लड्डू प्रकरण के बाद चूंचूं अंकल का दिल रह रहकर लड्डुओं के लिए मचल उठता है। मुंह का पानी कतई सूखने में नहीं आ रहा है। हर समय उनके मन में लड्डू फूट रहे हैं। लड्डुओं के प्रति अचानक उमड़ी उनकी प्रीति से घर के बाकी लोग हैरान हैं। रोज घर में आधा किलो लड्डू आते हैं और चूंचूं अंकल शाम तक सब अकेले ही निपटा देते हैं। सुबह फिर लड्डू-लड्डू की रट लगाने लगते हैं।
अंकल का लड्डू प्रेम इनदिनों उनके देशप्रेम से बड़ा हो गया है। पहले वे देशप्रेम में डूबे रहते थे, अब लड्डू प्रेम से बाहर आने को तैयार नहीं। वे मानते हैं कि बिना लड्डू खाए आप देश से प्यार नहीं कर सकते। जो देश से करे प्यार, लड्डू से कैसे करे इनकार। मुंह में लड्डू रखते ही देशप्रेम हिलोरें मारने लगता है। उनकी स्वादग्रंथियों में अचानक आए इस क्रांतिकारी परिवर्तन की भनक लगी तो मैं उनका हालचाल लेने एक सुबह उनके घर पहुंच गया। वे प्लेट में रखे लड्डू खींचने में मगन थे। दो लड्डू ठिकाने लगा चुके थे, बाकी दो को ललचाई नजरों से देख रहे थे।
मुझे देखते ही उन्होंने अनमने ढंग से मेरे आगे प्लेट बढ़ाई और बोले-आइए आप भी लड्डू खाइए। मैं हिचका- नहीं अब मैं लड्डू नहीं खाता हूं। और मेरी राय में आपको भी अब लड्डू नहीं खाने चाहिए। क्यों, भाई क्यों नहीं खाने चाहिए, उनके इस सवाल पर मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की- आप तो जानते ही हैं जब से प्रसाद के लड्डुओं में मिलावट की बात पता चली है तब से लड्डुओं की औकात कम हो गई है। इनदिनों कट्टर प्रेमी भी लड्डुओं से परहेज करने लगे हैं। अरे, लड्डू नहीं खाएंगे तो क्या, दूसरी कितनी मिठाइयां हैं। कुछ भी खाइए।
मेरी सलाह पर वे भड़क गए। बोले- यह लड्डुओं को बदनाम करने की साजिश है। लड्डू तो मिठाइयां का राजा है। जन्म से लेकर शादी तक और चुनाव से लेकर प्रसाद तक लड्डुओं का राज है। लड्डू तो खुशियों के वाहक हैं। हर कोई लड्डू पाने के बाद किसी की भी खुशी में शरीक होकर तालियां पीट सकता है। लड्डू अघाए हुए लोगों की थाली में सजा आखिरी निवाला है, भूखे पेट वालों की आंखों की चमक है। लड्डू के प्रेम से कोई कहां बच पाया है। अहा, कितने प्यारे होते हैं लड्डू। इतना कहकर अंकल ने एक और लड्डू उठाकर मुंह में रख लिया।
चूंचूं अंकल की बात से मैं सहमत नहीं था, इसलिए कहना पड़ा-लेकिन लड्डुओं में मिलावट तो अपराध है। यह तो लड्डू प्रेमियों के साथ धोखाधड़ी है। मेरी बात पर अंकल को हंसी आई। बोले-कैसी धोखाधड़ी? मिलावट तो अब पूरी तरह स्वीकार्य है। आजादी के बाद 75 सालों में हम बिना मिलावटी सामान के जीना ही भूल गए हैं। जरा बताइए तो कहां नहीं है मिलावट?
अंकल थोड़े आवेश में आ गए। वे बोले जा रहे थे- लोकतंत्र में तानाशाही की मिलावट है। वादों में सरासर झूठ का मिश्रण है। बयानों में बड़बोलापन मिला हुआ है। नेताओं के चेहरों की मुस्कान में कपट छिपा हुआ है। भाषणों में अक्सर नीचता की झलक दिख जाती है। कथनी में धोखा लिपटा हुआ है, करनी में अदृश्य धूर्तता शामिल है। अफसरशाही में घपलों का घालमेल है तो सियासत में नंगई खुलेआम है। अब आप ही बताइए क्या बचा है मिलावट से। ऐसे में अगर लड्डू में थोड़ी मिलावट है भी तो क्या फर्क पड़ता है। मैं तो कहता हूं लड्डुओं से परहेज कतई ठीक नहीं है। मस्त रहिए और मिलें तो लड्डू खाते रहिए।
मैं उनकी बात मानने को तैयार नहीं था सो पूछ बैठा- लेकिन प्रसाद के लड्डुओं में घटिया मिलावट मामूली बात नहीं है, यह तो सीधे-सीधे आस्था पर चोट है। मेरी दलील पर इस बार वे जोर से हंसे और बोले- भाई, कैसी आस्था और कैसी चोट। देश में मिलावटी शराब पीने से सैकड़ों लोग हर साल जिंदगी हार जाते हैं, तब किसी को चोट नहीं लगती। लाखों बच्चे कैसा दूध पी रहे हैं, कैसा खाना खा रहे हैं, किसी को चिंता है? लाखों लोग दूषित पानी पीने को मजबूर हैं, सैकड़ों की सांसें जहरीली हवा से थम जाती हैं, किसी को कष्ट होता है? कहां सो जाती है आस्था जब हजारों लोग गर्मी से तपकर, बाढ़ में बहकर और ठंड में जमकर या भूख से मर जाते हैं? इलाज के अभाव में मरने वालों की संख्या भी कम नहीं है। इसलिए लड्डू में मिलावट पर इतना हल्ला क्यों?
फिर चूंचूं अंकल ने प्लेट का आखिरी लड्डू उठाया और मेरी ओर बढ़ाते हुए बोले-खाइए, अब तो एक लड्डू आप भी खाइए। मैंने इनकार नहीं किया और मैं भी लड्डू का स्वाद लेने लगा। मैं अचानक लड्डुओं के बारे में गंभीर हो गया। वाकई कितने सुंदर होते हैं लड्डू। गोल-गोल, चिकने-चिकने लड्डू, लाल पीले और केसरिया रंग के, छोटे-बडे़ हर आकार के लड्डू। आम आदमी की सबसे प्रिय मिठाई।
मैं सोचने लगा हूं-कई हाथ तेजी से लड्डू बनाने में लगे हैं। आम आदमी लड्डू पाने की उम्मीद में खड़ा है। वोट देने के बाद वह पांच साल तक यूं ही उम्मीद में खड़ा रहता है। उससे वादा किया जाता है कि लड्डू बंटेंगे। कभी कभार हाथ में लड्डू धर दिया जाता है तो वह खुश हो लेता है। वह जानता है कि असली लड्डुओं पर तो सत्ता में बैठे लोगों का ही हक है। सभी बारी-बारी से मिल बांटकर लड्डू खाने में लगे हैं। आम आदमी के हिस्से तो मिलावट वाला लड्डू ही आएगा। फिर भी वह उम्मीद में है कि कभी तो उसे भी भरपेट लड्डू मिलेंगे। 75 साल बाद भी उसने उम्मीद नहीं छोड़ी है। वह लड्डू पाने के लिए कल भी कतार में था आज भी है।
अनिल त्रिवेदी
वरिष्ठ पत्रकार और व्यंग्यकार
Posted Date:
October 5, 2024
4:25 pm
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