भेड़ियों की चिट्ठी मुख्यमंत्री के नाम…
साहित्यकार भुवनेश्वर ने आज के 85 साल पहले प्रसिद्ध कहानी लिखी थी- भेड़िये। तब यह कहानी जितनी चर्चित हुई थी उससे ज्यादा भेड़िये चर्चा में आए थे। उसी खौफ के साथ भेड़िये फिर लौटे हैं। यूपी के बहराइच और आसपास के इलाकों में भेड़ियों का खौफ पसरा है। टीवी चैनलों पर सिर्फ भेड़िये छाए हैं। पैने और नुकीले दांत दिखाते, जीभ से लार टपकाते और खून सने मुंह वाले भेड़िये। नदी-नालों और खेतों में झुंड के झुंड विचरते भेड़िये और उन्हें जिंदा या मुर्दा खोजने निकलीं लाठियां-बंदूकें। टीवी चैनलों पर बहसें चल रही हैं। रिपोर्टर भी मारे-मारे फिर रहे हैं… भेड़िया न सही उसका बच्चा ही दिख जाए तो भी टीआरपी बढ़ जाए।
मेरे मोहल्ले का एक कुत्ता पहले भेड़ियों की संगत में रह चुका था। उसमें अब भी कुछ भेड़ियापन बचा हुआ है। वह कभी-कभार लोगों को काटकर दांत पैने कर लेता है। साल में एक-दो बार भेड़ियों की सभाओं में भी जाता रहता है। दो दिन पहले वह अचानक गायब हो गया। लौटा तो मेरे पास आया और बोला- मैं भेड़ियों की आपात बैठक में गया था।
बैठक के बारे में मैंने जिज्ञासा व्यक्त की तो उसने कहा- सभी भेड़ियों ने मुख्यमंत्री के लिए एक पत्र लिखा है। वे चाहते हैं कि भेड़ियों के खिलाफ मुहिम के बारे में कोई फैसला लेने से पहले सरकार थोड़ी उनकी शिकायत भी सुने। भेड़ियों ने यह पत्र मुख्यमंत्री तक पहुंचाने का जिम्मा मुझे सौंपा है। मैं पत्र लेकर मुख्यमंत्री आवास जा रहा हूं।
कुत्ते ने भेड़ियों का वह पत्र दिखाया। मेरी उत्सुकता बढ़ी तो मैंने उससे कहा कि क्या वह पत्र का मजमून पढ़कर सुना सकता है? कुत्ते ने मेरी बात मान ली। वह पत्र खोलकर पढ़ने लगा-
माननीय मुख्यमंत्री जी,
सभी भेड़ियों का आपको लेटवत प्रणाम। पूरा प्रदेश इनदिनों हमारे बारे में ही चर्चा में लीन है। टीवी से लेकर अखबारों तक और नुक्कड़ों से लेकर दफ्तरों तक भेड़िया पुराण बांचा जा रहा है। हर जुबां पर भेड़ियों की कहानियां-किस्से। कुछ झूठे, कुछ सच्चे। इतनी दहशत फैला दी गई है कि कुत्ता भी दिख जाए तो लोग भेड़िया-भेड़िया चिल्लाते हुए लाठी-डंडे लेकर दौड़ पड़ते हैं। लगता है भेड़िये ही सबसे बड़ी समस्या हैं। भेड़ियों का सफाया हो गया तो रामराज आ जाएगा।
सरकार ने हमारे खिलाफ पूरी फोर्स लगा दी है। किसी भी तरह भेड़ियों का सफाया करो। जिंदा न पकड़ में आएं तो गोली मार दो। अब गांव वालों से ज्यादा खौफ में तो हम जी रहे हैं। गांव वाले अपनी रक्षा में सजग रहें तो चलता है लेकिन सरकारी बंदूकें हमारे पीछे लगा दी गई हैं। क्या यह न्यायसंगत है? सिर्फ इंसान ही प्रजा हैं, उन्हें ही जीने का अधिकार है? हम जैसे जानवरों की जान की कोई कीमत नहीं है? यह तो सरासर नाइंसाफी है।
