खोए हुए वोटों की तलाश…
(यह कार्टून लोकमत न्यूज से साभार)
  • अनिल त्रिवेदी
चुनाव निपट गए। कुछ जीत गए और कई हार गए। कई जीतने के लिए चुनाव लड़े थे लेकिन हार गए। कुछ हारने के लिए मैदान में उतरे थे, पर विजयी हो गए। कई अपनी हार पर अचंभित हैं, कुछ अपनी जीत से भौचक्के। कुछ दो महीने बाद भी मिठाई बांट रहे हैं, कुछ अभी तक घुटनों में मुंह छिपाए बैठे हैं। जनता ने जिसे चाहा उसे धकेलकर संसद के भीतर भेज दिया। बाकी को बाहर ही रोक लिया, कहा कि तुम इस बार अंदर जाने के लायक नहीं हो। फिर भी कोई मानने को तैयार ही नहीं कि चुनाव में हार-जीत होती रहती है। आखिर संसद में सीटें भी गिनीचुनी ही हैं, उतने ही तो जीत सकते हैं जितने वहां बैठ सकें।
चुनाव की गर्मी ठंडी पड़ी तो अब समीक्षा की सरगर्मी बढ़ गई। हार-जीत के कारण तलाशे जा रहे हैं। हारने वाले खोज रहे हैं कि कहां चूक रह गई। कोई कोर-कसर तो छोड़ी नहीं, फिर जनता का वोटरूपी प्यार क्यों नहीं मिल सका। कोई थोड़ा भी सुराग दे दे तो अगली बार के लिए वे अपनी कमी दूर करने में अभी से जुट जाएं। जो जीत गए हैं वे भी पता लगवा रहे हैं कि पांच साल तो उन्होंने कुछ किया भी नहीं फिर क्यों मतदाताओं ने उन्हें निढाल कर दिया। अब वे अगले पांच साल में अपना खर्च निकालकर कैसे जनता का कर्ज चुकाएं।
सभी दल नतीजों की समीक्षा में लगे हैं। समीक्षा कई स्तर पर चल रही है। सबसे बड़े नेता राष्ट्रीय स्तर पर समीक्षा कर रहे हैं। उनसे छोटे प्रदेश स्तर की समीक्षा रिपोर्ट तैयार करने में जुटे हैं। क्षेत्रीय नेता क्षेत्र स्तर की कमजोरियों पर अपनी रिपोर्ट भेज रहे हैं। कुछ नेता हार-जीत की इलाकाई वजहें खोज रहे हैं। उम्मीदवार अपने स्तर पर बहाने तलाश रहे हैं। कुछ दल तो समीक्षा में ब्लॉक और गांव स्तर तक उतर आए हैं। कहते हैं असली कारण तो वहां की रिपोर्टों से ही पता चलेगा। कई समीक्षा रिपोर्टें आ चुकी हैं। कुछ तैयार हो रही हैं। कुछ जगह समीक्षा चल रही है। इस काम में बड़ी तेजी है।
एक दल की राष्ट्रीय स्तर की एक समीक्षा रिपोर्ट अभी-अभी आई है। रिपोर्ट में कहा गया है कि विरोधी हमें हारा हुआ बता रहा है जबकि हम दूर-दूर तक जीते हैं। विरोधियों को जिन सीटों पर हमारी हार दिखती है वहां भी हमारी जीत ही मानी जाए क्योंकि हम जीतते-जीतते हारे हैं। विरोधी अगर थोड़े ढीले पड़ जाते तो हम जीत जाते। हमारे कार्यकर्ताओं ने दो तिहाई ताकत लगा दी थी, थोड़ी और लगाते तो जीत पक्की थी। अगली बार हम पूरी तरह जीतकर दिखाएंगे।
दूसरे दल की गोपनीय राष्ट्रीय समीक्षा रिपोर्ट का कुछ निष्कर्ष लीक होकर बाहर आया है। रिपोर्टानुसार हम पूरी तरह जीत नहीं पाए लेकिन हमें खुद को हारा हुआ भी नहीं मानना चाहिए। दरअसल हम जहां हारे वहां के मतदाता समझ ही नहीं पाए कि हम जीत के लायक हैं। जहां के वोटर यह गूढ़ तथ्य समझ गए वहां हमारी जीत हुई। हमें और बड़े-बड़े वादे करने चाहिए थे। बाद में कह सकते थे-वादे हैं वादों का क्या। विरोधी हमें भ्रष्ट बता रहे थे। हम उन्हें महाभ्रष्ट कहते थे तो हमारी जीत निश्चित थी। अगली बार हमें इसका पूरा ध्यान रखना चाहिए।
