लोक नाट्य शैली के नाटकों को बचाना ज़रूरी: संजय उपाध्याय
भारंगम में दूसरी बार हुआ मंचन भिखारी ठाकुर के मशहूर नाटक बिदेसिया का मंचन। निर्देशक थे संजय उपाध्याय।
 
भारत  रंग महोत्सव के दूसरे दिन लोकरंग कार्यक्रम में संजय उपाध्याय के निर्देशन में नाटक बिदेसिया का 856 वीं बार मंचन किया गया। इस दौरान दर्शकों ने तालियों और सीटियों से समां बांध दिया। एनएसडी के मुक्ताकाश मंच पर शाम सात बजे इस नाटक को देखने के लिए भीड़ उमड़ पड़ी। इसका एक कारण तो यह भी रहा होगा कि यह नाटक निःशुल्क था पर इस नाटक की अपार सफलता से कुछ सवाल भी उठे।
वरिष्ठ पत्रकार लेखक अरविंद कुमार ने जाने माने रंगकर्मी और निर्देशक संजय उपाध्याय से बातचीत की
संजय जी, आप देश के नामी गिरामी रंगकर्मी हैं और आपकी एक विशिष्ट पहचान है। आज आपके इस नाटक का सफल मंचन हुआ। आपने पहली बार इसका मंचन कब और कहाँ किया था।
मैंने पहली बार इसका मंचन 1986 में पटना में किया था। आज देखते देखते  करीब 40 साल हो गए इसके मंचन के। यह हिंदी रंगमंच के कुछ बेहद लोकप्रिय नाटकों में से एक हो गया।
आज आपने जो नाटक किया वह थोड़ा छोटा लगा। कोई वजह?
देखिये, जब पहली बार यह नाटक किया था तब यह बहुत लंबा था, पौने तीन घण्टे का था। बाद में इसे ढाई घण्टा, फिर दो घण्टे और फिर पौने दो घण्टे का किया। इस नाटक को मैँ बार बार संपादित कर माँजता और तराशता रहा। अब एक काफी चुस्त नाटक हो गया। पर दर्शकों ने सभी नाटकों का आनंद उठाया।
जब आपने पहली बार नाटक किया तो  इसमें  कितने कलाकार थे।
करीब 30 -35 कलाकार थे जिनमें  5 महिलाएं थीं। पहली बार रामप्यारी का किरदार संगीता सिंह ने किया था। फिर उमा और रजनी ने किया। इतने साल यह नाटक हुआ कि कलाकार भी बदलते गए पर सभी इससे मंज गए। आज भी आपने देखा होगा सबने कुशल तरीके से अपनी अपनी भूमिकाएं निभाईं।
अब तक यह नाटक कहाँ कहाँ हुआ है?
मैंने यह नाटक देश के सभी महानगरों और राज्यों की राजधानियों में किया। उत्तर भारत के अलावा दक्षिण भारत तथा पूर्वोत्तर राज्यों में भी किया। सभी जगह इसे सराहा गया।
क्या दक्षिण या पूर्वोत्तर राज्यों में किया तो दर्शकों को कोई दिक्कत इसकी भाषा को लेकर तो नहीं हुई क्योंकि यह भोजपुरी नाटक है।
नहीं कोई दिक्कत नहीं हुई। भाषा आड़े नहीं आयी क्योंकि यह सांगीत प्रधान नाटक है। संगीत की भाषा सभी समझते हैं और अभिनय की भाषा तो सभी समझते हैं ही। कहीं कहीं लोगों ने थोड़ी बहुत समस्या बताई लेकिन सबको आनंद आया इसे देखकर। अगर दर्शकों को कोई प्रस्तुति देखकर आनंद आये तो समझिए निर्देशक अपने उद्देश्य में सफल हो गया।
संजय जी, आपने यह नाटक इतनी बार किया कि आपकी यह पहचान बन गयी बल्कि यह नाटक आपके नाम से ही जाना जाने लगा। संजय उपाध्याय का मतलब बिदेसिया। क्या आपकी इमेज इसमें कैद नहीं हो गयी।
नहीं, बिल्कुल नहीं कैद हुई। पर एक सिग्नेचर नाटक जरूर है जैसे हबीब तनवीर का चरण दास चोर औऱ दूसरा आगरा बाजार। लेकिन मैंने कई बॉयोपिक नाटक भी किये और वे सफल हुए। मैंने  विद्यापति, कबीर, तुलसी,  हब्बा खातून, भिखारी ठाकुर और महेंद्र मिश्र के जीवन पर नाटक किये। और तो और हीरा डोम पर किया जो हिंदी के पहले दलित कवि थे जिनकी कविता सरस्वती में महावीर प्रसाद दिवेदी ने छापी थी।शायद ही किसी ने इतने बॉयोपिक नाटक किसी ने किए। इसके अलावा हिंदी के पहले नाटक आनंद रघुनन्दन का भी मंचन किया। उपन्यास कादम्बरी पर भी किया।
संजय जी, आप लोक शैली में नाटक करते हैं, क्या आपको नहीं लगता कि हिंदी रंगमंच पर अर्बन थिएटर हावी है।
आपका कहना सही है कि हिंदी थिएटर पर शहरी नाटकों की भरमार है। वही विषय और समस्याएं हावी हैं। गांवों कस्बों की तरफ ध्यान कम जाता है। हबीब तनवीर के बाद मैं ही हूँ जो लोक शैली के नाटकों का झंडा उठाये फिर रहा हूँ। मुझे और कोई दूसरा नजर नहीं आता जो लोक शैली में करता हो और राष्ट्रीय स्तर पर जो जाना जाता हो। मुझे तो बस अब अजय कुमार से उम्मीद है। वे ही हमलोगों की परंपरा को आगे बढ़ाएंगे।
क्या आपको नहीं लगता कि बाजार और भूमण्डलीकरण का प्रभाव हिंदी रंगमंच पर पड़ा है और फोक थिएटर पर असर पड़ा है।
आज थिएटर में कॉस्ट्यूम, साउंड, सेट और तकनीक पर अधिक जोर है। फिल्मों का भी असर थिएटर पर पड़ा है। दरसल समाज बदल रहा है तो दर्शक बदल रहे हैं। नाटकों के विषय और प्रस्तुति के तरीके बदल रहे हैं। लेकिन फोक थिएटर रहेगा क्योंकि लोग अपनी परंपरा और संस्कृति को भी जानना चाहते हैं खासकर नई पीढ़ी।
अच्छा यह बताएं । भारंगम के उद्घाटन के दौरान संस्कार भारती के प्रमुख को सम्मानित किया गया, इसे आप सही मानते हैं?
नो कमेंट।
Posted Date:

January 30, 2025

2:00 pm Tags: , , , ,

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Copyright 2024 @ Vaidehi Media- All rights reserved. Managed by iPistis