वरिष्ठ कथाकार, उपन्यासकार, संपादक और अपनी लंबी साहित्यिक यात्रा के अनुभवों से भरे से रा यात्री का जाना साहित्य जगत के लिए एक सदमे की तरह है। यात्री के जाने से देश की हिन्दी पट्टी का साहित्य संसार जहां वीरान हो गया वहीं यात्री जी की साहित्यिक यात्रा पर पूर्ण विराम लग गया। बेशक यात्री जी 91 साल के हो गए थे लेकिन आखिरी दिनों तक उनके भीतर की साहित्यिक जिजिविषा बरकरार रही। करीब 33 उपन्यास, 18 कहानी संग्रह, दो व्यंग्य संग्रह और उपेन्द्रनाथ अश्क की जीवनी के अलावा कई संस्मरण लिख चुके सेवाराम यात्री 10 जुलाई 1932 को मुजफ्फरनगर के एक गांव जड़ोदा में जन्मे थी। ज़िंदगी बेहद उतार चढ़ाव से भरी रही, परिवार बिखरा रहा। अपने बलबूते पढ़ाई लिखाई की, पहले मुजफ्फरनगर में फिर आगरा विश्वविद्यालय से राजनीति शास्त्र और हिन्दी में एमए। सागर विश्वविद्यालय से शोध किया और फिर अध्यापन के पेशे में आ गए। लिखना पढ़ना हाई स्कूल से ही शुरु हो गया था। पहले कविताएं लिखीं, लेकिन कविता की सीमाओं को देखते हुए कहानियां लिखनी शुरु कीं। पहली कहानी ‘गर्द गुबार’1963 में छपी तब की चर्चित कहानी पत्रिका ‘नई कहानी’ में। पहला कहानी संग्रह ‘दूसरे चेहरे’ आया 1971 में। यात्री जी की कथा यात्रा निरंतर चलती रही। बाद में करीब 16 वर्षों तक उन्होंने एक स्तरीय साहित्यिक पत्रिका वर्तमान साहित्य का संपादन किया। वर्धा के महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय में वे राइटर इन रेजीडेंस भी रहे। उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान ने उन्हें 6 बार साहित्य भूषण से नवाज़ा और महात्मा गांधी सम्मान भी उन्हें मिला। लेकिन साहित्य के तमाम कथित बड़े सम्मानों की सियासत से वे हमेशा दूर रहे।
बेहद सरल और ज़मीन से जुड़े इस अद्भुत कथाकार की सामाजिक और सियासी दृष्टि बहुत साफ थी। वह कहते ‘आज के लेखक जोखिम नहीं लेना चाहते। लेखन के लिए जो एक प्रतिबद्धधता होती है कमिटमेंट होता है, विदाउट कमिटमेंट आप हैं क्यां … ढोल हैं… आज लेखन में सबसे बड़ी कमी कमिटमेंट की है।‘
यात्री जी की किताबों का विशाल संसार है… खंडित संवाद, कोई दीवार भी नहीं, गुमनामी के अंधेरे में, दराजों में बंद दस्तावेज़, टापू पर अकेले, प्यासी नदी, नदी पीछे नहीं मुड़ती, जिप्सी स्कॉलर, फिर से इंतज़ार, गुमनामी के अंधेरे में, बिखरे तिनके, युद्ध अविराम, एक ज़िंदगी और… फेहरिस्त बहुत लंबी है। लेकिन इतना कुछ लिखने के बाद भी उनके भीतर खुद को न लिख पाने की कसक आखिरी वक्त तक बनी रही। वह कहते ‘मैं मैं को नहीं लिख पाया… यहां आकर मेरी शक्ति खत्म हो गई, जहां मुझे स्वयं को लिखना था… ये जो मैंने सब लिखा है, ये तो बस दिशांतर है।’ यात्री जी ने एक मुलाकात में कहा था ‘मुझपर 35 लोगों ने पीएचडी की है…लेकिन सब खोखलापन है…’उज़रत’ कहानी का किसी ने कोई जिक्र नहीं किया…35 स्कालर्स में से…एक ने भी जिक्र नहीं किया ‘उज़रत’ का…जबकि मैं ‘उज़रत’ और ‘दरारों के बीच’ को अपनी सबसे अच्छी कहानियों में गिनता हूं।‘
