग अस्वीकार, काल विदूषक, धरातल, केवल पिता, सिलशिला, अकर्मक क्रिया, टापू पर अकेले, खंडित-संवाद, नया सम्बन्ध, भूख तथा अन्य कहानियाँ, अभयदान, पुल टूटते हुए, चर्चित कहानियाँ, ख़ारिज और बे दखल, विरोधी स्वर, पुरस्कृत कहानियाँ, परजीवी।
उपन्यास-
दराजों मे दस्तावेज़, लौटते हुए, चाँदनी के आर पार, बीच की दरार, कई अंधेरों के पर, टूटते दायरे, चादर के बहार, प्यासी नदी, भटका मेघ, आकाशचारी, आत्मदाह, बावजूद, अंतहीन, प्रथम परिचय, जली रस्सी, युद्ध अविराम, दशहरा, अपरचित शेष, बेदखल अतीत, आखिरी पड़ाव, सुबह की तलाश, मुक्ति मार्ग, घर न घाट, एक ज़िंदगी और, घटना सूत्र, बैरंग खत, अनदेखे पुल, कलंदर, टापू पर अकेले, छलावा, यातना शिविर।
व्यंग्य संग्रह-
किस्सा एक खरगोश का, दुनिया मेरे आगे
संस्मरण- लौटना एक वाकिफ़ उम्र का
संपादन- विस्थापित, रंग एवं रेखाएँ
संपादन- वर्तमान साहित्य (1987 से 2003 तक)
पुरस्कार एवं सम्मान-
उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान की ओर से 1979, 1980, 1983, 1997, 2001 और 2006 में सम्मानित। साहित्य भूषण पुरस्कार से अलंकृत।
July 10, 2019
3:42 pm Tags: से रा यात्री, आदमी कहां है, अभयदान, से रा यात्री की कहानियां