संध्या नवोदिता को दिया गया शीला सिद्धान्तकर कविता सम्मान

नई दिल्ली। युवा कवि संध्या निवेदिता को 27 अप्रैल को यहां 18 वें शीला सिद्धांतकर सम्मान से सम्मानित किया गया। इलाहाबाद की संध्या निवेदिता इन दिनों  दिल्ली में लेखा परीक्षा विभाग में कार्य  कर रही हैं। प्रसिद्ध इतिहासकार उमा चक्रवर्ती ने उन्हें यह सम्मान प्रदान किया।
सुश्री निवेदिता  को उनके कविता संग्रह” सुनो जोगी एवं अन्य कविताओं “ के लिए यह सम्मान दिया गया है। सम्मान के तहत उन्हें 21 हज़ार रुपए की राशि और प्रशस्ति पत्र दिया गया है। 5 जनवर 1944 को कानपुर में जन्मी शीला सिद्धांतकर की स्मृति में हर साल यह पुरस्कार किसी  कवयित्री के कविता संग्रह पर दिया जाता है। प्रो.नित्यानन्द तिवारी की अध्यक्षता में शिवमंगल सिद्धान्तकर, ज्योतिष जोशी और ज्ञानचन्द बागड़ी की निर्णायक समिति ने इस सम्मान का फैसला किया। समारोह में रामजी यादव और कर्ण सिंह चौहान द्वारा शीला जी बनी फिल्म भी दिखाई गई।
कार्यक्रम के दौरान अपने शुरुआती वक्तव्य में शिवमंगल सिद्धान्तकर ने लेखकों से सामाजिक सरोकारों के प्रति प्रतिबद्ध लेखन की बात उठाई। उन्होंने कहा कि  साहित्य  का दायित्व है कि वह अपने समय की समस्याओं से मुठभेड़ करे और व्यापक जन समुदाय को जागृत करे। उसके बाद कवि संध्या नवोदिता को समर्पित की गई सम्मान समिति की अनुशंसा पढ़ी गयी।
समिति के सचिव ज्योतिष जोशी ने अनुशंसा पढ़ते हुए कहा कि कवि संध्या नवोदिता की कविताएँ समकालीन हिन्दी कविता को विस्तार देती हैं। उनकी कविताओं में मानवीय चिन्ताएँ, अकारथ होते जा रहे सम्बन्ध और मानवीय संघर्ष तथा स्वप्न को जिस तरह विन्यस्त किया गया है उससे हम सहज ही कविता के आयतन के विस्तार को देख सकते हैं जिससे पाठक के संकुचित आत्म का भी विस्तार होता है और कविताएँ नई अर्थाभा से दमक उठती हैं। उनका पहला कविता संग्रह ‘ सुनो जोगी तथा अन्य कविताएँ ‘ अपनी उपर्युक्त विशिष्टताओं के साथ-साथ कविता में अनुभूति और करुणा,प्रेम और स्मृति,सहजता और आत्मीयता तथा कथ्य और शिल्प की कुशलता के कारण भी आकर्षित करता है। अपने समय की यातना और संक्रमण में जीते हुए कवि का यह कहना कितना समीचीन और अर्थपूर्ण है- ‘ एक जंगल -सा उग आया है/मेरे भीतर इनदिनों/कोई जल्दी नहीं/बेख़बर है यह दुनिया/समय की हलचलों से ‘ या भारत को आँख भर देखना हो-‘आँख भर देखती हूँ अपना देश/ और भारत एक आंसू बन जाता है ‘ या सर्वत्र व्याप्त हिंसा,अनाचार और असमानता के विरुद्ध यह कहना-‘ मैं एक सुनहरी सुबह की तलाश में/एक सन्दली शाम को खोजते/चली जा रही हूँ जाने किस बहिश्त की आस में/मैं कहती हूँ और रोती हूँ और फिर फिर दुःख ही बोती हूँ ‘ संध्या नवोदिता के अंतर में संचित अजस्र करुणा का निदर्शन है जो कविता में जगत के संताप को देखकर थिर हो गयी है।