आज के दौर में जिस तरह जल्दी से जल्दी छपने की होड़ लगी है, वह यात्री जी को विचलित करती रही। नई पीढ़ी के लेखकों में पढ़ने की आदत नहीं है, यह उनकी बड़ी चिंता रही। यात्री जी कहते थे कि नई पीढ़ी को पहले पढ़ना चाहिए। क्लासिक पढ़ना चाहिए। प्रेमचंद को पढ़ना चाहिए। रेणु को पढ़ना चाहिए। दिनकर की कविता पढ़नी चाहिए। ‘34 साल की उम्र में मेरी पहली कहानी छपी धर्मयुग में… आज 34 साल की उम्र में 34 किताबें छप जाती हैं..’।
बिगड़ती सेहत और कुछ न कर पाने की बेचैनी से रा यात्री को हर वक्त परेशान करती रही… उनके लिखने की छटपटाहट और अपने संस्मरणों के खजाने को कागज पर उतारने की उनकी तड़प हर वक्त उनकी आंखों में झलकती रही। साहित्य के इस अनमोल यात्री ने साहित्य को जो अमूल्य निधि दी है उसे बेशक नई पीढ़ी के रचनाकारों को पढ़ना चाहिए। उन्हें पढ़कर यह सीखा समझा जा सकता है कि कैसे ज़मीन, समाज और जनता से जुड़ा एक संवेदनशील रचनाकार बगैर कोई समझौता किए भी अपना रचनाकर्म जारी रख सकता है।
जीवन के आखिरी दिनों तक इस बेहद संवेदनशाल कथाकार में अपार रचनात्मक ऊर्जा और समसामयिक सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य को लेकर चिंता बनी रही। सेहत साथ नहीं देती थी, लेकिन लिखने पढ़ने का जुनून बरकरार रहा। व्यक्तित्व इतना सरल कि आप उनके साथ बहुत जल्दी एकदम अपने से हो जाते। उनकी सरलता और सादगी, ज़मीन से जुड़े रहने का एहसास, पढ़ना-लिखना, देश-समाज-सियासत को देखने का नज़रिया और हमेशा एक जनपक्षधर सोच उन्हें तमाम साहित्यकारों से अलग करती थी।
कथा साहित्य में उनके योगदान को आगे बढ़ाने और नई पीढ़ी के रचनाकारों को एक मंच देने का काम उनके बेटे आलोक यात्री करने की कोशिश कर रहे हैं औऱ गाजियाबाद में निरंतर कथा संवाद जैसे कार्यक्रम के ज़रिये नए रचनाकारों में नई ऊर्जा, सोच और संवेदनशील रचनाधर्मिता लाने का अभियान चला रहे हैं। बेशक से रा यात्री को सच्ची श्रद्दांजलि इन्ही सकारात्मक साहित्यिक पहल और अभियानों के ज़रिये दी जा सकती है।
— अतुल सिन्हा
Posted Date:November 20, 2023
9:56 pm Tags: से रा यात्री, हिन्दी साहित्य, कथाकार से रा यात्री
यात्री जी के विषय में पढ़ना और उनकी साहित्यिक गतिविधियों से परिचित होना मेरे लिए यूं भी आवश्यक है कि मैं १३.७.२०२४ को कथारंग कार्यक्रम जिसे श्री आलोक यात्री ने अपनी मेहनत से कथाकारों को एक मंच पर लाकर उनकी प्रतिभा को
तराश कर सम्मानित किया। कहानी प्रतियोगिता में मुझे मेरी कहानी “तुम कहां हो निन्नी”पर तृतीय पुरस्कार देकर सम्मानित किया जा रहा है।यह मेरे लिए गौरव की बात है।
से.रा.यात्री हिंदी साहित्य के स्तम्भ है। उन्होंने हिंदी साहित्य को इतना समृद्ध बनाया है कि उनका नाम हमेशा हिंदी साहित्य जगत में चमकता रहेगा। यात्री जी को मेरा सादर नमन