हम भेड़िये बस्तियों की तरफ क्यों मारे-मारे फिरते हैं, क्या सरकार ने कभी यह जानने की कोशिश की? कहा जाता है कि हमें जंगल में रहना चाहिए लेकिन जंगलों का तो दिनरात सफाया हो रहा है। जंगल तेजी से गायब हो  रहे हैं। उनकी जगह खेत और बस्तियां उग रही हैं। हमारे बड़े भाई बाघ और तेंदुए तो गन्ने के खेतों में रहने लगे लेकिन हमें कहीं ठिकाना नहीं मिल सका। आखिर भेड़िये कहां जाएं?
नदियों के किनारे झाड़-झंखाड़ में हमारे परिवार कुछ हद तक महफूज थे लेकिन बाढ़ ने सबको बेघर कर दिया। लाखों बेघर इंसान तो फुटपाथ पर सोकर जी रहे हैं लेकिन भेड़िये तो किसी खेत की मेड़ पर भी निश्चिंत होकर नहीं बैठ सकते। इसलिए हम दरबदर भटकने को मजबूर हैं। खेतों, नदी-नालों में जान बचाते फिरते हैं। लेकिन कोई यह तो बताए कि अब भेड़िये भूख से कैसे निपटें?
किसी भी भूखे पेट के सामने दो ही विकल्प होते हैं, या तो भूख से मर जाए या पूरे भेड़ियेपन पर उतर आए। इंसान तो भूख से मर जाते हैं लेकिन भूख से मरना भेड़ियों के स्वभाव में नहीं है। इसीलिए उन्हें पेट की आग शांत करने के लिए आबादी की ओर जाना पड़ रहा है। ताज्जुब है कि सरकार इसे भेड़ियों का अपराध मानती है।
भेड़ियों को आदमखोर बताया जा रहा है। हम तो केवल भूख मिटाने के लिए हिंसा का सहारा लेते हैं। हमसे ज्यादा तो हिंसक मानव है। ठगी, लूटपाट और हत्या की घटनाओं में लगे भरे पेट वाले इंसानों को क्या कहा जाएगा? असली आदमखोर तो वही हैं जो गरीबों, वंचितों और कमजोरों का खून चूस रहे हैं। कभी धर्म तो कभी जाति के नाम पर एकदूसरे की जान ले रहे हैं। हमें दरिंदा कहने वाले क्या बताएंगे कि दरिंदगी हम करते हैं या वे जो पांच-छह साल की बेटियों में भी औरत खोजते हैं। तब कहां चली जाती है सरकारी तंत्र और पुलिस की सख्ती। तथाकथित जागरूक समाज और प्रशासन तब क्यों नहीं उठाता लाठी और बंदूकें?
हम भेड़ियों को न किसी धर्म से कोई मतलब है न किसी जाति से। न किसी कुर्सी या किसी पार्टी से कोई नाता है। हमें किसी राजनीति या वोटबैंक से भी कोई लेनादेना नहीं है। धर्म, जाति, सत्ता, पार्टी और वोटबैंक के लिए हर तरह का धतकरम करने वालों से तो हम भेड़िये ही अच्छे हैं। हमें अपनी जाति पर गर्व है। मुख्यमंत्री जी आपसे अनुरोध है कि भेड़ियों के साथ भी इंसाफ किया जाए ताकि कोई भी भेड़िया इंसान बनने को मजबूर न हो। विश्वास है भेड़ियों की आवाज सरकार के कानों तक पहुंचेगी।
-न्याय की उम्मीद में भेड़ियों का झुंड
भेड़ियों का यह पत्र पढ़ने के बाद कुत्ता गंभीर हो गया और मुख्यमंत्री आवास की ओर चल दिया। तब से मेरे दिमाग में भेड़िये, उनका पत्र और बंदूकें लिए पुलिस वाले दौड़ रहे हैं।
अनिल त्रिवेदी
वरिष्ठ पत्रकार और व्यंग्यकार
Posted Date:

September 10, 2024

1:05 pm

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