एक पार्टी की राज्यस्तरीय समीक्षा रिपोर्ट ने तो सवाल ही उठा दिया कि सरकार बड़ा है या संगठन। पार्टी में अब इस पर मंथन चल रहा है। हो सकता है कुछ दिन में हार-जीत के कारणों की भनक भी लग जाए। कुछ क्षेत्रीय नेता तो अपनी गोपनीय समीक्षा रिपोर्ट लेकर सीधे आलाकमान के पास ही चले गए। एक नेता ने तो केवल इतना ही लिखा- हमें अपनों ने ही मारा, गैरों में कहां दम था। बड़े नेता को एक छोटे नेता ने भेजी रिपोर्ट में अंदर की बात बताई- फलां सीट से फलां जाति के उम्मीदवार को उतारते तो जीत पक्की थी। क्योंकि फलां नेता को फलां जाति वाले अब पसंद नहीं करते। विरोधी पार्टी का उम्मीदवार फलां जाति का था इसीलिए जीत गया।
अत्यंत गोपनीय एक रिपोर्ट में तो यहां तक जिक्र है कि चुनाव प्रचार के दौरान हमारा उम्मीदवार ही खोया रहा। एक सभा में मंच पर आ जाता तो दूसरी में अचानक गायब हो जाता। आखिर उसे कहां तक ढूंढ़ते। इसलिए दूसरा नेता चुनना मतदाताओं की मजबूरी था।
पार्टी के एक हारे उम्मीदवार के कार्यकर्ताओं ने जो समीक्षा रिपोर्ट भेजी वह चौंकाने वाली है। रिपोर्ट कहती है- हमारे गांव में जितने वोटर थे उससे ज्यादा ने आपको वोट दिया था। ईवीएम पूरी लबालब हो गई थी। लेकिन वोटों की गिनती के वक्त उसमें एक चौथाई वोट ही निकले। बाकी वोट कहां चले गए? जरूर ईवीएम में अंदर फंसे रह गए होंगे। ईवीएम को दोबारा झटका-पटका जाए, हो सके तो नट-बोल्ट खोलकर उसे खंगाला जाए। ऐसा हमारे गांव में हुआ है तो और गांवों में भी हुआ होगा। इसकी पूरी जांच होनी चाहिए। नेताजी, आपके हारने का तो कतई सवाल ही नहीं था।
दार्शनिक टाइप एक समीक्षक ने पार्टी को लिख भेजा है- चुनाव में हार-जीत तो होती रहती है। यह तो ऊपर वाले के हाथ में है। पराजित प्रत्याशियों को अगली बार भी प्रयास करना चाहिए। पार्टियों के पास समीक्षा रिपोर्टों का अंबार लग गया है। लगातार धड़ाधड़ रिपोर्टें आ रही हैं। बड़े नेता सभी का गहनता से अध्ययन करके एक ठोस निष्कर्ष निकालने में जुटे हैं। उम्मीद है अगले चुनाव के पहले तक समीक्षा के अनुरूप सभी दल उचित कदम उठा लेंगे।
लेकिन मेरे मोहल्ले के चूंचूं अंकल के विचार से समीक्षा की कवायद बेमतलब है। वे कहते हैं- पार्टियां नतीजे के बाद समीक्षा कर रही हैं। अरे, जनता निरी मूरख नहीं है। वह पूरे पांच साल सभी पर कड़ी निगाह रखती है। मौन रहकर सबकी करतूतें देखती है। आप एक दिन समीक्षा करेंगे जनता हर दिन आपको परखती है। और एक दिन चुपके से अपना फैसला सुना देती है। कोई अब भी न समझे तो अगली बार भी नतीजा भुगतने को तैयार रहे। लगता है चूंचूं अंकल की बात में दम है।
अनिल त्रिवेदी
वरिष्ठ पत्रकार और व्यंग्यकार
Posted Date:

August 12, 2024

10:47 pm Tags: , ,

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