संसद में इन दिनों थैला बंद सियासत का ज़ोर है… कुछ थैले कंधे पर हैं तो कुछ अलग अलग तरीकों से संसद के भीतर… बाहर तो झोला छाप कामरेड से लेकर झोला झाप लेखक और डॉक्टर की चर्चा तो अक्सर होती है लेकिन अब ये झोला संस्कृति कुछ बदली बदली सी है.. कुछ झोले पर पार्टी के निशान तो नेताओं की फोटो तो कुछ पर आंदोलन के नारे… कमाल की इस झोला या थैला संस्कृति पर जाने माने व्यंग्यकार और पत्रकार अनिल त्रिवेदी की तीखी नज़र…
मैं आज सुबह से ही चिंतन में लीन हूं। सुबह अखबार पढ़ते हुए चाय के साथ हर खबर का जायका लेने के बाद मेरे पास करने को कुछ नहीं बचता है तो निसंकोच भाव से कुछ देर सिर्फ चिंतन करता हूं। अपने देश में चिंतन के लिए राजनीति सबसे सुविधाजनक है। कोई कुछ करे या न करे, राजनीति पर चिंतन अवश्य करता है। चुनाव की गहमागहमी के बाद राजनीति में इनदिनों संविधान और थैला केंद्रीय मुद्दे हैं। बीते दिनों संविधान पर तो मैं कई बार चिंतन कर चुका हूं इसलिए अब थैले पर चिंतन करने बैठा हूं।
थैला जिंदगी का एक बड़ा जरूरी आइटम है। स्कूल से लेकर दफ्तर तक और बाजार से लेकर संसद तक थैला साथ-साथ चलता है। कंधे पर थैला होता है तो वह किसी को बोझ नहीं लगता बल्कि उसे जिम्मेदार होने का गर्व कराता रहता है। इंसान के लिए जितना महत्व कंधे का है उतना ही कंधे के लिए थैले का। हर थैलाधारी कंधा एक तरह से दायित्वबोध से लैस होता है। कंधा भी सदा चौकस रहता है कि अगर थैला छूटा तो कहीं उसे दायित्वमुक्त न मान लिया जाए। आखिर वह कंधा ही क्या जिस पर दायित्व का थैला न हो।
थैले का सर्वाधिक महत्व राजनीति में है। कोई और धंधा आप बिना थैला टांगे भी कर सकते हैं लेकिन राजनीति बिना थैले के मुमकिन नहीं है। राजनीति में थैलों का आगमन कैसे हुआ यह तो नहीं पता लेकिन थैलों का चलन बहुत पुराना है। राजनीति में थैले आए तो थैलों पर राजनीति भी साथ आई। अब जितने टाइप के थैले उतनी तरह की राजनीति। गोया थैले न हुए राजनीति के औजार हो गए हों।
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आजादी के पहले अंग्रेजों के थैले थे जिन्हें अंग्रेजों से अधिक उनके पांवपकडू भारतीय अपने कंधों पर टांगकर गर्व का अनुभव करते थे। फिर अंग्रेजों को अपने थैले लेकर आधी रात को ब्रिटेन कूच करना पड़ा लेकिन भारतीयों के कंधों को थैलों से स्वतंत्रता नहीं मिली। इसके बाद सर्वोदयी, गांधीवादी और संघी छाप वाले थैले निकल आए। हर किसी को लगता था कि आजादी उसी के थैले से निकली है और वही आजादी का असली रखवाला है। देश में कंधों पर लटकते थैलों का यह स्वर्ण काल था।
इसी दौर में सोवियत संघ और चीन के थैलों को भी भारतीय राजनीति में तमाम कंधे मिल गए। अमेरिकी थैले भी बाजार में थे लेकिन उन्हें टांगने वाले कम थे। अब तो अमेरिकी थैलों की पहुंच सत्ता तक है। धीरे-धीरे राजनीतिक दल बढ़े तो टोपियों के साथ-साथ उनके थैलों के रंग-रूप भी बदले। अब दलों का मेला है तो थैलों की धूम है। रंग-बिरंगे, देशी-विदेशी हर तरह के थैले। हर कंधे पर एक से बढ़कर एक थैला। कोई कंधा किसी से कम नहीं। कुछ के थैले दिखते नहीं हैं लेकिन उनके पास हैं जरूर। ये समय-समय पर नजर आ जाते हैं।
नेताओं का दावा है कि उनके कंधों पर पड़े थैले छूंछे नहीं हैं। ये थैले प्रेम से परिपूर्ण हैं। राष्ट्र और संविधान के प्रति तो थैलों में अगाध निष्ठा और श्रद्धा भरी है। गरीब, दलित, शोषित, वंचित, अगड़े-पिछड़े, अल्पसंख्यक, किसान सभी के लिए किस्म-किस्म के तोहफे हैं। बस मौका मिलने की देर है पूरा थैला खाली कर देंगे। थैलों पर राजनीति पहले सड़कों पर थी अब संसद तक पहुंच गई है। अपने-अपने थैले लाइमलाइट में लाने की होड़ है।
राजनीति में थैले पर मेरा चिंतन और गहनता में जाता इसके पहले ही पत्नी एक और चाय लेकर आईं। मेरी गंभीरता देख आवाज दी- अखबार पढ़ते-पढ़ते ऊंघने लगे हो या कोई गंभीर बात है? लीजिए चाय। मैं अचकचाया- नहीं यूं ही थैले पर चिंतन कर रहा था।
थैले के जिक्र पर पत्नी को अचानक याद आया-हम जिससे राशन लाते हैं उसने कल नए साल के लिए दो थैले दिए थे। वे जाकर दोनों थैले उठा लाईं। मैंने दोनों को गौर से देखा। एक पर डिटर्जेंट सोप छपा था, पहले इस्तेमाल करें फिर विश्वास करें और दूसरे पर जुबां केसरी वाला पान मसाला छपा था। मेरा चिंतन पूर्ण हुआ। मैं सोचने लगा कि राजनीति के थैले चाहे जैसे हों आम आदमी के थैले तो यही हैं। वह ऐसे ही थैले लेकर साबुन, बीड़ी-तंबाकू और पानमसाले का प्रचार करता रहता है और नेता अपने थैले दिखाकर उसे ललचाते रहते हैं। साबुन वाला थैला पत्नी ने ले लिया है और पानमसाले वाला थैला मेरे हिस्से आया है। अब पत्नी को साबुन से काम है और मुझे अपनी जुबां केसरी रखने से।
अनिल त्रिवेदी
वरिष्ठ पत्रकार और व्यंग्यकार
Posted Date:
December 23, 2024
11:19 am
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