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सम्मानित कवि संध्या ने अपने वक्तव्य में शीला सिद्धान्तकर की कविताओं और जीवन संघर्षों को याद किया और उनकी व्यक्तिता की विशिष्टताओं को रेखांकित किया। उन्होंने कविता को जीवन मर्म की संज्ञा दी और कहा कि वे अपनी रचनाओं को जिम्मेवारी के साथ निभाने की चेष्टा करती हैं। इस अवसर पर उन्होंने कश्मीर पर लिखी ‘ भारत के आंसू ‘ शीर्षक कविता का पाठ किया जो हाल की दुःखद घटना से जुड़ती है। इसके अतिरिक्त उन्होंने कुछ अन्य चर्चित कविताओं का पाठ भी किया।
कार्यक्रम में आलोचक आशुतोष कुमार ने उनके कविता संग्रह ‘ सुनो जोगी तथा अन्य कविताएँ ‘ पर विस्तार से बात की और कविता की अनुभूति की तरलता और उसमें विन्यस्त विचारों की सराहना की।
मुख्य अतिथि इतिहासकार उमा चक्रवर्ती ने कविता और इतिहास पर बात करते हुए दोनों की प्रासंगिकता के सूत्रों का विश्लेषण किया और स्वतन्त्रता के पूर्व और बाद की स्थितियों को क्रमशः आशा और निराशा कहकर कविता के साथ व्यवस्था और नागरिकों की बड़ी जिम्मेदारी की बात की।
उन्होंने भी संध्या नवोदिता को इस सम्मान के लिए बधाई दी। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए नारायण कुमार ने शीला सिद्धान्तकर के जीवट और सृजन पर बात की और कविताओं की चर्चा के क्रम में सम्मानित कवि की रचनाधर्मिता की सराहना भी की।
इस अवसर पर ‘ देशज समकालीन ‘ पत्रिका का लोकार्पण भी हुआ जिसके बाद सम्पादक आशुतोष राय सहित कुछ अन्य कवियों ने अपनी कविताएँ सुनाईं। कार्यक्रम का संचालन सम्मान समिति के सचिव ज्योतिष जोशी ने तथा धन्यवाद ज्ञापन व्यवस्थापक ज्ञानचन्द बागड़ी ने किया।
कौन थीं शीला सिद्धांतकर?
श्रीमती शीला सिद्धांतकर अपने समय की एक महत्वपूर्ण कवयित्री  और कार्यकर्ता थीं जिनका कुछ साल पहले कैंसर से निधन हो गया। वह हिंदी के प्रसिद्ध वामपंथी आलोचक एवं सामाजिक कार्यकर्ता शिवमंगल सिद्धांतकर की पत्नी थीं। शीला सिद्धान्तकार के पिता वकील थे।वह विद्रोही स्वभाव की महिला थीं और जात पात, छुआछूत  का विरोध करती थीं तथा उन्हें दिखावा पसन्द नहीं था। आर्य समाजी परिवार में जन्मी शीला जी के नाना ने जब गरीबों को  बचा हुआ जूठा खिलाया तो वह तब विद्रोह कर बैठीं। वह सितार भी बजाती थीं। वे आम लड़कियों की तरहनहीं थीं। प्रयाग से सांगीत में विशारद थीं तथा संगीत की शिक्षिका थीं। वे कानपुर से दिल्ली 71 में आईं उनक़ा परिचय शिवमंगल जी से हुआ। उन्हें कबीर पसंद थे,  फक्कड़ आदमी फकीर पसंद था। इसलिय उंन्होने शिवमंगल जी से शादी की। उन्हें चूड़ियां, बिंदी पसंद नहीं थीं।
वरिष्ठ पत्रकार और कवि अरविंद कुमार की रिपोर्ट
Posted Date:

April 28, 2025

4:09 pm Tags: , , ,

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